छाया मत छूना || गिरिजा कुमार माथुर || सम्पूर्ण व्याख्या

आज की इस पोस्ट में हम गिरिजा कुमार माथुर द्वारा रचित छाया मत छूना (Chhaya Mat Chhuna) की सम्पूर्ण व्याख्या विस्तार से पढ़ेंगे तथा इस कविता के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करेगें ।

छाया मत छूना

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रचना-परिचय- ’छाया मत छूना’ कविता में बताया गया है कि जीवन में सुख-दुःख दोनों की उपस्थिति है। विगत सुख को याद कर वर्तमान दुःख को गहरा नहीं करना चाहिए। इससे दुःख बढ़ता है। विगत सुख से चिपक कर वर्तमान से पलायन करने की अपेक्षा कठिन यथार्थ से सामना करना ही जीवन की प्राथमिकता होनी चाहिए। अतः यह कविता अतीत की स्मृतियों को भूलकर वर्तमान का सामना कर भविष्य का वरण करने का संदेश देती है।

छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छबियाँ की चित्र-गंध फैली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी,
भूली-सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण-
छाया मत छूना
मन होगा दुख दूना।

व्याख्या:

कवि अपने मन को सम्बोधित कर कहता है कि हे मन! तू कल्पनाओं के संसार में विचरण मत करना। पिछली स्मृतियाँ तुझे भ्रमित करेंगी और उनको याद कर तेरा दुःख दुगुना हो जाएगा। माना कि तुम्हारे जीवन में अनेक प्रकार की रंग-बिरंगी मनभावन मधुर यादें समायाी हुई है। उन्हें याद करके तुम्हारे मन में न केवल मनभावन चित्र उभरते है, बल्कि उनके साथ जुङी मन को अच्छी लगने वाली गंध भी तुम्हारे तन-मन को मस्त कर देती है। तुम अपनी प्रिया की यादों में जीकर उसके तन की गंध महसूस कर लेते हो। इस प्रकार पुरानी यादों में डूबकर पूरी रात बीत जाती है अर्थात् समय गुजर जाता है।

कवि को अपनी प्रिया के बालों में लगे पुष्प-गुच्छ याद आते है जो आज भी चाँदनी बनकर उसके मन को भ्रमित किए हुए है। कवि को अपनी प्रिया की भूली हुई छुअन का अहसास होता है, जो मानो जीवित होकर सामने खङा हो जाता है; परन्तु फिर भी ये यादें छायाएँ ही है। इनमें जीने से मन को दुगुना दुःख मिलता है। इसलिए इनसे दूर रहना ही उचित है।

यश है या न वैभव, मान है न सरमाया;
जितना ही दौङा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।
जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन-
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।

व्याख्या :

कवि यथार्थ का बोध कराता हुआ कहता है कि इस संसार में न तो यश का कोई मूल्य है, न धन-वैभव का, न मान-सम्मान से कोई सन्तुष्टि मिलती है और न पूँजी से। मनुष्य इस संसार में रहते हुए इनके पीछे जितना दौङता है, उतना ही वह भटकता चला जाता है, क्योंकि भौतिक वस्तुएँ व्यक्ति को भरमाती है। प्रभुता या बङप्पन आने की कामना भी एक विडम्बना है। यह केवल मृगतृष्णा या छलावा भर ही है। सत्य तो यह है कि हर चाँदनी रात के पीछे एक गहरी रात छिपी हुई है। आशय यह है कि हर सुख के पीछे एक दुःख छिपा रहता है। इसलिए छाया या कल्पनाओं में सुख खोजने की बजाय जीवन के यथार्थ को झेलने को तैयार रहना चाहिए। इसलिए भूल से भी छायाओं को नहीं छूना चाहिए,

उससे तो दुगुना दुःख होगा।
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं,
देह सुखी हो पर मन के दुख का अन्त नहीं।
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत आने पर ?
जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना
तन, होगा दुख दूना।

व्याख्या:

कवि कहता है कि तुम्हारा साहस मन की दुविधाओं के कारण नष्ट हो गया है जिसके कारण तुम्हें आगे बढ़ने के लिए कोई रास्ता नहीं दिखाई पङता। इसी कारण चाहे तुम शरीर से सुखी हो ; परन्तु तुम्हारे शरीर में असीम दुःख समाए हुई है अर्थात् सुख-सुविधाओं के होते हुए भी तुम मन से खुश नहीं हो। तुम्हें इस बात का दुःख है कि शरद ऋतु आने पर आकाश में चाँद नहीं खिला। आशय यह है कि प्रसन्नता के सुअवसर पर भी तुम अपने मन से खुश न हो सके और यदि रसमय बसंत के चले जाने के बाद फूल खिलें तो उन खिलने वाले फूलों से क्या फायदा ? जिस काल में मनुष्य को प्रिय का सामीप्य मिलना चाहिए था, उस काल में तो मला नहीं।

बाद में उसका मिलना सुख की बजाय दुःख ही पहुँचाता है। अतः व्यक्ति को जो नहीं मिला, उसे भूलकर वर्तमान में ही जीना चाहिए और भविष्य की सुध लेनी चाहिए अर्थात् तुम्हें असफलताओं को भूलकर वर्तमान और भविष्य को संभालने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि कल्पनाओं में विचरण करने से कुछ नहीं मिलता बल्कि मन का दुःख ही दुगुना हो जाता है।

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