आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य में आधुनिक काल के अंतर्गत प्रयोगवाद की प्रमुख विशेषताएँ (Prayogvad ki Visheshta) पढेंगे।
प्रयोगवाद की प्रमुख विशेषताएँ – Prayogvad ki Visheshta
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भावुकता तथा बौद्धिकता का संश्लेषणः-
प्रयोगवादी कविता में न तो छायावादी काव्य के जैसी वायवीयता, अति भावुकता एवं कल्पना है और न ही प्रगतिवाद की तरह किसी विचारधारा के प्रति यांत्रिक मोह। नगरीय जीवन के दबावों से निर्मित इनकी चेतना में भावना बौद्धिकता में संयुक्त होकर व्यक्त होती है। इसलिए इनकी काव्यानुभूति में रोमानियत या तीव्रता नहीं बल्कि गैर-रोमानीपन तथा तटस्थता दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिए –
’’सुनो कवि, भावनाएँ नहीं है सोवा
भावनाएँ खाद है केवल,
जरा उनको दबा रक्खो,
उनको और पकने दो,
ताने और तचने दो,
कि उनका सार बनकर धरा को उर्वरा कर दे।’’
नवीन राहों का अन्वेषण:
प्रयोगवादी कवियों ने प्रदत्त सत्यों को अस्वीकार किया। ये ’परंपरा’ और ’रूढ़ि’ में बारीक अंतर करते है और परंपरा को महत्व देते हुए भी रूढ़ियों का विरोध करते है। वे कहते है- ’’परम्परा वह है जो व्यक्ति के विवेक के साथ संवाद करने की क्षमता रखती है।’’ ये कवि रूढ़ियों को तोड़ते है। यह तोड़ना उन्हें सुखदायी लगता है-
’’इस दिशा से उस दिशा तक। छूटने का सुखा टूटने का सुख।
बिना सीढ़ी के बढ़ेंगे। तीर के जैसे बढ़ेंगे
इसलिए इन सीढ़ियों के। फूटने का सुख/टूटने का सूख।’’
(भवानी प्रसाद मिश्र)
वैचारिक प्रतिबद्धता का निषेध:
कोई भी विचारधारा एक यांत्रिक चिंतन पैदा करती है जिससे केवल सतही व सैद्धांतिक तौर पर ही समस्याओं का समाधान संभव हो पाता है। विचारधारा के प्रवाह में बहने वाले, व्यक्तियों का निजी व्यक्तित्व खो जाता है। प्रयोगवादी कवि स्वयं के विचारों को अभिव्यक्त करते है। वे विचारधाराओं से अपने काम भर पर तत्व स्वीकारते है। मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद से तो अज्ञेय आदि ने फ्राॅयड के मनोविश्लेषणवाद से प्रेरणा ग्रहण की है, पर ये सभी कवि विचारधारा की बेड़ियों से स्वयं को मुक्त रखते है।
व्यक्ति को महत्व:
प्रयोगवादी कवि सामाजिकता का निषेध नहीं करते परन्तु व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता पर बल अवश्य देते है। इनका मानना है कि व्यक्ति समाज ’से’ तो नहीं किन्तु समाज ’में’ अवश्य स्वतंत्र है। इनकी स्पष्ट मान्यता है कि कविता जिस अनुभव से रची जाती है वह वैयक्तिक ही हो सकता है, सामाजिक नहीं। अज्ञेय ने ’नदी’ तथा ’द्वीप’ के प्रतीकों से समाज व व्यक्ति के संबंधों के कई प्रतीकात्मक चित्र खींचे है। उदाहरण के लिए-
’’हम नदी के द्वीप हैं/हम नहीं कहते कि हमको छोड़ कर स्रोतस्विनी बह जाय/
वह हमें आकार देती है……..। किन्तु हम हैं द्वीप/ हम धारा नहीं है/ स्थिर समर्पण है हमारा/
हम सदा के द्वीप है स्रोतस्विनी के/किन्तु हम बहते नहीं है/ क्योंकि बहना रेत होना है।’’
हम बहेगे तो रहेंगे ही नहीं।
क्षण को महत्त्व:
प्रयोगवाद अनुभूति का काव्य है और अनुभव क्षणजन्म होता है, युगजन्य नहीं। इसलिए ये कवि क्षण को महत्व देते है, प्रगतिवादियों की तरह ’युगों’ के आधार पर काव्यानुभूति का स्वरूप तय नहीं करते। इन कवियों का मानना है कि कविता स्वानुभूति से बनती है और अनुभूति का सहज संबंध क्षण से ही हो सकता है। अज्ञेय की प्रसिद्ध कविताएँ ’एक बूंद सहसा उछली’ तथा ’थिर हो गई पत्ती’ इस दृष्टिकोण को प्रबलता से प्रस्तावित करती है। एक और कविता में यह भाव इस रूप में व्यक्त हुआ है।
’’और सब समय पराया है,
बस उतना ही क्षण अपना
तुम्हारी पलकों का कँपना।’’
यौन चेतना की प्रबलता:
प्रयोगवादी काव्य में यौन चेतना के कई बिंब दिखाई पड़ते है जो संभवत: फ्राॅयड के मनोविश्लेषणवाद के वैचारिक तथा धर्मवीर भारती की ठंडा लोहा प्रभाव से निर्मित हुए है। ये कवि व्यक्ति की सहजता की व्याख्या उनकी यौनिकता की सहज अभिव्यक्ति के अर्थ में करते है। अज्ञेय का मानना है कि ’’आज के समान्य मनुष्य का मन यौन कुण्ठाओं से भरा पड़ा है।’’ इन्होंने माना कि नैतिकता का निर्धारण यौन संबंधों से नहीं हो सकता। जो दृष्टिकोण बच्चन के ’उत्तर-छायावाद’ के दौरान विकसित किया था, उसी का तार्किक विस्तार अज्ञेय, धर्मवीर भारती व नरेश मेहता के प्रयोगवादी काव्य में हुआ है। अज्ञेय की ’सावन मेघ’ तथा धर्मवीर भारती की ’ठंडा लोहा’ नामक कविताएँ इस दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। धर्मवीर भारती लिखते है-
’ न ही ये वासना तो जिंदगी की माप कैसे हो ?
किसी के रूप का सम्मान मुझ पर पाप कैसे हो ?
नसों का रेशमी उफान मुझ पर शाप कैसे हो ?
(धर्मवीर भारती)
शहरी प्रेम दृष्टि:
प्रयोगवादी कवि शहरी है। इनका प्रेम बौद्धिक है, शुद्ध भावात्मक एवं काल्पनिक नहीं। इनका प्रेम जीवन की एक जरूरत है। इनका प्रेम अशरीरी नहीं है। उसमें शरीरी पख अनिवार्यतः उपस्थित है। ये कवि प्रेम के प्रति छायावाद की तरह रोमानी नजरिया नहीं रखते बल्कि एक पारस्परिक जरूरत की पूर्ति समझते है। यही कारण है कि प्रेम के प्रति इनमें वह समर्पण-भाव या कैशोर उद्वेग नहीं दिखता जो छायावाद में था-
’’फूल को प्यार करो,
और झरे तो झर जाने दो,
जीवन का सुख लो
देह, मन, आत्मा की रसना से
पर मरे तो मर जाने दो।’’
प्रयोगवादियों ने शिल्प को अत्यधिक महत्व दिया। इन्होंने शिल्प को कविता की निर्धारक विशेषता माना। इनके अनुसार कवि की मुख्य चुनौती संवेदना की अनुभूति करना नहीं, बल्कि उसकी सटीक अभिव्यक्ति करना है। कवि तथा अ-कवि में मूल अंतर संवेदना का नहीं, अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का ही होता है।
भाषा:
प्रयोगवादी कवितयों ने भाषा को काफी महत्व दिया। अज्ञेय कहते हैं-’’भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, जानने का माध्यम भी है। जितनी हमारी भाषा होती है, हम उतना ही सोच सकते है।’’ इन कवियों ने शब्दों को खुला आमंत्रण दिया। तत्सम, तद्भव, अंग्रेजी आदि विविध स्रोतों से शब्दों का चयन दिया।
शब्द शक्तियों की दृष्टि से इन्होंने लक्षणा का अधिक प्रयोग किया, जैसे-
’’कितने कमरों में बंदर हिमालय रोते है,
मेजों से लगकर सो जाते कितने पठार।’’
(धर्मवीर भारती – ’ठण्डा लोहा’)
इन्होंने संज्ञाओं, विशेषणों तथा क्रियाओं का प्रयोग इस प्रकार किया कि वे शब्द एक-दूसरे के रूप में प्रयुक्त होने लगे। संज्ञा से क्रिया और विशेषण तथा विशेषण से संज्ञा बनाने की प्रवृत्ति विशेष रूप से दिखती है, जैसे- ’हरा’ से हरिया, ’गंध’ सं गंधाते, ’छंद’ से ’छंदित’।
इन्होंने अक्षरों के टाइप पर भी विशेष ध्यान दिया क्योंकि इस समय तक ’श्रव्य कविता’ का महत्व समाप्त होने लगा था। कविता ’पाठ्य कविता’ बन गई थी जिसके लिए ’आर्ट-ऑफ़ रीडिंग’ पर ध्यान देना जरूरी हो गया था।
अप्रस्तुत विधान:-
इनके यहाँ उपमान बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि कविता की ताजगी या बासीपन उपमानों पर ही निर्भर है। कुछ नए उपमान है-
नवम्बर की दोपहर – जाॅर्जेट के पीले पल्ले सी
मौन – धूल भरी बाँसुरी सरीखा
अज्ञेय की कविता ’कलगी बाजरे की’ नवीन उपमानों की जरूरत पर ही रची गई है। वे लिखते है-
’’अगर मैं तुमको/ललाते सांझ के नभ की अकेली तारिका/ अब नहीं कहता।
तो नहीं कारण/ कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है/ या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही/ ये उपमान मैले हो गए है। देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।’’
प्रतीक:
प्रयोगवाद में बड़े पैमाने पर प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। यथार्थ की जटिलता व सूक्ष्मता को अभिव्यक्त करने के प्रयास में वे प्रतीक प्रयुक्त हुए है। सर्वाधिक प्रतीक यौन प्रसंगों से संबंधित है। व्यक्ति व समाज के जटिल संबंधों को भी बूंद व समुद्र, द्वीप व नदी, दीप व दीपमाला आदि प्रतीक-युग्मों से व्यंजित किया गया है। ये प्रतीक प्राय: तार्किक है, इसलिए अबोधगम्यता की समस्या पैदा नहीं करते। प्रगतिवादियों का आक्षेप है कि यथार्थ भीरू होेने के कारण इन्होंने कविता में प्रतीकों को पुनः शामिल किया किन्तु प्रयोगवादियों का उत्तर है कि वे सूक्ष्म यथार्थ का प्रभावशाली अंकन करने के लिए प्रतीकों का प्रयोग करते है।
छंद:
प्रयोगवादियों ने छंदों के स्तर पर भी नए-नए प्रयोग किए। मूल रूप से यहाँ छंद के नियम का निषेध ही दिखता है किन्तु लय का विशेष ध्यान रखा गया है।
काव्यरूप:
इनके काव्य को न प्रबन्ध कहा जा सकता है, न ही मुक्तक। यह कविता प्रयोगधर्मी होने के कारण पारम्परिक काव्याशास्त्रीय ढांचे का अतिक्रमण करती है। इनकी कविताएँ छोटे आकार की प्रगीतात्मक कविताएँ है। हालांकि इनमें छायावादी प्रगीतों की सी तीव्र भावुकता नहीं दिखती।
आज के आर्टिकल में हमनें आधुनिक काल के अंतर्गत प्रयोगवाद की प्रमुख विशेषताएँ (Prayogvad ki Visheshta) पढ़ी ,आशा करतें है कि आपको यह आर्टिकल पसंद आया होगा।
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छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ