आज की पोस्ट में हम एक अच्छे विषय आंचलिक उपन्यास(Anchalik Upanyas) के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे ,आपको अच्छा भी लगेगा |
आंचलिक उपन्यास(Anchalik Upanyas)
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हिन्दी उपन्यासों के क्षेत्र में आंचलिक प्रवृत्ति आधुनिकतम प्रवृत्ति के रूप में मान्य है। व्यक्तिवादी साहित्य के विरोध में उपन्यासों में विशिष्ट आंचलिकता नवीन चेतना की परिचायक है। आधुनिक युग में उपन्यास वैयक्तिक कुण्ठाओं एवं मान्यताओं से पृथक् उस प्राकृतिक वातावरण की ओर उन्मुख हो रहे हैं, जहाँ भारतीय संस्कृति अपने प्राचीन रूप से सुरक्षित है, वहाँ नवीन परिवर्तनों का प्रभाव किंचित् मात्र भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है।
आंचलिकता का उदय एक विशेष आंदोलन द्वारा हुआ है। यह आंदोलन विश्व साहित्य से सम्बन्धित है। डेनियलल हाफमैन का इस सम्बन्ध में मत है कि प्रादेशिकता संसारव्यापी रोमांटिक आंदोलन की अभिव्यक्ति है। इस कारण उन सब राष्ट्रों के साहित्य में, जो इस आंदोलन से प्रभावित रहे थे, इसके दर्शन हो जाते है।
इस आंदोलन के प्रभावस्वरूप ही पाश्चात्य देशों में ऐसे उपन्यासों का विकास हुआ जिनमें प्रकृति के निश्छल एवं उन्मुक्त वातावरण का चित्रण प्राप्त होता है। पश्चिम में मेरिया एजवर्थ, सर वाल्टर स्काॅट एवं थामस हाॅर्डी ने 19 वीं शताब्दी में आंचलिक उपन्यासों का प्रवर्तन किया।
इस प्रकार उन उपन्यासों की प्रगति की दिशा में एक नया मार्ग खोला। अमरीकी उपन्यासकारों में मार्क ट्वेन एवं आनेस्ट हेमिग्वे ने भी आंचलिक उपन्यासों का लेखन करके उसके विकास में योगदान दिया। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि आंचलिक प्रवृत्ति ने उपन्यास साहित्य को रूढ़िमुक्त कर स्वच्छन्द वातावरण में विकसित होने के अवसर प्रदान किये।
आंचलिक उपन्यास का अर्थ (Anchalik upanyas kya hai)
आंचलिक शब्द अंचल में ’इक’ प्रत्यय लगने से बना है, जिसका अर्थ है अंचल सम्बन्धी। अंचल संज्ञा शब्द से विशेषण बन गया, जिसके संस्कृत में विभिन्न अर्थ हैं। साङी का छोर, पल्ला आदि अर्थों के अलावा हिन्दी में अंचल का सीधा और स्पष्ट अर्थ है- जनपद या क्षेत्र, जो अपने में एक पूर्ण भौगोलिक इकाई होता है।
उस अंचल विशेष के अपने रीति-रिवाज, अपने सुख-दुख, अपनी जीवन-प्रणाली, अपनी परम्पराएँ एवं अपनी मान्यताएँ होती हैं, जिनमें वह गतिशील रहता है। गतिशील के एवं वहाँ की जङता के विविध एवं बहुआयामी संदर्भों के समग्र अंकन में ही आंचलिक उपन्यास की शक्ति और सीमा निहित है।
अतः आंचलिक उपन्यास एक सीमित अंचल या क्षेत्र विशेष के सर्वांगीण जीवन को जिसमें वहाँ के साधारण-असाधारण विवरण, परिचित-अपरिचित भूमियों का उद्घाटन, विविध छवियों का अंकन आदि निहित होता है, वस्तुमुखी दृष्टि से रूपायित करता है तथा इसमें रचनाशीलता का नया आग्रह एवं लोकधर्मी भाषा, बोलियों-उपबोलियों की भी विविध भंगिमाएँ निहित होती है।
अतः यह कहना उचित है कि आंचलिक उपन्यासकारों ने अनुभवहीन सामान्य या विराट के पीछे न दौङकर अनुभव की सीमा में आने वाले अंचल विशेष को उपन्यास का क्षेत्र बनाया है।
आंचलिक उपन्यास का विषय-क्षेत्र
आंचलिक उपन्यासों के विषय-क्षेत्र को लेकर कुछ विवादास्पद-सी स्थिति आज भी है। एक वर्ग शहरी मुहल्ले या कस्बों के जीवन को अभिव्यक्ति देने वाले उपन्यासों को भी आंचलिक कहने का आग्रही है, जबकि दूसरा वर्ग ग्राम एवं विशिष्ट अंचलों को ही इन उपन्यासों का विषय-क्षेत्र मानता है।
पहले वर्ग में राजेन्द्र अवस्थी, कान्ति वर्मा, महेन्द्र चतुर्वेदी, सुरेश सिन्हा आदि के नाम प्रमुख हैं, जबकि दूसरे वर्ग में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, डाॅ. हरदयाल एवं डाॅ. धनंजय वर्मा, डाॅ. रामदरश मिश्र, डाॅ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय एवं डाॅ. विवेकीराय आदि के नाम उल्लेखनीय है।
वस्तुस्थिति यह है कि आंचलिकता में नगर की खींचतान व्यर्थ है। आंचलिक जीवन मुख्यतः ग्रामीण ही होता है और आंचलिक उपन्यास इस स्थानिक यथार्थ की सघनता एवं समग्रता के साथ अनुभव की प्रामाणिकता को लेकर प्रस्तुत हुए है।
आंचलिक उपन्यासों का विषय-क्षेत्र ग्राम एवं भारत के वे ही अज्ञात और अपेक्षित अंचल हैं जिनकी सुध-बुध हिन्दी उपन्यासकार की स्वन्तत्रता परवर्तीकाल में अपनी संस्कृति एवं गौरव के पुनः स्थानार्थ हुई है।
आंचलिक उपन्यासों का प्रादुर्भाव पश्चिमी सभ्यता एवं आधुनिकता की प्रतिक्रियावश विद्रोह में हुआ क्योंकि तत्कालीन उपन्यासों में अनुभूतियों की नग्न एवं अर्थहीन अभिव्यक्ति, मूल्यहीनता, संत्रास, कुंठा, अर्थशून्य-बेईमानी, नंपुसक, आतंक आदि सभी का दबदबा बढ़ने लगा था।
यह एक सत्य है कि कला का व्यापक तथा संभावनापूर्ण रूप हमें आंचलिक उपन्यासों में ही मिलता है जो विशुद्ध रूप से ग्रामीण है। इन्हीं आंचलिक उपन्यासों में ग्राम चेतना के विविध आयामों की आंतरिकता अपनी समग्रता के साथ अनुभूत्यात्मक स्वर पर अभिव्यक्ति हुई है। आंचलिक उपन्यास के विषय में अभिव्यक्त कुछ प्रमुख विचार नीचे दिये जा रहे हैं।
आंचलिक उपन्यासः प्रमुख मत
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के अनुसार, ’’आंचलिक उपन्यास वे हैं, जिनमें अविकसित अंचल विशेष के आदिवासियों अथवा आदिम जातियों का विशेष रूप से चित्रण किया गया हो।’’ डाॅ. रामदरश मिश्र के शब्दों में, ’’आंचलिक उपन्यास तो अंचल के समग्र जीवन का उपन्यास है। उसका सम्बन्ध जनपद से होता है ऐसा नहीं, वह जनपद की ही कथा है।’’
डाॅ. देवराज उपाध्याय के अनुसार, ’’ आंचलिक उपन्यास के लेखक देश के किसी विशेष भू-भाग पर ध्यान केन्द्रित करके उसके जीवन को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि पाठक उसकी अनन्य विशेषताओं, विशिष्ट व्यक्तित्व, रीति-परम्पराओं तथा जीवन-विधा के प्रति सचते व आकृष्ट हो जाता है।’’
⇒डाॅ. हरदयाल के अनुसार, ’’आंचलिक उपन्यास वह है, जिसमें अपरिचित भूमियों और अज्ञात जातियों के वैविध्यपूर्ण जीवन का चित्रण हो। जिसमें वहाँ की भाषा, लोकोक्ति, लोक-कथायें, लोक-गीत, मुहावरे और लहजा, वेशभूषा, धर्म-जीवन, समाज, संस्कृति तथा के अनुसार, ’’उपन्यासों में लोकरंगों के उभारकर किसी अंचल विशेष का प्रतिनिधित्व करने वाले उपन्यासों को आंचलिक उपन्यास कहा जायेगा।’’
डाॅ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय के शब्दों में, ’’आंचलिक उपन्यास उन उपन्यासों को कहते हैं, जिनमें किसी विशेष जनपद, अंचल-क्षेत्र के जन-जीवन का समग्र चित्रण होता है।’’
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