हिन्दी मित्रो आज हम बात करेंगे प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी उपन्यास यात्रा की ***1882 से लगभग 1916 ई. तक के युग को हिन्दी उपन्यास में प्रेमचन्द पूर्व युग के नाम से जाना जाता है।
प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी उपन्यास यात्रा
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यह हिन्दी उपन्यास के विकास का आरम्भिक काल है। प्रेमचन्द पूर्व उपन्यास लेखन की परम्परा में दो ही प्रवृत्तियाँ उभरकर आई उपदेशात्मक तथा मनोरंजनात्मक। इस दौर के उपन्यासों को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है
1. तिलस्मी अय्यारी उपन्यास लेखन की परम्परा
2. जासूसी उपन्यास लेखन की परम्परा
3. ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की परम्परा
4. सामाजिक उपन्यास लेखन की परम्परा
तिलस्मी अय्यारी उपन्यास लेखन की शुरूआत देवकीनन्दन खत्री से हुई। खत्री महोदय का सम्बन्ध जंगली लकङियों के व्यवसाय से था। बीहङ जंगलों से जुङे होने के कारण कल्पना लोक को तैयार करना उनके लिए आसान था। इच्छानुसार वेश बदलने वाले अय्यारों को केन्द्र में रखकर काल्पनिक कथा गढ़ने की यह परम्परा काफी विकसित हुई। घटना प्रधान तथा औत्सुक्य उत्पन्न करने वाले ये उपन्यास तिलस्मी अथवा एन्द्रजालिक कथाओं के सूत्र को लेकर चलते थे। खत्री महोदय का उपन्यास ’चन्द्रकान्ता’ इसी श्रेणी का उपन्यास रहा है। इसके अतिरिक्त चन्द्रकान्ता सन्तति , भूतनाथ, काजल की कोठारी, कुसुमकुमारी, नरेन्द्रमोहिनी तथा वीरेन्द्रवीर आदि इसी श्रेणी के उपन्यास हैं। जासूसी उपन्यासों की धारा बाबू गोपालराय गहमरी से शुरू हुई। गहमरी साहब अंग्रेजी के जासूसी उपन्यासकार आॅर्थर कानन डायल से प्रभावित थे। गहमरी जी के निम्नलिखित उपन्यास हैं
1. अद्भुत लाश 2. सरकटी लाश (1900)
3. जासूस की भूल (1901) 4. जासूस पर जासूस (1904)
इन उपन्यासों में भी घटना की प्रधानता थी। सामान्यतः ऐसे उपन्यासों की शुरुआत किसी हत्या अथवा लावारिस लाश की छानबीन से होती थी। इनमें सामाजिक सीख अथवा उपदेशात्मकता की कोई गुंजाइश नहीं थी।
किशोरी लाल गोस्वामी कृत जासूसी उपन्यास निम्नलिखित हैं
1. जिन्दे की लाश 2. तिलस्मी शीश महल
3. लीलावती 4. याकूत तख्ती
प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी उपन्यास यात्रा
प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी उपन्यास यात्रा
ऐतिहासिक उपन्यास का सम्बन्ध भारतीय अतीत की गौरवगाथा से रहा है। इस धारा के उपन्यासकारों पर पुनरोत्थावादी चेतना का विशेष प्रभाव था। ऐतिहासिक पात्रों को आधार बनाकर राष्ट्रीय सामाजिक जागरण का प्रयास करने वाले उपन्यासाओं में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, किशोरीलाल गोस्वामी, दीनबन्धु मित्र की विशेष भूमिका रही है। सजातमीर देव, बाणभट्ट की आत्मकथा, प्रथा, नीलदर्पण उस दौर के कुछ महत्त्वपूर्ण उपन्यास रहे है। सामाजिक उपन्यासों में नैतिकता तथा सोद्देश्यपरकता की स्पष्ट झलक देखी गई। मेहता लज्जाराम शर्मा, अयोध्या प्रसाद खत्री और बाबू जगमोहन सिंह इस धारा के प्रमुख उपन्यासकार रहे। इस धारा के प्रमुख उपन्यास निम्नलिखित हैं
1. आदर्श रमणी 2. सुशीला विधवा
3. हिन्दू दम्पति 4. स्वतन्त्र रमा परतन्त्र लक्ष्मी
5. धूर्तरसिक लाल 6. अधखिला फूल
7. ठेठ हिन्दी की ठाठ 8. श्यामास्वप्न
इस दौर के उपन्यासों में भारतीय तथा पश्चिमी संस्कृति को आमने-सामने रखकर भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम पक्षों को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। हिन्दू जाति की नैतिकता तथा नारी जाति के सतीत्व को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया गया है। भारतीय नारीत्व के मूल्यों को पचाने की कोशिश ही नहीें बल्कि पश्चिमी अन्धानुकरण के दुष्परिणामों को उभारने का प्रयास भी दिखाई पङता है। बाबू जगमोहन सिंह ने भारतीय समाज में पारम्परिक वैवाहिक मूल्यों के बिखरने की त्रासदी को उद्घाटित करना चाहा है। अन्तर्जातीय विवाहों की सामाजिक विडम्बना क्या हो सकती है ? उनके उपन्यास ’श्यामास्वप्न’ का यही मुख्य स्वर है।
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