हिंदी कहानियों की प्रमुख शैलियाँ – हिंदी साहित्य

आज की पोस्ट में हम हिंदी कहानियों की प्रमुख शैलियाँ(Genre of story) को विस्तार से समझेंगे ,हम आशा करते है कि यह जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी।

हिंदी कहानियों की प्रमुख शैलियाँ

जिस प्रकार कहानी की भाषा के कई रूप हो सकते हैं, उसी प्रकार कहानी की शैली के भी कई रूप हो सकते हैं। वर्तमान आलोच्य युग में अनेक प्रकार की कहानी शैलीयाँ प्रचलित हैं-

  • वर्णनात्मक शैली
  • विश्लेषणात्मक शैली
  • आत्मकथात्मक शैली
  • संवादात्मक शैली
  • नाटक शैली
  • डायरी शैली
  • पत्र शैली
  • काव्यात्मक शैली
  • लोक कथात्मक शैली
  • स्मृतिपरक शैली
  • स्वप्न शैली
  • मनोविश्लेषणात्मक शैली

यहाँ कहानी कला की प्रमुख शैलियों का परिचय दिया जा रहा है-

(1) मनोविश्लेषणात्मक शैली –

ऐसी कहानियों का आधार फ्रायड का मनोविज्ञान है। इसमें अवचेतन मन को प्रधान मानकर चला जाता है। कहानीकार पात्रों का अन्तर्विश्लेषण करके व्यक्ति की मनःस्थिति को स्पष्ट करता है।

स्थूल घटनाओं की इसमें कमी होती है। अज्ञेय के ’विपथगा’ नामक कहानी-संग्रह की सभी कहानियाँ इसी प्रकार की है। हिन्दी में जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी, यशपाल, कमलेश्वर, मोहन राकेश आदि की कहानियों में मनोविश्लेषण शैली में विवरण अधिक मिलता है।

जैनेन्द्र की ’पत्नी’ श्रेष्ठ मनोविश्लेषणात्मक कहानी है। इसमें व्यक्तित्व के दोहरेपन के, यौन सम्बन्धी ग्रंथियों के तथा प्रणयन सम्बन्धी काॅम्पलेक्स के सूक्ष्म चित्र प्रस्तुत किये गये हैं।

जैनेन्द्र की कहानियों में जीवन की असाधारण परिस्थितियों के बीच मानव का मनोविज्ञानिक चित्रण मिलता है। उनकी ’चलितचित्र’ ऐसी ही कहानी है।

अज्ञेय कृत ’अकलंक’ व ’शत्रु’ नामक कहानियाँ भी मनोविश्लेषणात्मक हैं। ’शत्रु’ नामक कहानी में लेखक ने मानव प्रवत्ति का विश्लेषण करते हुए बतलाया है कि वह सरलता की तरफ आसानी से झुक जाता है। कुछ कहानियाँ अपराध मनोविज्ञान पर लिखी गई हैं, यथा – शिवानी की कहानियाँ।

(2) पत्र-शैली –

पत्र के रूप में कहानी लिख दी जाये, तो उसे पत्र-शैली में रचित कहानी कहते हैं। नायक-नायिका के परस्पर पत्रों के माध्यम से ही लेखक कहानी का ताना-बाना तैयार कर देता है। इस शैली में भी हिन्दी की गिनी-चुन्नी कहानियाँ लिखी गई थीं, जैसे-’कवि की स्त्री’। कमलेश्वर की ’मानसरोवर के हंस’ कहानी भी पत्र-शैली में लिखी गई है।

इसमें कथा का विकास पात्रों के उत्तर-प्रत्युत्तरों के माध्यम से होता है, किन्तु इसमें जरूरी है कि लेखक तर्कवादिता का आश्रय न ले। इस शैली का प्रचलन प्रेमचन्दजी के जमाने में हो गया था। प्रेमचन्द की ’दो सखियाँ’ तथा प्रसाद कृत ’देवदासी’ भी इसी शैली में लिखी गई कहानियाँ हैं। इस शैली में लेखक अधिक स्वतन्त्र नहीं रहता है।

प्रत्यक्ष घटनाओं का अभाव रहता है। वर्णनात्मकता अधिक आ जाती है। पात्र अपनी बातों का व अपने साथ घटी घटनाओं का ही वर्णन करते है। इसमें संवादों को भी सम्यक् स्थान नहीं मिलता है। मूलतः ऐसी कहानियाँ चरित्र प्रधान हुआ करती हैं।

(3) आत्मकथात्मक शैली –

प्रथम पुरुष में कहानी लिखने का तरीका आत्मकथात्मक शैली में आता है। इसमें लेखक ही नायक लगता है, ’मैं’ का प्रयोग होता है। आधुनिक कहानी-साहित्य में इस शैली का अधिक प्रयोग हुआ है। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, अमरकांत, निर्मल वर्मा आदि ने इस शैली में कहानियाँ लिखी हैं।

प्रायः इसमें एक ही पात्र कथा कहता है। यदि पात्र अधिक हों तो सभी अपनी-अपनी बात कहते हैं। सभी की बात प्रथम पुरुष में पृथक्-पृथक् परिच्छेदों में कही गई होती है, किन्तु सब एक ही भाव संवेदना या कथा की ही पुष्टि करते हैं। यह शैली चरित्र प्रधान कहानियों के लिए विशेष रूप से अनुकूल पङती है।

इस शैली में लिखना थोङा सुविधाजनक भी है। कथा-सूत्र मिलाने में लेखक को सावधानी बरतनी पङती है, किन्तु ऐसी कहानियों में नाटकीयता व सक्रियता का प्रायः अभव-सा रहता है। ’चित्र वाले पत्थर’, ’एक घटना’, ’तस्वीर’, वह प्रतिमा’, ’खूनी’ व ’अपत्नीक’ ऐसी ही शैली में मुख्य कहानियाँ हैं।

(4) भावात्मक शैली-

ऐसी कहानियों में कथा के स्थान पर भावों की उमङ-घुमङ अधिक होती है। भावुक पात्र व संवेदनशीलता से डबाडब भरी कथा ही इस शैली की विशेषता होती है। कवि का हृदय, मधूलिका, आकाशदीप आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं।

इन कहानियों में कथा के तत्त्वों को विशेष स्थान नहीं मिलता। वस्तुतः इस शैली में प्रेम, करूणा, दया आदि भाव ही प्रमुख रहते हैं। राष्ट्रीय प्रेम का उद्वेलन करने वाली कहानियां भी इसी श्रेणी में आती है।

भावात्मक कहानियाँ भी वातावरण व चरित्र-प्रधान होती हैं। इनकी भाषा में भावात्मकता के अधिक उदाहरण मिलते है। प्रसाद की ’बिसाती’ नामक कहानी भी भावात्मक शैली का श्रेष्ठ उदाहरण है। सुदर्शनजी ने भी कुछ भावात्मक शैली की कहानियाँ लिखी है। ’आशीर्वाद’, ’हार की जीत’ आदि कहानियों में इस शैली के उदाहरण मिलते है।

अमरकान्त कृत ’एक काली लङकी’ को भावात्मक शैली का सुन्दर उदाहरण माना जा सकता है। ये कहानियाँ कुछ-कुछ गद्य-काव्य जैसी होती है। आज तो यह शैली भी अपना महत्व खो चुकी है, प्रेमचन्द युग के बाद इस प्रकार की कहानियाँ नहीं लिखी गई है।

(5) प्रतीकात्मक शैली-

ऐसी कहानियों में शीर्षक सांकेतिक होते हैं उनकी कथा में भी प्रतीकों का प्रयोग होता है। ये कहानियाँ प्रभावशाली होती है। ’परिन्दे’, ’बिल और दाना’ आदि ऐसी ही कहानियां है। प्रतीकात्मक शैली में अर्थ सौन्दर्य अधिक होता है। ’फेंस के इधर और उधर’ भी ऐसी ही कहानी है।
इस शैली के दो रूप होते है- कलात्मक तथा भावात्मक।

कलात्मक रूप में कला सम्बन्धी प्रतीकों का प्रयोग किया जाता है। वहाँ पर प्रतीक विधान का उद्देश्य केवल कलात्मक सौन्दर्य उत्पन्न करना होता है। भावात्मक रूप में प्रतीक भी प्रेम, घृणा, क्रोध आदि विविध भावों को व्यक्त करने वाले होते है। कामैषणाओं की अभिव्यंजना में प्रतीकों का अधिक प्रयोग होता है।

फ्राॅयड ने सैंकड़ों काम-प्रतीकों का उल्लेख किया था, जिनका प्रयोग कहानियों में भी किया गया है।
ये प्रतीक मूर्त भी होते है, अमूर्त भी। ’बिल और दाना’ तथा ’फेंस के इधर और उधर’ में भी सभी मूर्त प्रतीक है। भावात्मक प्रतीकों का प्रयोग ’बिसाती’ नामक कहानी में हुआ है।

प्रतीकों के माध्यम से कई बार मनुष्य की सूक्ष्म प्रवृत्तियों का भी चित्रण किया जाता है। इससे अभिव्यक्ति में सुन्दरता व प्रभावात्मकता आती है। मानसिक संघर्ष को व्यक्त करने में भी प्रतीक शैली से काफी सहायता मिलती है। संघर्ष की विविध स्थितियों को प्रतीक सरलतापूर्वक व्यक्त कर देते हैं। जैनेन्द्र कृत ’तत्सत्’ एवं कमलकांत त्रिपाठी कृत ’पगडण्डी’ ऐसी ही कहानियाँ है।

(6) स्वप्न शैली-

इस शैली की कहानियाँ केवल भारतेन्दु युग में ही लिखी गई। इसमें सम्पूर्ण कहानी एक स्वप्न के माध्यम से चलती है। इसके भी दो प्रकार हैं- या तो सारी कहानी एक स्वप्न में पूर्ण हो जाये अथवा छोटे-छोटे खण्ड या स्वप्न के जरिये एक पूर्ण कथा का संगठन किया जाये। इस प्रकार की कहानियों में भावात्मकता व व्यंग्यात्मकता का प्राधान्य होता है। ’राजा भोज का सपना’ ऐसी ही कहानी है।

भारतेन्दु युग के बाद स्वप्न शैली का लोप हो गया। वैसे मनोविश्लेषण के लिए भी इस शैली को अपनाया जा सकता है, किन्तु कथा-शैली के विकास में आज यह अपना स्थान खो चुकी है। स्वप्न शैली में रोमानियत की अधिकता रहती है। हाँ, खण्ड स्वप्न-शैली को अभी भी अपनाया जा रहा है।

(7) आदर्शवादी कहानी-

जिस कहानी में कोई आदर्श प्रस्तुत किया जाता है, उसे आदर्शवादी कहानी कहते हैं। हिन्दी में प्रेमचन्द व उनके पूर्व अनेक कहानीकारों ने आदर्शवादी कथायें लिखी। 1936 में पूर्व तथा बाद में भी 1955 तक ऐसी कहानियाँ लिखी जाती रहीं।

आदर्शवादी कहानीकारों में प्रेमचन्द, प्रसाद, सुदर्शन, गुलेरी, रायकृष्णदास, चतुरसेन शास्त्री, विष्णु प्रभाकर आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने अपनी कहानियों में प्रेम, त्याग, न्याय, ईमानदारी, राष्ट्रप्रेम आदि के अनेक आदर्श प्रस्तुत किये हैं। प्रसाद कृत ’आकाशदीप’ व ’पुरस्कार’ में प्रेम व कत्र्तव्य का आदर्श व्यक्त है।

गुलेरी की ’उसने कहा था’ कहानी प्रेम व उत्सर्ग का शाश्वत उदाहरण प्रस्तुत करती है। प्रेमचन्द कृत ’पंच परमेश्वर’ न्याय के आदर्श का ज्वलन्त उदाहरण है। सुदर्शन की ’हार की जीत’ नामक कहानी में सरलता व ईमानदारी का आदर्श प्रस्तुत किया गया है।

आदर्शवादी कहानी का उद्देश्य सामाजिक सुधार होता है। इसमें समाज की बुराइयों को रोकने, कम करने व दूर करने के लिए विशिष्ट आदर्श प्रस्तुत किये जाते है। आदर्शवादी कहानी यथार्थ से दूर रहती है। उनमें समाज की वस्तुस्थिति का चित्रण प्रायः कम होता है।

इसीलिये धीरे-धीरे कोरी आदर्शवादी कहानी की परम्परा का लोप होता गया। प्रेमचन्द ने इसी क्रम में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को सामने रखा। जयशंकर प्रसाद, चतुरसेन शास्त्री व वृन्दावनलाल वर्मा ने ऐतिहासिक कथानकों के माध्यम से उत्कृष्ट आदर्श प्रस्तुत किये।

विष्णु प्रभाकर ने सामाजिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए अनेक पारिवारिक आदर्श प्रस्तुत करने वाली कहानियाँ लिखी।

हिंदी कहानियों की प्रमुख शैलियाँ

(8) यथार्थवादी कहानी-

आदर्शवाद के समानान्तर यथार्थवाद का विकास हुआ। समाज की वास्तविकता का चित्रण यथार्थवादी कहानियों में किया जाने लगा। सामाजिक रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, पूँजीपतियों के शोषण, भ्रष्टाचार, राजनीति के खोखलेपन आदि को कहानी में चित्रित किया जाने लगा।

प्रेमचन्द ने ग्रामीण व शहरी समाज की अनेक विषमताओं और ज्वलन्त समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया। उनका यथार्थवाद आदर्श की तरफ झुका हुआ था।
सियारामशरण गुप्त, भगवती प्रसाद वाजपेयी, भगवतीचरण वर्मा आदि ने अनेक यथार्थवादी कहानियाँ लिखीं। यथार्थवादी कहानी लिखने वालों में यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, चन्द्रकिरण सोनरिक्सा, प्रभाकर माचवे, अमृतलाल नागर आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

समाज की आर्थिक व राजनीतिक विषमताओं का यथार्थ एवं प्रभावकारी चित्रण यशपाल की कहानियों में सर्वाधिक मिलता है। रांगेय राघव ने मध्यम व निम्नवर्गीय स्थितियों का वास्तविक चित्रण किया।

चन्द्रकिरण सोनरिक्सा की कहानियाँ मजदूर वर्ग का आइना है।

इन यथार्थवादी कहानियों की मूल संवेदना प्रगतिवादी है। इनमें भाषा भी सरल, सहज और अकृत्रिम है। आगे चलकर यथार्थवादी कहानी सेक्स तक ही सीमित हो गई।
इधर कुछ कहानीकारों ने इस दिशा में कमाल कर दिखलाया है।

हरिशंकर परसाई कृत ’भोलाराम का जीव’, मोहन राकेश कृत ’परमात्मा का कुत्ता’ व कमलेश्वर कृत ’खोई हुई दिशायें’ भी यथार्थवादी कहानियाँ मानी जा सकती है। यथार्थवादी कहानियों का युग समाप्त नहीं हुआ हैं। वे आज भी लिखी जा रही है।

आज की जानकारी हिंदी कहानियों की प्रमुख शैलियाँ आपको अच्छी लगी होगी …..

 

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