अधिगम – Adhigam Kya Hai | मनोविज्ञान में अधिगम

आज के आर्टिकल में हम मनोविज्ञान के अंतर्गत अधिगम(Adhigam Kya Hai) को विस्तार से पढेंगे।

मनोविज्ञान में अधिगम – Adhigam Kya Hai

शिक्षण और अधिगम की मुलभुत प्रक्रियाएं ,बच्चों के अधिगम की रणनीतियां ,अधिगम एक सामाजिक प्रक्रिया है।  अनुभव ,क्रिया-प्रतिक्रिया,निर्देश आदि प्राणी के व्यवहार में परिवर्तन लाते रहते है । यह अधिगम का व्यापक अर्थ है और सामान्य अर्थ-व्यवहार में परिवर्तन होना  या सीखना है।

अधिगम की परिभाषा :

गिल्फोर्ड –” व्यवहार के कारण में परिवर्तन होना अधिगम है ” ( अधिगम स्वयं व्यवहार में परिवर्तन का कारण है )

स्किनर –” व्यवहार के अर्जन में उन्नति की प्रक्रिया ही अधिगम है “.

काल्विन –“पहले से निर्मित व्यवहार में अनुभव द्वारा परिवर्तन ही अधिगम है “.

अधिगम की पूरक प्रक्रिया विभेदीकरण या विशिष्टीकरण भी मानी गई है ।जैसे -खिलोने के सभी घटकों को अलग कर फिर से जोड़ना। अधिगम सदैव लक्ष्य-निर्दिष्ट व सप्रयोजन होता है ।यदि अधिगम के लक्ष्यों को स्प्ष्ट और निश्चित कथन में दिया जाये तो अधिगमकर्ता के लिए अधिगम अर्थपूर्ण तथा सप्रयोजन होगा ।

अधिगम एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जैसे विकास। अधिगम व्यक्तिगत होता है अर्थात प्रत्येक अधिगमकर्ता अपनी गति से,रूचि,आकांक्षा ,समस्या,संवेग,शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य आदि के आधार पर सीखता है ।

अधिगम सृजनात्मक होता है अर्थात अधिगम ज्ञान व अनुभवों का सृजनात्मक संश्लेषण है ।

क्रो एव क्रो के अनुसार -“समीक्षात्मक चिंतन/क्रिटिकल थिंकिंग में जिस प्रकार निम्नलिखित मानसिक क्रियाएं होती है उसी प्रकार यह अधिगम से गहरे स्तर पर सम्बंधित है

  • दिशा
  • व्याख्या
  • चयन
  • अंतर्दृष्टि
  • सृजन
  • समालोचना

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक :

  • सीखने  की इच्छा
  • शैक्षिक प्रष्ठभूमि
  • शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य
  • परिपक्वता
  • अभिप्रेरणा
  • अधिगम कर्ता की अभिवृति
  • सीखने का समय व अवधि
  • बुद्धि

अधिगम प्रक्रिया के कारक :- 1. अध्यापक का विषय ज्ञान ,2.शिक्षक का व्यवहार 3.शिक्षक को मनोविज्ञान का ज्ञान ,4. शिक्षण विधि, 5.व्यक्तिगत भेदों का ज्ञान, 6.शिक्षक का व्यक्तित्व , 7.पाठ्य-सहगामी क्रियाएं ,8. अनुशासन की स्थिति।

  • अधिगम उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।
  • वुडवर्थ –“नवीन ज्ञान और नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया सीखने की प्रक्रिया है “.
  • शिक्षण और अधिगम में सम्बन्ध -यह समान प्रक्रियाएं है ,शिक्षण में शिक्षक,बालक व पाठ्यक्रम है . शिक्षा में शिक्षण ,अधिगम और अनुभव है
  •  शिक्षक जिस प्रकार से पाठ्यक्रम को पढाता है वह प्रक्रिया शिक्षण है . इसमें सिखाना भी निहित होना चाहिए .अतः शिक्षण-अधिगम मिलकर ही पूर्णता होती है ।

अधिगम के नियम – Adhigam Ke Niyam

पावलाव ,स्किनर आदि ने जिस प्रकार अधिगम सिद्धांतवादों का प्रतिपादन किया उसी प्रकार थार्नडाइक ने अधिगम के नियमो का प्रतिपादन किया है –

तत्परता का नियम:

जब तक कोई अधिगम कर्ता सीखने के लिए अपने मन से तत्पर नहीं है तब तक अधिगम कठिन है .

अभ्यास का नियम :

क्योंकि शिक्षा,शिक्षण और अधिगम का मूल उद्देश्य विद्यार्थिओं में व्यवहारगत परिवर्तन लाना है . अतः व्यवहार में निरंतर अभ्यास न होने पर उसे भूल जाते है अतः अभ्यास अधिगम में बहुत महत्वपूर्ण है .(प्रयत्न एवं भूल का सिध्धांत).

प्रभाव का नियम : 

जिस बात की जीवन उपयोगिता जितनी अधिक होगी बालक सीखने के लिए उतना ही अधिक प्रभावित होगा . साथ ही पूर्वज्ञान के प्रभाव में भी वह नए ज्ञान का अधिगम करता है .

अधिगम के सिद्धांत – Adhigam ke Siddhant

साहचर्यवादी- 
1.अनुकरण सिद्धांत – अनुकरण का सिद्धांत प्लेटो और अरस्तु की उपज है . इसके अनुसार अधिगम की प्रक्रिया में सुनी हुई बात की अपेक्षा देखी हुई या किसी परिस्थिति में घटित हुई बात का प्रभाव अधिक होता है . यही करना है की विद्यार्थी शिक्षक का अनुकरण (नक़ल) करते है .

2. प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत – थार्नडाइक  इस सिद्धांत के प्रणेता है . उनके अनुसार अधिगम , परिस्थिति और उसके परिणामों क बीच पारस्परिक संबंधो का परिणाम है . किसी कार्य को करने का प्रयत्न तो कोई भी कर सकता है

व्यवहारवादी सिद्धांत

1. पावलाव का सिद्धांत –

इसे पावलाव का अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धांत /क्लासिकी अनुबंध//शास्त्रीय अनुबंध सिद्धांत वाद भी कहते है : यह व्यवहारवादी सिद्धांत है । इसको मानने वालों में पावलाव,स्किनर , वाटसन आदि है

. पावलाव ने कुत्तों पर, स्किनर ने चूहों पर, और वाटसन ने खरगोश के बच्चो पर प्रयोग किये. इस सिद्धांत में – ” स्वाभाविक उद्दीपक के साथ कृत्रिम उद्दीपक को इस प्रकार अनुबंधित किया जाता है की अनुक्रिया अंत में कृत्रिम उद्दिपक से ही अनुबंधित रह जाती है । इसलिए इसे उद्दीपन-अनुक्रिया -सिद्धांत भी कहते है ।

अधिगम की दृष्टि से देखें तो बालक को लोरी सुनाना ,प्रशंसा  करना आदि उद्दीपक से धीरे -धीरे जो अनुक्रिया होती है वह अंततः आदत बन जाती है ।अर्थात उत्तेजक द्वारा उत्प्रेरण का इस सिद्धांत में बड़ा महत्त्व है .
नोट – कुत्ते की लार का प्रयोग इसी सिद्धांत में पावलाव ने किया था ।

2. स्किनर का सिद्धांत –

इसे क्रियाप्रसूत अनुबंधन का सिद्धांत भी कहते है । यह एक अधिगम प्रक्रिया है जिसके द्वारा अधिगम अनुक्रिया को अधिक संभाव्य और द्रुत बनाया जाता सकता है .

स्किनर की मान्यता है की मानव का समग्र व्यवहार  क्रियाप्रसूत  पुनर्बलन है । जब कोई बात  किसी व्यवहार के किसी रूप को पुनर्बलित करती है तो उस व्यवहार की आवृति अधिक होती है .

प्रबलन जितना अधिक शक्तिशाली होगा व्यवहार की आवृति उतनी ही अधिक होगी . प्राकृतिक प्रबलन सबसे अधिक शक्तिशाली होते है । अभिवृतियाँ , जीवन -मूल्य आदि कृत्रिम है परन्तु स्थाई प्रबलन है ।
विशेष –
सर्कस में पशु-पक्षियों के प्रशिक्षण को समझने में स्किनर का प्रयोग सफल हुआ है ।

स्किनर से पहले उद्दीपन-अनुक्रिया सिद्धांत पर वाटसन और थार्नडाइक ने भी प्रयोग किये थे । थार्नडाइक  ने उद्दीपक भोजन रखकर बिल्ली को संदूक का दरवाजा खोलना सिखा दिया।

गेस्टाल्टवादी सिद्धांत

1. सूझ का सिद्धांत .-

व्यवहारवादी वैज्ञानिकों ने पशु-पक्षियों पर प्रयोग निष्कर्ष मानव के अधिगम से जोड़े जो अधिगमकर्तायों को स्वीकार नहीं था । इन वैज्ञानिकों का मानना है की कुछ साम्यता तो हो सकती है लेकिन मानव का अधिगम पूरी तरह पशु-पक्षियों के अधिगम की भांति नहीं हो सकता।

अधिगम सदैव प्रयोजनपूर्ण होता है। और पशु पक्षियों पर किये जाने वाले कई प्रयोग पूरी तरह कृत्रिम वातावरण पर आधारित होते है । यह सिद्धांत ज्ञान के उद्देश्यपूर्ती पर बल अधिक नहीं देता है बल्कि कौशल के विकास पर अधिक बल देता है। सूझ द्वारा अधिगम सिद्धांत के लिए  कोहलर ने प्रयोग किये है।

 विशेष- गेस्टाल्टवाद एक जर्मन शब्द है जिसका अर्थ है रूप -आकार  मनोविज्ञान की यह शाखा मानती है। मनुष्य सहज परिस्थितियों में चीजों को समझते हुए उसका एक रूपाकार अपने मस्तिष्क में स्थापित कर लेता है ।

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