आज की इस पोस्ट में हम नागार्जुन द्वारा रचित यह दंतुरित मुस्कान कविता की सम्पूर्ण व्याख्या विस्तार से पढे़गें तथा इस कविता के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करेगें ।
यह दंतुरित मुस्कान(नागार्जुन)
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रचना-परिचय- प्रस्तुत कविता में छोटे बच्चे की मनोहारी मुस्कान देखकर कवि के मन में जो भाव उमङते है, उन्हें कविता में अनेक बिम्बों के माध्यम से प्रकट किया है। कवि का मानस है कि सुन्दरता में ही जीवन का संदेश है। इस सुन्दरता की व्याप्ति ऐसी है कि कठोर मन को भी पिघला देती है।
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात………
छोङकर तालाब मेरी झोपङी में खिल रहे, जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झने लग पङे शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल ?
व्याख्या-
कवि नन्हें से बच्चे को सम्बोधित करता हुआ करता है कि तुम्हारे नन्हें-नन्हें निकलते दाँतों वाली मुस्कान इतनी मनमोहक है कि यह मरे हुए आदमी में भी जान डाल सकती है। कहने का आशय यह है कि यदि कोई निराश-उदास और यहाँ तक कि बेजान व्यक्ति भी तुम्हारी इस दंतुरित मुस्कान को देख ले तो वह भी एक बार प्रसन्नता से खिल उठे। उसके भी मन में इस दुनिया की ओर आकर्षण जाग उठे। कवि कहता है कि तुम्हारे इस धूल से सने हुए नन्हें तन को देखता हूँ तो ऐसा लगता है कि मानों कमल के फूल तालाब को छोङकर मेरी झोंपङी में खिल उठते हो।
कहने का आशय यह है कि तुम्हारे धूल से सने नन्हें से तन को निरख कर मेरा मन कमल के फूल के समान खिल उठता है अर्थात् प्रसन्न हो जाता है। ऐसा लगता है कि तुम जैसे प्राणवान का स्पर्श पाकर ये चट्टानें पिघल कर जल बन गई होगी। कहने का आशय यह है कि बच्चे की मधुर मुस्कान पाषाण हृदय मनुष्य को भी पिघलाकर अति कोमल बबूल वृक्ष की शेफालिका के फूलों की तरह झरने लगते है। आशय यह है कि कवि का मन बाँस और बबूल की भाँति शुष्क, कठोर और झकरीला हो गया था। बच्चे की मधुर मुस्कान को देखकर उसका मन भी पिघल कर शेफालिका के फूलों की भाँति सरस और सुंदर हो गया है।
तुम मुझे पाए नहीं पहचान ?
देखते ही रहोगे अनिमेष !
थक गए हो ?
आँख लूँ मैं फेर ?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार ?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
व्याख्या-
कवि कहता है कि तुम अर्थात् नन्हें बच्चे मेरी ओर एकटक होकर देख रहे हो, इससे ऐसा लगता है कि तुम मुझे पहचान नहीं पाये हो। कवि बच्चे से उसके पास खङा होकर पूछता है कि तुम मुझे इस तरह लगातार देखते हुए थक गए होंगे। इसलिए लो मैं तुम पर से अपनी नजर स्वयं हटा लेता हूँ। तुम मुझे पहली बार देख रहे हो, इसलिए यदि मुझे पहचान भी न पाए तो वह स्वाभाविक ही है। कवि पत्नी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हुआ कहता है कि यदि तुम्हारी माँ माध्यम न बनी होती तो आज मैं तुम्हें देख भी नहीं पाता। तुम्हारी माँ ने ही बताया कि तुम मेरी संतान हो, नही तो मैं तुम्हारे दाँतों से झलकती मुस्कान को भी नहीं जान पाता।
धन्य तुम, माँ भी तुम्हानी धन्य !
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य !
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही है मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
ओर होती जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बङी ही छविमान!
व्याख्या-
कवि नन्हें शिशु को सम्बोधित करे कहता है कि तुम अपनी मोहक छवि के कारण धन्य हो। तुम्हारी माँ भी तुम्हें जन्म देकर और तुम्हारी सुन्दर रूप-छवि निहारने के कारण धन्य है। दूसरी ओर एक मैं हूँ जो लगातार लम्बी यात्राओं रहने से तुम दोनों से पराया हो गया हूँ। इसीलिए मुझ जैसे अतिथि से तुम्हारा सम्पर्क नहीं रहा अर्थात् मैं तुम्हारे लिए अनजान ही रहा हूँ। यह तो तुम्हार माँ है जो तुम्हें अपनी उँगलियों से तुम्हें मधुपर्क चढ़ाती रही अर्थात् तुम्हें वात्सल्य भरा प्यार देती रही। अब तुम इतने बङे हो गये हो कि तुम तिरछी नजर से मुझे देखकर अपना मुँह फेर लेते हो, इस समय भी तुम वही कर रहे हो।
इसके बाद जब मेरी आँखें तुम्हारी आँखों से मिलती है अर्थात् तुम्हारा-मेरा स्नेह प्रकट होता है, तब तुम मुस्कुरा पङते हो। इस स्थिति में तुम्हारे निकलते हुए दाँतों वाली तुम्हारी मधुर मुस्कान मुझे बहुत सुन्दर लगती है और मैं तुम्हारी उस मधुर मुस्कान पर मुग्ध हो जाता हूँ।
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आपके पोस्ट यह दंतुरित मुस्कान को पढ़ कर हमें काफी मदद मिली |
जी,हमें भी ख़ुशी हुई कि आपको कुछ नया सीखने को मिला