आज के आर्टिकल में हम पाश्चात्य काव्यशास्त्र के अंतर्गत संरचनावाद (Sanrachanavad) के बारे में चर्चा करेंगे ,हम आशा करते है कि आप इस विषयवस्तु को अच्छे से समझ पाएंगे ।
🔷 संरचनावाद पाश्चात्य समीक्षा जगत से हिंदी में आया। इसका विकास फ्रांस में 1960 के दशक में हुआ।
🔷 यह जीव विज्ञान, अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र, साहित्य आदि को समेटे हुए एक व्यापक आलोचक की पद्धति है। संरचनावाद वस्तु के घटक, उसके अवयव तथा उसके पारस्परिक संबंधों का विवेचन करता है।
⇒ स्विस भाषाविद् फर्दिनान्द द सस्यूर (Ferdinand de Saussure) को संरचनावाद को स्थापित करने का श्रेय जाता है।
🔷 सस्यूर ने भाषा के दो रूप माने-
- लांग (Langue) – अंतवैयक्तिक भाषा।
प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था जो पूरे समाज में वैचारिक संप्रेषण संभव बनती है।
- परोल (Parole)-व्यक्ति विशेष की भाषा।
सीमित क्षेत्र की भाषा। व्यक्ति भेद से इसके स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है।
🔷 संरचनावाद का इस्तेमाल सांस्कृतिक संदर्भों, जैसे-मिथकों, साहित्यिक कृतियों को समझने के लिए लेवी स्ट्राॅस ने किया। उन्होंने चिह्नों को प्रत्येक संस्कृति का अहम हिस्सा माना है।
⇒ इस पर पर विचार करने वाले अन्य महत्वपूर्ण चिंतकों में फूको, अल्थूसर, लार्कों आदि है।
🔷 इसको समझने के लिए बार्थ ने ’द फैशन सिस्टम’ नाम की पुस्तक लिखी। उन्होंने अर्थ को केवल पाठ में नहीं बल्कि पाठ की संरचना में निहित माना है।
साहित्य-निर्माण में पाँच नियम :
- व्याख्या
- चिह्न समीक्षा
- प्रतीकात्मकता
- क्रिया-व्यापार संहिता
- सांस्कृतिकता।
🔷 उपर्युक्त पाँचों नियम ऐसा जाल बनाते है जिससे सारा पाठ गुजरता है। इस प्रक्रिया की पहचान ही संरचनावाद है।
⇒ इसके के लिए रचना केवल शाब्दिक या भाषिक संरचना है इसलिए रचनाकार के वैचारिक-भावात्मक अभिप्राय का वर्णन संरचनावाद के अंतर्गत नहीं आता है। इस रूप में संरचनावाद का झुकाव रूपवाद की ओर देखा जाता है।
🔷 यह लेखकीय अथवा आलोचकीय अनुभव को गौण मानता है। साथ ही पाठ निर्माण, पाठ संरचना में छिपे तथ्यों को प्रकट करने का प्रयास करता है।
⇒ अल्थूसर, संरचनावाद को मार्क्सवादी परंपरा में जगह देते है।
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आपने बेहद व्यवस्थित, सूचिन्तित शैली में लिखा है।धन्यवाद बंधु।