आज के आर्टिकल में हम ’खङी बोली’ (Khadi Boli Ka Vikas) के बारे में विस्तार से जानेंगे और परीक्षोपयोगी महत्त्वपूर्ण तथ्य भी पढ़ेंगे।
खङी बोली (Khadi Boli Ka Vikas)
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खङी बोली की गणना पश्चिमी हिन्दी की महत्त्वपूर्ण बोली के रूप में की जाती है। इस बोली का विशेष महत्त्व इस कारण से भी है, क्योंकि मानक हिन्दी का मूल आधार खङी बोली ही है। खङी बोली के अन्य नाम है- कौरवी और नागरी।
डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा ने इसके नामकरण पर विचार करते हुए लिखा है कि ब्रजभाषा की अपेक्षा यह बोली वास्तव में खङी लगती है कदाचित् इसी कारण इसका नाम खङी बोली पङ गया होगा। खङी बोली से उनका तात्पर्य इस बोली में पाई जाने वाली बलाघात एवं दीर्घता की प्रवृत्ति से है।
खङी बोली का क्षेत्र एवं सीमा विस्तार –
खङी बोली का क्षेत्र बुन्देलखंड और पश्चिमोत्तर उत्तर प्रदेश का क्षेत्र है। इसके अन्तर्गत रामपुरर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, देहरादून, अम्बाला तथा जगाधरी जिले आते हैं। खङी बोली की सीमावर्ती बोलियाँ हैं-ब्रजभाषा, पहाङी, बांगरू और पंजाबी।
खङी बोली का साहित्यिक महत्त्व –
खङी बोली का प्रयोग साहित्य में बहुत कम हुआ है, किन्तु लोक साहित्य इस बोली में पर्याप्त मात्रा में रचा गया है। अमीर खुसरो की जिन रचनाओं की भाषा खङी बोली कही जाती है, वास्तव में वह दिल्ली और मेरठ की बोली न होकर मानक हिन्दी के अधिक निकट है। यदि उर्दू को भी खङी बोली की एक शैली माना जाए तो हिन्दी और उर्दू दोनों को खङी बोलियों की बेटी कहा जा सकता है, क्योंकि दोनों का विकास खङी बोली से ही हुआ। इस दृष्टि से विचार करने पर उर्दू कवियों के साहित्य को खङी बोली का साहित्य कह सकते है।
खङी बोली का विकास (Khadi Boli Ka Vikas)
विद्वानों ने इसके विकास के भिन्न-भिन्न कारणों का उल्लेख किया है। ग्रियर्सन के अनुसार अंग्रेजों की प्रेरणा से आधुनिक हिन्दी का जन्म हुआ। उनका तर्क है कि व्यापार के क्षेत्र में जो मिली-जुली भाषा प्रयुक्त होती थी, उसके विकास की स्थिति हिन्दी है। भारतीय इतिहास का आकलन करने पर यह स्पष्ट होता है कि खङी बोली के परिष्कृत शब्द, जिनकी समानता वर्तमान हिन्दी शब्दों से की जा सकती है, मुगल शासन के प्रारम्भ से ही प्रयुक्त होते थे। बाबर ने ’शिवालिक पर्वत’ की व्याख्या सवा लाख पहाङियों वाला पर्वत कहकर की थी। उसने यह भी स्वीकार किया है कि हिन्दी के लोग रत्ती, माशा, तोला, सेर जैसी बंधी तोल के बांट काम में लाते थे।
तुजुक-ए-जहांगीरी में जिन शब्दों का उल्लेख है, वे इस प्रकार हैं – जो माल कच्चा न हो उसे पक्का कहते हैं। ’भंवर जाल’, ’बिना दुम के काले बन्दर को वन मानुस’ कहते हैं। यहां के लोग तलवार को ’खांडा’ और कृपाण को ’कटार’ कहते हैं। यहाँ एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है वह भारत में प्रचलित भाषाओं के भेद को जानता था, क्योंकि उसने हिन्दी भाषा के साथ कश्मीरी की चर्चा अलग से की है।
खङी बोली का साहित्यिक विकास –
आचार्य शुक्ल यह स्वीकार करते हैं कि खङी बोली में फुटकर रचनाएँ मुगलकाल में लिखी जाने लगी थीं, सन्तों ने इसे अपनी ’वाणी’ में भी स्थान दे दिया था। साथ ही रामप्रसाद ’निरंजनी’ (1798) का ’भाषा योग वासिष्ठ’ साफ-सुथरी खङी बोली में लिखा गया। इसके बाद 1818 में पं. दौलतराम ने रविषेणाचार्य कृत जैन पद्मपुराण’ का भावानुवाद किया।
अंग्रेजो के शासन में जब फोर्ट विलियम काॅलेज की ओर से उर्दू और हिन्दी गद्य की पुस्तकें लिखाने की व्यवस्था हुई, उसके पहले ही हिन्दी खङी बोली में गद्य की पुस्तकें लिखाने की व्यवस्था हुई, उसके पहले ही हिन्दी खङी बोली में गद्य की कई पुस्तकें लिखी जा चुकी थीं। आचार्य शुक्ल के अनुसार ’योगवसिष्ठ’, पद्मपुराण’ के अतिरिक्त-मुंशी सदासुखलाल की ज्ञानोपदेश वाली पुस्तक सुखसागर और इंशा अल्लाखां की ’रानी केतकी की कहानी’, फोर्ट विलियम काॅलेज के आश्रय में लल्लूलाल जी ने ’प्रेमसागर’ और सदल मिश्र ने ’नासिकेतोपाख्यान’ लिखा।
खङी बोली का साहित्यिक विकास –
खङी बोली गद्य की इस प्रतिष्ठा का लाभ अंग्रेजों ने उठाया। पादरी विलियम केर तथा अन्य के प्रयास से इंजील का अनुवाद हिन्दी में हुआ। उसी क्रम में ’नए धर्म नियम’ (1866) प्रकाशित हुई। बाद में 1875 में तो कई ईसाई धर्म पुस्तकों का अनुवाद हिन्दी में हुआ। इधर अंग्रेजों ने जो स्कूल, आदि खोले उनमें भी उर्दू के साथ हिन्दी पढ़ाई गई और इसी क्रम में विविध विषयों, भजनों आदि में भी इसका प्रयोग बढ़ा। छापेखाने खुलते ही समाचार-पत्र भी निकालते शुरू हुए। आचार्य शुक्ल के अनुसार 1826 ई . में प्रकाशित ’उदन्त मार्तण्ड’ हिन्दी का पहला समाचार-पत्र है।
इसी क्रम में हिन्दी का पद्य विकसित होता गया और निरन्तर समृद्ध होता गया। भारतेन्दु ने तो हिन्दी गद्य का परिष्कार किया ही है। उसके बाद भी अनेक निबन्ध लेखकों की कृतियां हम पढ़ते हैं। धीरे-धीरे नाटकों का अनुवाद और फिर स्वराज नाट्य रचना भी सामने आई। उदाहरण के लिए बाबू राधाकृष्ण दास का ’महाराणा प्रताप’, देवी प्रसाद जी पूर्ण का ’चन्द्रकला भानुकुमार’ आदि हैं। इस काल में उपन्यास और कहानी का भी विकास हुआ और हिन्दी गद्य आलोचना के क्षेत्र में भी अपना स्थान बनाता चला गया।
बाद में अयोध्या सिंह उपाध्याय का प्रियप्रवास महाकाव्य सामने आया जो खङी बोली हिन्दी का पहला महाकाव्य है। द्विवेदी युग में खङी बोली पूर्णतः काव्य-भाषा पद पर प्रतिष्ठित हो गई। छायावादी कवियों ने इसमें माधुर्य का समावेश किया और बाद में कवियों ने इसे शक्ति प्रदान की।
खङी बोली की व्याकरणिक विशेषताएँ –
(1) खङी बोली की प्रधान प्रवृत्ति होती है शब्दों का आकारान्त होना। ब्रजभाषा में जो शब्द औकारान्त हैं वे ही खङी बोली में आकारान्त उच्चारित होते हैं। जैसे-आया, खाया, गया, छोटा, मोटा, खङा, पङा, लङा, मरा आदि।
(2) खङी बोली में व्यंजन द्वित्व की प्रवृत्ति प्रमुखता से पाई जाती है। जैसे-
लोटा > लोट्टा
गाङी > गड्डी
ऊपर > उप्पर
बेटा > बेट्टा
(3) खङी बोली में ध्वनि प्रयोग की दृष्टि से एक विशेषता यह भी पाई जाती है कि प्रायः ’न’ ध्वनि का परिवर्तन ’ण’ में हो जाता है। जैसे-
जाना > जाणा
खाना > खाणा
आना > आणा
पाना > पाणा
लाला > लाणा
करना > करणा
(4) खङी बोली के कुछ शब्द विशेष प्रकार के है जो उसके स्वरूप का उद्घाटन करते हैं। जैसे-
दूध > दूद
अब > इब
घना > घणा
कभी > कदी
स्टेशन > टेशन
(5) खङी बोली में ’ऐ’ का उच्चारण ’ए’ तथा ’और’ का उच्चारण ’ओ’ रूप में होता है।
पैर > पेर
बैठ > बेठ
कौआ > कोआ
बैर > बेर
दौरा > दोरा
गौना > गोणा
खङी बोली व्याकरणिक विशेषताएँ –
(6) खङी बोली के कुछ सर्वनाम रूप भी विशेष प्रकार के हैं। यथा:-
मुझ > मुज
तुम्हारा > धारा
उसका > विस्का
हमारा > म्हारा
तुमने > तन्नैं
कौन > कौण
(7) खङी बोली के कुछ अव्यय विशेष प्रकार के हैं। यहां कुछ उदाहरण हैं:-
कब > कद
अब > इब
इधर > इदर
जब > जद
और > होर
किधर > किदर
(8) पूर्वकालिक क्रिया बनाने के लिए शब्दों में ’कै’ प्रत्यय जोङते है।
आकर > आके
उठकर > उठके
लाकर > लाके
जाकर > जाके
पाकर > पाके
खाकर > खाके
सुनकर > सुनके
पीकर > पीके
खङी बोली व्याकरणिक विशेषताएँ –
(9) भूतकालिक कृदन्तों का निर्माण ’आ’ अथवा ’या’ जोङकर होता है। जैसे –
सुना > सुन्या
कहा > कहया
(10) खङी बोली के कुछ संख्यावाचक विशेषण निम्नवत् हैं-
ग्यारह > ग्यारै
उन्नीस > उन्नी
इक्यावन > क्यावण
लाख > लाक्ख
सोलह > सौले
उनन्चास > उणन्चास
इक्यावन > क्यावण
अढ्ढानवे > अढ्ढाणवे
लाख > लाक्ख
(11) खङी बोली में कहीं-कहीं ’इ’ ध्वनि लुप्त हो जाती है। यथा:-
इकट्ठे > कट्ठे
मन्दिर > मंदर
खङी बोली व्याकरणिक विशेषताएँ –
(12) खङी बोली के कुछ कारक चिह्न निम्न प्रकार हैं –
कर्ता – नै, णै कर्म – कू
करण और अपादान – से
सम्प्रदाय – के खात्तर, के लाने, के लाइयो
अधिकरण – के उप्पर, के भित्तर।
(13) स्त्रीलिंग बनाने के लिए खङी बोली में दो प्रत्यय जोङ देते हैं – नी, अन। जैसे-
जाट > जाटनी
सांप > सांपण
ऊँट > ऊँटनी
माली > मालण
खङी बोली का उदाहरण – खङी बोली का एक उदाहरण श्री राजनाथ शर्मा ने इस प्रकार दिया है-
’एक दिण अकबर बादसा ने बीरबल सै कह्या ओ बीरबल तू मुझे बङद का दूध ला दे नई तेरी खाल कढ़वाई जागी। बीरबर कूं बहोत रंज हुआ और हुत्तर आण के अपने घरूं पङ ग्या।’
हिन्दी की बोलियां में खङी बोली इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मानक हिन्दी का आधार खङी बोली ही है। आजकल नगरों में जो हिन्दी बोली जाती है उसे मानक हिन्दी कहना चाहिए खङी बोली नहीं, क्योंकि खङी बोली तो मेरठ, बिजनौर में बोली जाने वाली बोली है, जो आधुनिक हिन्दी से अलग है।
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अच्छी जानकरी है किंतु सन् इत्यादि में कहीं कहीं त्रुटि है जो भ्रामक स्थिति उत्पन्न कर सकती है।जैसे- उदन्त मार्तण्ड पत्र 1826 में निकला था।