आज के आर्टिकल में हम भाषा किसे कहतें है (Bhasha Kise Kahate Hain),भाषा का अर्थ ,भाषा के प्रकार विस्तार से पढेंगे।
भाषा की परिभाषा – Bhasha ki Paribhasha
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दोस्तो सामान्यतः भाषा मनुष्य की सार्थक व्यक्त वाणी को कहते है। ’भाषा’ शब्द संस्कृत के ’भाष्’ धातु से बना है। इसका अर्थ वाणी को व्यक्त करना है। इसके द्वारा मनुष्य के भावों, विचारों और भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। भाषा की परिभाषा देना एक कठिन कार्य है। फिर भी, भाषावैज्ञानिकों ने इसकी अनेक परिभाषाएँ दी है। किन्तु, ये परिभाषाएँ पूर्ण नहीं है। हर में कुछ-न-कुछ त्रुटि पाई जाती है।
आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा ने भाषा की परिभाषा इस प्रकार बनाई है- ’’उच्चरित ध्वनि-संकेतों की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अभिव्यक्ति अथवा जिसकी सहायता से मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय या सहयोग करते है, उस यादृच्छिक, रूढ़ ध्वनि-संकेतों की प्रणाली को भाषा कहते है।’’
यहाँ तीन बातें महत्त्वपूर्ण है-
- भाषा ध्वनि संकेत है,
- यह यादृच्छिक है,
- यह रूढ़ है।
(1) सार्थक शब्दों के समूह या संकेत को भाषा कहते है। यह संकेत स्पष्ट होना चाहिए। मनुष्य के जटिल मनोभावों को भाषा व्यक्त करती है, किन्तु केवल संकेत भाषा नहीं है। रेलगाड़ी का गार्ड हरी झंडी दिखाकर यह भाव व्यक्त करता है कि गाङी अब खुलनेवाली है, किंतु भाषा में इस प्रकार के संकेत का महत्व नहीं है।
सभी संकेतों को सभी लोग ठीक-ठीक समझ भी नहीं पाते और न इसके विचार ही सही-सही व्यक्त हो पाते है। सारांश यह कि भाषा को सार्थक और स्पष्ट होना चाहिए।
(2) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यहाँ शब्द और अर्थ में कोई तर्क-संगत संबंध नहीं रहता। बिल्ली, कौआ, घोड़ा आदि को क्यों पुकारा जाता है, यह बताना कठिन है। इनकी ध्वनियों को समाज ने स्वीकार कर लिया। इसके पीछे कोई तर्क नहीं है।
(3) भाषा के ध्वनि-संकेत रूढ़ होते है। परंपरा या युगों से इनके प्रयोग होते आए है। औरत, बालक, वृक्ष आदि शब्दों का प्रयोग लोग अनंतकाल से करते आ रहे है। बच्चे, जवान, बूढ़े- सभी इनका प्रयोग करते है। क्यों करते है, इसका कोई कारण नहीं है। ये प्रयोग तर्कहीन है।
हिंदी के कुछ भाषा वैज्ञानिकों ने भाषा के निम्नलिखित लक्षण बताए है-
(क) ’मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते है।’ -डाॅ. श्यामसुंदरदास।
(ख) ’जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उसको समष्टि रूप से भाषा कहते है।’ –डाॅ. बाबूराम सक्सेना
(ग) ’भाषा मनुष्यों की उस चेष्टा या व्यापार को कहते है, जिससे मनुष्य अपने उच्चारणपयोगी शरीरावयवों से उच्चारण किए गए वर्णनात्मक या व्यक्त शब्दों द्वारा अपने विचारों को प्रकट करते है।’ –मंगलदेव शास्त्री
उपर्युक्त परिभाषाओं से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते है-
- भाषा में ध्वनि-संकेतों का परंपरागत और रूढ़ प्रयोग होता है।
- भाषा के सार्थक ध्वनि-संकेतों से मन की बातों या विचारों का आदान -प्रदान होता है।
- भाषा के ध्वनि-संकेत किसी समाज के आतंरिक और बाह्य कार्यों के संचालन या विचार-विनिमय में सहायता करतें है।
- हर समाज या समूह के ध्वनि-संकेत अपने होते है, दूसरों से भिन्न होते है।
- भाषा के ध्वनि-संकेत उच्चारणो से या संकेतों से वर्णों या शब्दों के रूप में व्यक्त होते है।
भाषा की प्रकृति
भाषा समुद्र की तरह सदा चलती-बहती रहती है। भाषा के अपने गुण या स्वभाव को भाषा की प्रकृति कहते है। हर भाषा की अपनी प्रकृति, आंतरिक गुण-अवगुण होते है। भाषा एक सामाजिक शक्ति है, जो मनुष्य को प्राप्त होती है। मनुष्य उसे अपने पूर्वजों से सीखता है और उसका विकास करता है। यह परंपरागत और अर्जित दोनों है।
भाषा के दो रूप हैं–
- मौखिक
- लिखित
हम इसका प्रयोग कथन के द्वारा, अर्थात बोलकर और लेखन के द्वारा करते है। देश और काल के अनुसार भाषा अनेक रूपों में बँटी है। यही कारण है कि संसार में अनेक भाषाएँ प्रचलित है।
भाषा वाक्यों से बनती है, वाक्य शब्दों से और शब्द मूल ध्वनियों से बनते है। इस तरह वाक्य, शब्द और मूल ध्वनियाँ ही भाषा के अंग है। व्याकरण में इन्हीं के अंग-प्रत्यंगों का अध्ययन-विवेचन होता है। अतएव, व्याकरण भाषा पर आश्रित है।
भाषा के विविध रूप
हर देश में भाषा के तीन रूप मिलते है-
- बोलियाँ
- परिनिष्ठित भाषा
- राष्ट्रभाषा
जिन स्थानीय बोलियों का प्रयोग साधारण जनता अपने समूह या घरों में करती है, उसे बोली कहते है। किसी भी देश में बोलियों की संख्या अनेक होती हैं भारत में लगभग 600 से अधिक बोलियाँ बोली जाती है। ये घास-पात की तरह अपने-आप जन्म लेती है और किसी क्षेत्र-विशेष में बोली जाती है; जैसे- भोजपुरी, मगही, ब्रजभाषा, अवधी आदि।
परिनिष्ठित भाषा व्याकरण से नियंत्रित होती है। इसका प्रयोग शिक्षा, शासन और साहित्य में होती है। किसी बोली को जब व्याकरण में परिष्कृत किया जाता है, तब वह परिनिष्ठित भाषा बन जाती है। खङीबोली कभी बोली थी, आज परिनिष्ठित भाषा बन गई है, जिसका उपयोग भारत में सभी स्थानों पर होता है।
जब भाषा व्यापक शक्ति ग्रहण कर कर लेती है, तब आगे चलकर राजनीतिक और सामाजिक शक्ति के आधार पर राजभाषा या राष्ट्रभाषा का स्थान पा लेती है।
ऐसी भाषा सभी सीमाओं को लांघकर अधिक व्यापक और विस्तृत क्षेत्र में विचार-विनिमय का साधन बनकर सारे देश की भावात्मक एकता में सहायता होती है। भारत में पंद्रह विकसित भाषाएँ है, पर हमारे देश के राष्ट्रीय नेताओं ने हिंदी भाषा को ’राष्ट्रभाषा’ का गौरव प्रदान किया है।
इस प्रकार हर देश की अपनी राष्ट्रभाषा है- रूस की रूसी, फ्रांस की फ्रांसीसी, जर्मनी की जर्मन, जापान की जापानी आदि।
हिन्दी भाषा की उत्पत्ति
भाषा नदी की तरह चंचल है। वह रुकना नहीं जानती। यदि कोई इसे बलपूर्वक रोकना भी चाहे, तो यह उसके बंधन को तोङ आगे निकल जाती है। यह उसकी स्वाभाविक प्रकृति और प्रवृत्ति है। हर देश की भाषा के इतिहास में ऐसी बात देखी जाती है।
भारत एक प्राचीन देश है। यहाँ के लोग भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते और लिखते आए है। संस्कृत इस देश की सबसे पुरानी भाषा है, जिसका व्यवहार हमारे पुराने ऋषि-मुनियों, विद्वानों और कवियों ने समय-समय किया है।
इसका प्राचीनतम रूप संसार की सर्वप्रथम कृति ’ऋग्वेद’ में देखने को मिलता है। संस्कृत को ’आर्यभाषा’ या ’देवभाषा’ भी कहते है। यह आर्यभाषा, अनुमान है, लगभग 3500 वर्ष पुरानी है। हिंदी इसी आर्यभाषा ’संस्कृत’ की उत्तराधिकारी है, जिसकी उत्पति की कथा निम्नलिखित है।
भारतीय आर्यभाषा संस्कृत का इतिहास साढ़े तीन हजार वर्षों का है। इस इतिहास को तीन कालों में बाँटा गया है-
- प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल (1500 ई. पू. से 500 ई. पू. तक)
- मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल (500 ई. पू. से 1000 ई. तक)
- आधुनिक भारतीय आर्यभाषा काल (1000 ई. से आज तक)।
इन तीन कालों का संक्षिप्त भाषिक परिचय इस प्रकार है- प्रथम काल में चारों वेद, ब्राह्मण और उपनिषदों की रचना हुई, जो वैदिक संस्कृत में लिखे गए है। इन ग्रंथों की भाषा का रूप एक नहीं है। भाषा का सबसे पुराना रूप ऋग्वेदसंहिता’ में पाया जाता है।
लोगों का कहना है कि वैदिक संस्कृत का सबसे पुराना रूप तब का है जब आर्य पंजाब के आसपास निवास करते थे। फिर आर्य आगे बढ़े। इसी तरह वे पूरब की ओर बढ़ते गए और वैदिक भाषा का क्रमशः विकास होता गया। यह भाषा बोलचाल की नहीं, साहित्यिक थी, विद्वानों और मनीषियों की थी।
दर्शन-ग्रंथों के अतिरिक्त संस्कृत का उपयोग साहित्य में भी हुआ है। इसे ’लौकिक संस्कृत’ कहते है। इसमें रामायण, महाभारत, नाटक, व्याकरण आदि लिखे गए। पाणिनी और कात्यायन ने संस्कृत भाषा के बिगड़ते रूप का नवीन संस्कार किया, उसे परिनिष्ठित किया और पंडितों के लिए मानक रूप प्रस्तुत किया।
विदेशी विद्वानों (हार्नली, ग्रियर्सन तथा वेबर) ने इस संस्कृत को बोलचाल की भाषा नहीं माना, किंतु डाॅ. भंडारकर और डाॅ. गुणे ने इस मत का खंडन किया है। सच तो यह है कि साहित्य की भाषा बोलचाल की भाषा से थोङी भिन्न होती है। इस दृष्टि से लौकिक संस्कृत भाषा बोलचाल की भाषा से निश्चय ही दूर थी। किंतु, शिष्ट ’बोली’ से बिल्कुल अलग नहीं होती। दोनों का आदान-प्रदान होता रहता है।
प्रथम काल की प्राचीन भारतीय आर्यभाषा की कुछ भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार है-
(1) भाषा योगात्मक थी।
(2) शब्दों में धातुओं का अर्थ प्रायः सुरक्षित था।
(3) भाषा अपेक्षाकृत अधिक नियमबद्ध थी।
(4) भाषा संगीतात्मक थी।
(5) तीन लिंग और तीन वचन थे।
(6) पदों का स्थान निश्चित नहीं था।
(7) शब्द-भंडार में तत्सम शब्दों की संख्या अधिक थी।
(8) दक्षिण के अनेक द्रविड़ शब्दों का उपयोग होने लगा था।
500 ई. पू. से 1000 ई. तक भारतीय आर्यभाषा एक नए युग से प्रवेश कर गई भाषा की सृष्टि एवं विकास करती रही। मूलतः इस काल में लोकभाषा का विकास हुआ। इस विकास के फलस्वरूप भाषा का जो रूप सामने आया, उसे प्राकृत कहते है। वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के काल में बोलचाल की जो भाषा दबी पड़ी थी, उसने अनुकूल समय पाकर सिर उठाया और उसी की प्राकृतिक विकास ’प्राकृत’ में हुआ।
उस काल में यह प्राकृत तीन अवस्थाओं से होकर विकसित हुई। प्रथम अवस्था पालि और शिलालेखी प्राकृत सामने आई। दूसरी अवस्था में अनेक प्रकार की प्राकृतों का और तीसरी अवस्था में अपभ्रंशों का विकास हुआ।
पालि भारत की प्रथम ’देशभाषा’ है। इसे सबसे पुरानी प्राकृत भी कहते है। इसी भाषा में भगवान बुद्ध और उनके अनुयायियों ने जनसाधारण को उपदेश दिए थे। सिंहल या श्रीलंका के लोग ’पालि’ और ’मागधी’ कहते है, क्योंकि इस भाषा की सृष्टि मगध में हुई थी। इसमें तत्कालीन अनेक बोलियों के तत्व वर्तमान है। इसमें तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक हुआ है।
पहली सदी में 500 ई. तक उत्तर भारत के भिन्न-भिन्न भागों में जिस भाषा का व्यवहार अधिक हुआ, उसे ’प्राकृत’ भाषा कहते है। आचार्य हेमचंद्र इसे संस्कृत से निकली भाषा मानते है। सामान्य मत यह है कि वह भाषा, जो असंस्कृत थी, बोलचाल की थी, पंडितों में प्रचलित नहीं थी, सहज ही बोली और समझी जाती थी, स्वभावतः ’प्राकृत’ कहलाई।
भाषाविज्ञान ने प्राकृत के पाँच प्रमुख भेद स्वीकार किए है-
- शौरसेनी
- पैशाची
- महाराष्ट्री
- अर्द्धमागधी
- मागधी
शौरसेनी प्राकृत मथुरा या शूरसेन-जनपद के आसपास बोली जाती थी। यह ’मध्यप्रदेश’ की प्रमुख भाषा थी, जिस पर संस्कृत का प्रभाव था। ’मध्यप्रदेश’ संस्कृत का मुख्य केंद्र था। बाद में यही हिंदी का मूल केंद्र या गढ़ बना। पैशाची प्राकृत उत्तर-पश्चिम में कश्मीर के आसपास की भाषा थी।
महाराष्ट्री प्राकृत का मूल स्थान महाराष्ट्र है। मराठी का विकास इसी से हुआ है। अर्द्धमागधी प्राकृत का क्षेत्र मागधी और शौरसेनी के बीच का है। यह प्राचीन कोशल के आसपास प्रचलित थी। इस भाषा का उपयोग अधिकतर जैनसाहित्य में हुआ है। मागधी प्राकृत मगध के आसपास प्रचलित थी।
1000 ई. से भारतीय आर्यभाषा नए युग में प्रवेश करती है। मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा का चरम विकास ’अपभ्रंश’ में हुआ। जब वररुचि जैसे प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राकृतों को व्याकरण के साँचे में ढाल दिया, लोकभाषा ने परिनिष्ठित प्राकृतों के विरुद्ध विद्रोह किया। यह वस्तुतः पंडितों की भाषा पर जनता की भाषा की विजय थी, जो अपभ्रंशों में फलवती हुई।
अपभ्रंश के अनेक नाम प्रचलित है- ग्रामीण भाषा, देशी, देशभाषा, अपभ्रंश, अवहंस, अवहत्थ, अवहट्ठ आदि। अपभ्रंश का अर्थ ही है बिगङा हुआ, गिरा हुआ, भ्रष्ट। ये नाम पंडितों द्वारा दिए गए थे, जिन्हें लोकभाषा सदा इसी रूप में दिखाई पङती रही। भारतीय भाषा के इतिहास में 500 ई. से 1000 ई. तक के काल को ’अपभ्रंशकाल’ कहा गया है। आधुनिक आर्यभाषाओं की उत्पति इन्हीं अपभ्रंशों से हुई है।
एक प्रकार से ये अपभ्रंश भाषाएँ प्राकृत भाषाओं और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की कङियाँ है। प्राकृत भाषाओं की तरह अपभ्रंश के परिनिष्ठित रूप का विकास भी ’मध्यप्रदेश’ में ही हुआ था। इसपर अन्य रूपों का प्रभाव भी पङा है। हिंदी का जन्म इसी मध्यप्रदेश में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के योग से हुआ।
उत्तर भारत में अपभ्रंश के सात भेद या रूप प्रचलित थे, जिनसे आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ । ये सात प्रकार के अपभ्रंश इस प्रकार है, जिनके सामने उससे जन्मी आधुनिक भाषाओं के नामों का उल्लेख किया गया है-
अपभ्रंश आधुनिक भारतीय भाषाएँ
- शौरसेनी अपभ्रंश – पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, ब्रजभाषा, खङीबोली
- पैशाची अपभ्रंश – लहंदा, पंजाबी
- ब्राचड अपभ्रंश – सिंधी
- खस अपभ्रंश – पहाड़ी, कुमाऊँनी, गढ़वाली
- महाराष्ट्री अपभ्रंश – मराठी
- अर्द्धमागधी अपभ्रंश – पूर्वी हिंदी, अवधी, बाघेली, छत्तीसगढ़ी
- मागधी अपभ्रंश – बिहारी, बंगाली, उङिया, असमिया
अपभ्रंश में लगभग वे ही ध्वनियों थी, जिनका प्रयोग प्राकृत में होता था। स्वरों का अनुनासिक रूप संस्कृत, पालि और प्राकृत जैसा ही था। कुछ बातों में समानताएँ रहते हुए भी अपभ्रंश संस्कृत और प्राकृत से बहुत दूर चली गई और प्राचीन की अपेक्षा आधुनिक भारतीय भाषाओं के काफी नजदीक चली आई। भाषा अधिक सरल हो गई। संस्कृत, पालि तथा प्राकृत संयोगात्मक भाषाएँ थी, किंतु अपभ्रंश भाषा वियोगात्मक हो गई।
संज्ञा, सर्वनाम से संयोगात्म्क भाषाओं में विभक्तियाँ साथ लगती थी, किंतु अपभ्रंश में अलग से लगने लगी। हिंदी में अपभ्रंश की ये सारी प्रवृत्तियाँ चली आई। नपुंसकलिंग प्रायः समाप्त हो गया। तद्भवों की संख्या बढ़ गई।
1100 के आसपास अपभ्रंश का काल समाप्त हो गया और इसके बाद आधुनिक भाषाओं का युग आरंभ हुआ। 14वीं शताब्दी से आधुनिक भाषाओं का स्पष्ट रूप सामने आया। कुछ समय तक अपभ्रंश की प्रवृत्तियाँ आधुनिक भाषाओं से मिली-जुली रहीं, फिर धीरे-धीरे कम होती गई।
भाषा-परिवर्तन के इस संक्रांतिकाल में ’संदेशरासक’, ’प्राकृतपैंगलम्’, ’उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण’, ’वर्णरत्नाकर’, ’कीर्तिलता’ तथा ’ज्ञानेश्वरी’ जैसे कुछ ग्रंथों की रचना हुई, जिनके अध्ययन से अपभ्रंश से प्रभावित ’पुरानी हिंदी’ के कुछ रूप देखे जा सकते है। इस काल की भाषा को कुछ लोगों ने ’अवहट्ठ’ अपभ्रंश नाम से पुकारा है।
इस काल के कवि ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति और वंशीधर ने तत्कालीन भाषा को ’अवहट्ठ’ की संज्ञा दी है। ’अवहट्ठ’ अपभ्रंश का ही विकृत रूप है। सच पूछा जाए तो संक्रांतिकाल में जिस नई भाषा की सृष्टि हो रही थी, उसे पुरानी हिंदी, पुरानी बँगला, पुरानी गुजराती आदि कहना ही उचित होगा।
उक्त बातों से स्पष्ट है कि अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति हुई। ये सभी भाषाएँ सरलता की ओर है। संस्कृत, पालि आदि की तुलना में अपभ्रंश के शब्दरूप कम हो गए। आधुनिक भाषाओं में अपभ्रंश की तुलना में शब्दरूप और भी कम हो गए।
इस प्रकार भाषा सरल होती गई। संस्कृत में आठों कारकों के तीन वचनों में 24 रूप बनते थे, प्राकृत में 12 रूप हो गए, अपभ्रंश में 6 और आधुनिक भाषाओं में दो रूप- मूल और विकृत हो गए। क्रिया के रूपों में काफी कमी हो गई। संस्कत में वचन तीन थे। अब केवल दो ही वचन रह गए। संस्कत में तीन लिंग थे। आधुनिक भाषाओं में दो ही लिंग रह गए।
1000 ई. के लगभग हिंदी अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं की तरह अपने अस्तित्व में आ चुकी थी। भाषा के रूप में हिंदी की प्रकृति रचनात्मक है। इस विषय में यह जर्मन से मिलती-जुलती है। हिंदी जर्मन की तरह अपने ही प्रत्ययों से नवीन शब्दों का निर्माण कर लेती है। यह विशेषता अंग्रेजी की नहीं है। डाॅ. उदयनारायण तिवारी हिंदी को उधार लेनेवाली भाषा न कहकर रचनात्मक भाषा कहना ठीक समझते है।
इस दृष्टि से आर्यभाषाओं में हिंदी का अपना अलग व्यक्तित्व है। हिंदी की दूसरी विशेषता यह है कि आरंभ से ही इसमें तद्भवों की अधिकता रही। ये तद्भव हिंदी के प्राण है। वस्तुतः हिंदी जनता की भाषा है। जनजीवन की गोद में इसका जन्म हुआ।
अतः इसे जनता के गले का हार बना रहना है। इसकी स्वाभाविक शोभा पर तत्समों के बोझिल अलंकार लादना इसकी प्राकृतिक सुषमा को नष्ट-भ्रष्ट करना होगा। यह बात हिंदी के प्रेमियों को ध्यान में रखनी चाहिए। हिंदी में वैदिक युग से लेकर आज तक हजारों-लाखों चलते शब्द ऐसे प्रयुक्त होते है, जिन्हें समय-समय सर्वसाधारण ने अपनी धरोहर समझा।
हिंदी की मूल उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से मानी गई है। हिंदी के अंतर्गत उसके ये रूप प्रचलित है-
पश्चिमी हिंदी – ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, खङीबोली, बाँगरू और राजस्थानी
पूर्वी हिंदी- अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, बिहारी
पहाङी प्रदेश की बोलियाँ- कुमाऊँनी, गढ़वाली
हिंदी में अनेक उपबोलियों के रहते हुए भी खड़ीबोली ही उसकी मूल भाषा बन गई जो पिछले दो सौ वर्षों से विकसित होती रही है। इसकी समृद्धि में इसकी सभी बोलियाँ योगदान करती रही है और इस प्रकार यह देश के कोने-कोने में फैलती गई।
जाॅन बीम्स ने आधुनिक आर्यभाषाओं में हिंदी को सर्वाधिक महत्व दिया है। उन्होंने अंतर्वेद को हिंदी का मुख्य क्षेत्र बताते हुए लिखा है कि यों तो हिंदी की अनेक बोलियाँ है, किंतु उसका एक सर्वमान्य व्यापक रूप भी है, जिसका विकास दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में हुआ था और जो सर्वत्र शिक्षितों के द्वारा एक रूप से बोली और समझी जाती है।
बीम्स महोदय ने हिंदी के महत्व को प्रतिपादित करते हुए यह भी लिखा है कि हिंदी संस्कृत की वास्तविक उत्तराधिकारिणी है और आधुनिक युग में इसका अन्यान्य भाषाओं में वही स्थान है, जो प्राचीनकाल में संस्कृत का था।
आज के आर्टिकल में हमने भाषा किसे कहतें है (Bhasha Kise Kahate Hain),भाषा का अर्थ ,भाषा के प्रकार के बारे में पढ़ा ,हम आशा करतें है कि आपने इस आर्टिकल से कुछ सीखा होगा।
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राष्ट्रभाषा व राजभाषा में अंतर
भाषा अपभ्रंश,अवहट्ट और पुरानी हिंदी परिचय
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धन्यवाद सर जी
बेहतरीन !
विस्तृत ज्ञान प्राप्त हुआ ।
आपके प्रयास सराहनीय हैं ।
बहुत धन्यवाद !!
‘बहुत कम लोग जानते हैं, कि वे बहुत कम जानते हैं।’हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की इन पंक्तियों का श्रोत क्या है?
कन्फर्म होते ही सूचित किया जाएगा