आज के आर्टिकल में हम काव्य गुण का अर्थ(Kavya Gun kya hota hai) , काव्य गुण की परिभाषा(Kavya gun ki Paribhasha) और काव्य गुण के भेद(Kavya gun ke Bhed) को विस्तार से पढेंगे।
काव्य गुण – Kavy Gun
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परिभाषा :
जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में शूरवीरता, सच्चरित्रता, उदारता, करुणा, परोपकार आदि मानवीय गुण होते हैं, ठीक उसी प्रकार काव्य में भी प्रसाद, ओज, माधुर्य आदि गुण होते हैं। अतएव जैसे चारित्रिक गुणों के कारण मनुष्य की शोभा बढ़ती है वैसे ही काव्य में भी इन गुणों का संचार होने से उसके आत्मतत्त्व या रस में दिव्य चमक सी आ जाती है।
परिभाषा – 2 काव्य के सौंदर्य को बढ़ाने वाले या उत्कर्षक तत्त्वों को काव्य गुण कहा जाता है।
परिभाषा – 3 रस को उत्कर्ष करने वाले तत्त्वों को काव्य गुण कहते है।
’’काव्याशोभायाः कर्तारी धर्माः गुणाः।”
स्पष्टीकरण – शब्द और अर्थ के शोभाकारक धर्म(तत्त्व) को गुण कहा जाता है। वामन के अनुसार ’गुण’ काव्य के नित्य धर्म है। इनकी अनुपस्थिति में काव्य का अस्तित्व असंभव है।
अर्थात काव्य की शोभा करने वाले धर्म गुण कहलाते हैं।
दंडी के अनुसार,
दोषाः विपत्तये तत्र गुणाः सम्पत्तये यथा ( काव्यादर्श)
स्पष्टीकरण – दोष यदि काव्य की विपत्ति के लिए होता है, तो गुण काव्य की सम्पत्ति के लिए होता है।
विशेष :
- काव्य गुण और रीति परस्पर आश्रित है।
- काव्य गुणों पर व्यापक और विस्तृत चर्चा आचार्य वामन ने की।
आनंदवर्धन के अनुसार,
जो काव्य के अंगीभूत अर्थात् रस का अवलंबन करते हैं, वे काव्य गुण कहलाते हैं।
मम्मट के अनुसार,
“ये रस्यांगिनो धर्मः शौर्यादया इवात्मन:”
उत्कर्ष हेतस्तवे स्यु: अचल स्थितियों गुणाः।”
स्पष्टीकरण – गुण रस का अंग रूप धर्म हैं, जो उसे इसी प्रकार उत्कर्ष प्रदान करते हैं, जिस प्रकार आत्मा को शौर्य आदि गुण उत्कर्ष प्रदान करते हैं ।
डॉ नगेन्द्र के अनुसार –
काव्य गुणों के भेदों की संख्या के बारे में मत-
अग्निपुराण | 18 |
भरतमुनि | 10 |
भामह | 10 |
दंडी | 10 |
वामन | 20 |
भोजराज | 48(उपभेदों सहित – 72) |
आनंदवर्धन, मम्मट,विश्वनाथ और जगन्नाथ | 3 |
देव | 12 |
सर्वप्रथम अग्निपुराण में काव्य गुणों की संख्या 18 मानी गयी है।
गुणों के भेद-प्रभेदों का निरुपण सर्वप्रथम आचार्य भरतमुनि (ई.पू. प्रथम शताब्दी) द्वारा स्वरचित ’नाट्यशास्त्र’ ग्रंथ में किया गया था। इन्होंने काव्य में निम्न दस गुण स्वीकार किये थे –
’’श्लेषः प्रसादः समता समधि-
माधुर्यमोज पद सोकुमार्यम्।
अर्थस्य च व्यक्तिरुदारता च,
कान्तिश्च काव्यस्य गुणाः दशैते।’’
अर्थात् काव्य में निम्न दस गुण होते हैं –
- श्लेष
- प्रसाद
- समता
- समाधि
- माधुर्य
- ओज
- पदसौकुमार्य
- अर्थव्यक्ति
- उदारता
- कान्ति
➡️भरतमुनि के पश्चात् आचार्य भामह ने भी काव्य के दस गुणों को स्वीकार किया।
“अतएव विपर्ययस्तु गुणा: काव्येषु कीर्तिता”
स्पष्टीकरण – दोषों का विपर्यय (अभाव) गुण तथा ये काव्य की कीर्ति को बढ़ाने वाले होते हैं।
- समता
- समाधी
- श्लेष
- सुकुमारता
- अर्थव्यक्ति
- कांति
- माधुर्य
- प्रसाद
➡️ भामह के पश्चात् आचार्य दण्डी ने भी भरतमुनि के अनुसार ही काव्य के निम्न दस गुण स्वीकार किये –
’’श्लेषः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता।
अर्थव्यक्तिरुदारत्वमोजः कान्ति समाधयः।।
इति वैदर्भमार्गस्य प्राणाः दशगुणाः स्मृताः।
एषां विपर्ययः प्रायो दृश्यते गौडवत्र्मनि।।’’
अर्थात् काव्य में श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कान्ति और समाधि ये दस गुण होते हैं। ये दस गुण वैदभीं मार्ग के प्राण माने जाते हैं तथा इनकी विपरीतता गौडी मार्ग मे देखी जाती है।
दण्डी के पश्चात् आचार्य वामन ने मुख्यतः दो प्रकार के गुण स्वीकार किये –
- शब्द गुण
- अर्थ गुण
पुनः इन दोनों गुणों के पूर्वोक्त दस-दस भेद (श्लेष, प्रसाद, समता आदि) स्वीकार कर कुल 20 गुण स्वीकार किये।
वामन के पश्चात्वर्ती आचार्यों में आचार्य भोजराज (रचना – सरस्वती कंठाभरण) ने सबसे अधिक 48 गुण (24 शब्दगुण 24 अर्थगुण) और भेदों व उपभेदों सहित कुल 72 माने है। इन्होंने शब्दगुणों को ’बाह्य गुण’ तथा अर्थाश्रित गुणों को ’आभ्यंतर गुण’ कहा था।
➡️आचार्य मम्मट ने स्वरचित ’काव्यप्रकाश’ रचना में निम्न तीन गुण स्वीकार कियेः-
- प्रसाद
- ओज
- माधुर्य
आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में काव्य गुणों की संख्या सबसे पहले चित्त की अवस्थाओं के आधार पर काव्य गुणों की संख्या 3 मानी।
- द्रुति (माधुर्य)
- दीप्ति (ओज)
- व्यापकत्व (प्रसाद)
आचार्य कुंतक ने काव्य गुणों की संख्या 6 मानी।
ओचित्य, सौभाग्य, अभिजात्य, लावण्य, माधुर्य, प्रसाद
➡️ आचार्य विश्वनाथ ने भी स्वरचित ’साहित्यदर्पण’ रचना में इन तीन गुणों (प्रसाद, ओज व माधुर्य) को ही स्वीकार किया तथा इनके बाद पंडितराज जगन्नाथ ने भी ’’रसगंगाधर’’ रचना में उक्त तीन गुणों को स्वीकार किया।
➡️ देव ने भरतमुनि के दस काव्य गुणों स्वीकार करते हुए अनुप्रास व यमक को जोड़ते हुए काव्य गुणों की संख्या 12 मानी है।
सर्वमान्य मत :
भारतीय काव्यशास्त्र में आनंदवर्धन व मम्मट के तीनों काव्य गुणों को ही सर्वमान्य माना गया।
काव्य गुण भेद:
- प्रसाद
- ओज
- माधुर्य
प्रसाद गुण – Prasad Gun
प्रसाद का शाब्दिक अर्थ – स्वच्छता ,स्पष्टता और निर्मलता।
➡️ ऐसी काव्य रचना जिसको पढ़ते ही अर्थ ग्रहण हो जाता है, वह प्रसाद गुण से युक्त मानी जाती है। अर्थात् जब बिना किसी विशेष प्रयास के काव्य का अर्थ स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है, उसे प्रसाद गुण युक्त काव्य कहते है।
परिभाषा – 2 जिस गुण के कारण काव्य का अर्थ तुरंत समझ में आ जाए और उसे पढ़ते ही मन खुशी से झूम उठे, प्रसाद गुण कहलाता है। प्रसाद गुण स्वच्छ जल की भांति होता है,जिसमें सब कुछ आर-पार दिखाई देता है।
परिभाषा – 3 ऐसी काव्य रचना जिसको पढ़ने ही मन मे भाव बिना किसी प्रयास के प्रकट हो जाये, प्रसाद गुण कहलाता हैं।
➡️ ‘स्वच्छता’ एवं ‘स्पष्टता’ प्रसाद गुण की प्रमुख विशेषताएँ मानी जाती है।
➡️ प्रसाद गुण में पांचाली रीति होती है।
➡️ मम्मट के अनुसार ,” प्रसाद गुण ऐसे धुले हुए वस्त्र के समान होता है, जिसमें जल सहजता से व्याप्त हो जाता है अथवा वह ऐसी सूखी लकड़ी के समान है जो तत्काल ही आग ग्रहण कर लेती है अथवा उसको फैला देती हैं।”
➡️ प्रसाद गुण चित्त को व्याप्त और प्रसन्न करने वाला होता है। यह समस्त रचनाओं और रसों में रहता है। इसमें आये शब्द सुनते ही अर्थ के द्योतक होते है।
➡️ मुख्यतया शांत रस और भक्ति रस की प्रधानता होती है।
➡️ यमक अलंकार के सभी गुण प्रसाद गुण में आते है।
➡️ प्रसाद गुण का लक्षण – शैथिल्य
➡️ आचार्य भिखारीदास ने प्रसाद गुण का लक्षण इस प्रकार प्रकट किया हैः-
‘‘मन रोचक अक्षर परै, सोहे सिथिल शरीर।
गुण प्रसाद जल सूक्ति ज्यों, प्रगट अरथ गंभीर।।’’
प्रसाद गुण उदाहरण
हे प्रभो! आनंददाता ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वी व्रतधारी बनें।
जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।।
है बिखेर देती वसुुंधरा, मोती सबके सोने पर।
रवि बटोर लेता है, उनको सदा सवेरा होने पर।
नर हो न निराश करो मन को।
काम करो, कुछ काम करो।
जग में रहकर कुछ नाम करो।।
जिसकी रज में लोट लोट कर बड़े हुए हैं।
घुटनों के बल सरक सरक कर खड़े हुए हैं।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण ‘धूल भरे हीरे’ कहलाये।
हम खेले कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि तुुझको निरख मग्न क्यों न हो मोद में।।
चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही हैं जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है,
अवनि और अम्बर तल में।।
वह आता
छो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक
चल रहा लकुटिया टेक
मुट्ठीभर दाने को, भूख मिटाने को
मुँह फटी-पुरानी झोली को फैलाता।। ( भिक्षुक कविता, निराला )
ओज गुण – Oj Gun
- ओज का अर्थ – तेजस्विता/चमक
- ऐसी काव्य रचना जिसको पढ़ने से चित्त में जोश,आवेग , वीरता, उल्लास आदि की भावना उत्पन्न हो जाती है, वह ओज गुणयुक्त काव्य रचना मानी जाती है।
- इसमें संयुक्ताक्षरों, ट वर्गीय वर्णों, बड़े सामासिक पदों एवं रेफयुक्त वर्णों(क्र,र्क ) का प्रयोग अधिक किया जाता है।
- वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स आदि रसों की रचना में ‘ओज’ गुण ही अधिक पाया जाता है।
आचार्य भिखारीदास ने इसका लक्षण इस प्रकार प्रकट किया हैः-
‘‘उद्धत अच्छर जहँ भरै, स, क, ट, युत मिलिआइ।
ताहि ओज गुण कहत हैं, जे प्रवीन कविराइ।।’’
ओज गुण के उदाहरण – Oj Gun ke Udaharan
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि, अहि लोल सागर खर भरे।
मन हरख सम गन्धर्व सुरमुनि, नाग किन्नर दुख टरे।
कटकटहिं मर्कट विकट भट बहु, कोटी कोटिन धावहिं।
जय राम प्रबल प्रताप कौसल, नाथ गुन गन गावहिं।।
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से,
प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला,
स्वतंत्रता पुकारती॥ (स्कंदगुप्त नाटक – जयशंकर प्रसाद)
जय चमुण्ड जय चण्डमुण्डभण्डासुरखण्डिनि।
जय सुरक्त जै रक्तबीज बिड्डाल बिहण्डिनि।
जै निशुम्भ शुंभद्दलनि भनिभूषन जै जै भननि।
सरजा समत्थ सिवराज कहँ देहि विजय जै जगजननि।।
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में, प्रस्तुत सदा जानो मुझे।
हे सारथे! हैं द्रोण क्या? आवें स्वयं देवेन्द्र भी।
वेे भी न जीतेंगे समर में, आज क्या मुझसे कभी।
देशभक्त वीरों मरने से नेक नहीं डरना होगा।
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा।।
भये क्रुद्ध जुद्ध विरुद्ध रघुपति, त्रोय सायक कसमसे।
कोदण्ड धुनि अति चण्ड सुनि, मनुजाद सब मारुत ग्रसे।।
दिल्लिय दहन दबाय करि सिप सरजा निरसंक।
लूटि लियो सूरति सहर बंकक्करि अति डंक।।
क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहीत विनित सरल है। (दिनकर)
बरसे आग जलद जाये, भस्मसात् भूधर हो जाये
पाप पुण्य सद्सद् भावों की, धूल उठे दायें-बायें ।
माधुर्य गुण – Madhurya Gun
परिभाषा : ऐसी काव्य रचना जिसको पढ़कर मन आनन्द एवं उल्लास से भर जाए, माधुर्य गुण कहलाता है।
- हृदय को आनन्द उल्लास से द्रवित करने वाली कोमल कांत पदावली से युक्त रचना माधुर्य गुण सम्पन्न होती है। अर्थात् ऐसी काव्य रचना जिसको पढ़कर चित्त में श्रृंगार, करुणा या शांति के भाव उत्पन्न होते हैं, वह माधुर्य गुणयुक्त रचना मानी जाती है।
- इस काव्य गुण में संयुक्ताक्षरों, ट वर्गीय वर्णों एवं सामासिक पदों का पूर्ण अभाव पाया जाता है अथवा अत्यल्प प्रयोग किया जाता है।
- रेफ युक्त वर्णों का अभाव।
- द्वित्व वर्णों का अभाव।
- कोमलकांत वर्णों का प्रयोग (श,स ,य,र ,क)
- श्रृंगार, हास्य, करुण, शांत आदि रसों से युक्त रचनाओं में माधुर्य गुण पाया जाता है।
मम्मट के अनुसार ,
“आह्लादकत्वं माधुर्य श्रृंगारे द्रुतिकारणम्
करूणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितम्”
स्पष्टीकरण – चित् की द्रुति, आह्लाद विशेष का नाम माधुर्य गुण है। इनके द्वारा श्रृंगार, शांत व करुण रसों में विशेष आनंद की अनुभूति होती है।
- आचार्य भिखारीदास ने इसका लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत किया हैः-
‘‘अनुस्वार औ वर्गयुत, सबै वरन अटवर्ग।
अच्छर जामैं मृदु परै, सौ माधुर्य निसर्ग।।’’
चिंतामणि के अनुसार,
जो संयोग श्रृंगार में सुखद दबावै चित्त।
सो माधुर्य बखानिये यहई तत्त्व कवित्त ॥
काव्यशास्त्री आचार्यों ने माधुर्य का अर्थ अपने मतानुसार क्या माना?
भरतमुनि | अर्थ श्रुति मधुरता |
दंडी | रसमयता |
मम्मट | आह्लादकता |
वामन | उक्ति वैचित्र्य |
माधुर्य गुण के उदाहरण – Madhurya Gun ke Udaharan
‘‘अमिय हलाहल मद भरे, श्वेत श्याम रतनार।
जियत मिरत झुकि-झुकि परत, जे चितवत इक बार।।’’
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि, कहत लखन सम राम हृदय गुनि।
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्हि, मनसा विश्व विजय कर लीन्हि।।
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनि हसै, देन कहि नटि जाय।।
कहत नटत रीझत खीझत, मिलत खिलत लजियात।
भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सौं बात।।
मेरे हृदय के हर्ष हा! अभिमन्यु अब तू है कहाँ।
दृग खोलकर बेटा तनिक तो देख हम सबको यहाँ।
मामा खड़े हैं पास तेरे तू यहीं पर है पड़ा।
निज गुरुजनों के मान का तो ध्यान था तुझको बड़ा।।
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं |
तब ये लता लगती अति सीतल,
अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं |
नील परिधान बीच सुकुमार ।
खुल रहा मृदुल अध खुला अंग
खिला हो ज्यों बिजली का फूल
मेघ – बन-बीच गुलाबी रंग ।” (मनु व श्रद्धा के बीच संवाद,कामयानी – श्रद्धा सर्ग )
सखी! श्याम की मुरली मन भावती,
मेरे मन को नित्य नव भाँति नचावती
करती मन में अजीब सी हलचल
श्याम मनभावन के साथ रहूँ हर पल
माटी कहे कुम्हार से,
तू क्या रौंदे मोहे
एक दिन ऐसा आएगा,
मैं रौंदूंगी तोहे
मधुमय वसन्त जीवन के, वह अंतरिक्ष की लहरों में
कब आये थे तुम चुपके से, रजनी के पिछले पहरों में ।
मंद मंद चढि चल्यो चैत निसि चंद चारू ।
मंद मंद चाँदनी पसरत लतान तें ।। (अनुस्वारों की अधिकता )
फटा हुआ नील वसन क्या, औ यौवन की मतवाली।
देख अकिंचन जगत लूटता, छवि तेरी भोली भाली। (मतवाली, भोली -भाली जैसे शब्दों में कोमलता)
निष्कर्ष :
आज के आर्टिकल में हमनें काव्य गुण का अर्थ(Kavya Gun kya hota hai) , काव्य गुण की परिभाषा(Kavya gun ki Paribhasha) और काव्य गुण के भेद(Kavya gun ke Bhed) को विस्तार से पढ़ा। हम उम्मीद करतें है कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपके लिए ज्ञानवर्धक होगी …धन्यवाद
काव्य गुण – MCQ
1. काव्य गुण कितने प्रकार का होता है?
उत्तर – काव्य गुण के तीन प्रकार होते है
1. माधुर्य गुण
2. प्रसाद गुण
3. ओज गुण
2. काव्य गुण किसे कहते हैं ?
उत्तर – काव्य की पदावली में स्थित होकर काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्म को काव्य गुण कहते है।
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- काव्य गुण कितने प्रकार के होते हैं उदाहरण सहित लिखिए
बहुत अच्छा
बहुत अच्छा लग रहा है ।कवियों के लिए यह आवश्यक है।
जी बिल्कुल ,बहुत आवश्यक है
धन्यवाद सर जी
देश भक्त वीरों मरने से नेक नहीं डरना होगा।
क्या इन पंक्तियों में प्रसाद गुण के लक्षण नहीं है!
और
क्या एक ही पंक्ति में दो गुण हो सकतें हैं
Thank you sir