आज की इस पोस्ट में हम रामचन्द्र शुक्ल जीवन परिचय(Ramchandra Shukla) विषय-वस्तु पर चर्चा करेंगे।
रामचन्द्र शुक्ल जीवन परिचय- Introduction to Ramchandra Shukla Life
Table of Contents
- जन्म : 1884 अगोना, बस्ती, उत्तर प्रदेश
- मृत्यु : 1940
- 1896-97 में ‘भारत और बसन्त’ शीर्षक कविता आनंद कादम्बिनी में छपी
- 1903 में आनन्द कादम्बिनी के सम्पादक बन मिर्जापुर आए
- 1904 में मिशन स्कूल में कला शिक्षक बने
इतिहास
हिन्दी साहित्य का इतिहास (सच्चे अर्थों में हिन्दी साहित्य का सर्वप्रथम परम्परागत इतिहास, 1929 ई.)
व्यावहारिक आलोचना-ग्रंथ
(क) गोस्वामी तुलसीदास (तुलसी ग्रंथावली की भूमिका,1923 ई.)
(ख) जायसी (जायसी ग्रंथावली की भूमिका, 1924 ई.)
(ग) महाकवि सूरदास (भ्रमरगीतसार की भूमिका, 1924 ई.)
सैद्धान्तिक समीक्षा
(क) रस-मीमांसा (काव्य-चिन्तन संबंधी निबंधों का संग्रह, मृत्यु के बाद प्रकाशित, 1949 ई. सं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र) : काव्य की साधना, काव्य और सृष्टि प्रसार, काव्य और व्यवहार, मनुष्यता की उच्च भूमि, भावना या कल्पना, मनोरंजन, सौंदर्य,चमत्कारवाद, काव्य की भाषा, अलंकार,
निबन्ध
(क) चिन्तामणि, भाग-1 (1939 ई., 17 निबन्ध) :
भाव या मनोविकार |
उत्साह |
श्रद्धा-भक्ति |
करुणा |
लज्जा और ग्लानि |
लोभ और प्रीति |
घृणा |
ईर्ष्या |
भय |
क्रोध |
कविता क्या है |
भारतेंदु हरिश्चंद्र |
तुलसी का भक्ति-मार्ग |
मानस’ की धर्म-भूमि |
काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था |
साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद |
रसात्मक बोध के विविध |
(ख) चिन्तामणि, भाग-2 (1945 ई.) :
प्राकृतिक दृश्य |
काव्य में रहस्यवाद |
काव्य में अभिव्यंजनावाद |
(ग) चिन्तामणि, भाग-3 (1983 ई.सं. डॉ. नामवर सिंह)
(घ) चिन्तामणि, भाग-4 (2004 ई., सं. डॉ. कुसुम चतुर्वेदी और डॉ. ओमप्रकाश सिंह)
अन्य रचनाएँ
ग्यारह वर्ष का समय (कहानी, 1903 ई.) |
बाबा राधकृष्णदास का जीवनचरित (1913 ई..) |
वीरसिंह देव चरित (1926 ई..) |
हिन्दी आ शब्द सागर कोश (1929 ई..) |
विचार वीथी (1930 ई..) |
मधुस्रोत (शुक्लजी की 1901 से 1929 ई.. के बीच लिखित कविताओं का संग्रह, 1971 ई..) इत्यादि। |
साहित्य शास्त्र : सिद्धांत और व्यवहार पक्ष (आलोचना) : |
साहित्य
कल्पना का आनन्द, |
कविता क्या है (1909 ई..), |
काव्य में प्राकृतिक दृश्य (1922 ई..), |
काव्य में रहस्यवाद(1929 ई.), |
प्रेम आनंद स्वरूप है, |
रसात्मक बोध के विविध रूप, |
काव्य में लोक-मंगल की साधनावस्था, |
काव्य में अभिव्यंजनावाद (1935 ई..), |
स्वागत भाषण, |
मनोविकारों का विकास, |
उत्साह, |
भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिन्दी , |
तुलसी का भक्तिमार्ग, |
युग प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र, क्रोचे। |
भाषा, साहित्य और समाज विमर्श : देशी भाषा की दशा, |
उर्दू राष्ट्रभाषा देशी, |
भाषाओं का पुनरुज्जीवन, |
हिन्दी और हिन्दुस्तानी। |
अनुवादशशांक (बंगला उपन्यास) |
कल्पना का आनन्द (एडिसन के प्लेजर आव इमेजिनेशन का अनुवाद, 1901 ई..) |
मेगस्थानीज का भारतवर्षीय विवरण (डॉ. श्वान बक की पुस्तक मेगास्थानीज इंडिका का अनुवाद, 1906 ई..) |
विश्वप्रपंच (द यूनिवर्स का अनुवाद, 1920 ई..) |
बुद्धचरित (1922 ई..) |
आदर्श जीवन (अंग्रेज़ी) राज्य प्रबन्ध शिक्षा (अंग्रेज़ी) |
कुछ प्रमुख कथन : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के
●”हृदय की अनुभूति ही साहित्य में रस और भाव कहलाती है।”
●”हृदय के प्रभावित होने का नाम ही रसानुभूति है”
●”जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है , उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है”.
◆”हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा, दूसरे देशों की दृष्टि से अपने साहित्य की नहीं”
◆प्रेम दूसरों की आंखों से नहीं अपनी आँखों से देखता है”
◆”यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है”
●”भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है”
◆”साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम उत्साह है”
●”यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण”
◆”परिचय प्रेम का प्रवर्तक है”
◆”बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है”
*आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कथन*
संदर्भ – आधुनिक काव्य
⇒ “गुप्त जी (मैथिलीशरण गुप्त) वास्तव में सामंजस्यवादी कवि है; प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने वाले अथवा मद में झूमाने वाले कवि नहीं हैं। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें है।”
⇒ “उनका (पंडित सत्यनारायण कविरत्न का) जीवन क्या था; जीवन की विषमता का एक छाँटा हुआ दृष्टान्त था।”
⇒ “उसका (छायावाद का) प्रधान लक्ष्य काव्य-शैली की ओर था, वस्तु विधान की ओर नहीं। अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया।”
⇒ “हिन्दी कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को ౼विशेषतः श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री मुकुटधर पांडेय को समझना चाहिए।”
⇒”असीम और अज्ञात प्रियतम के प्रति अत्यन्त चित्रमय भाषा में अनेक प्रकार के प्रेमोद्गारों तक ही काव्य की गतिविधि प्रायः बन्ध गई।”
⇒”छायावाद शब्द का प्रयोग रहस्यवाद तक ही न रहकर काव्य-शैली के सन्बन्ध में भी प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अर्थ में होने लगा।”
⇒ “छायावाद को चित्रभाषा या अभिव्यंजन-पद्धति कहा है।”
“छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका सम्बन्ध काव्य वस्तु से होता है अर्थात जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति विशेष की व्यापक अर्थ में हैं।”
⇒”छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन।”
⇒”छायावाद का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लिखकर तो हिन्दी काव्य-क्षेत्र में चलने वाली सुश्री महादेवी वर्मा ही हैं।”
⇒”पन्त, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीक-पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए।”
⇒ “अन्योक्ति-पद्धति का अवलम्बन भी छायावाद का एक विशेष लक्षण हुआ।”
⇒ “छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।”
⇒”लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास छायावाद की काव्य-शैली की असली विशेषता है।”
⇒ शुक्ल जी जयशंकर प्रसाद की कृति ‘आंसू’ को ‘श्रृंगारी विप्रलम्भ’ कहा है।
⇒ “यद्यपि यह छोटा है, पर इसकी रचना बहुत सरस और हृदयग्राहिणी है और कवि की भावुकता का परिचय देती है।” (नरोत्तमदास की कृति सुदामा चरित के लबारे में)
सूरदास के बारे में !
⇒”छायावाद नाम चल पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र, वस्तुविन्यास की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साध्य मानकर चले। शैली की इन विशेषताओं की दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रही। विभावपक्ष या तो शून्य अथवा अनिर्दिष्ट रह गया। इस प्रकार प्रसरोन्मुख काव्यक्षेत्र बहुत कुछ संकुचित हो गया।”
⇒ “पन्तजी की रहस्यभावना स्वाभाविक है, साम्प्रदायिक (डागमेटिक) नहीं। ऐसी रहस्यभावना इस रहस्यमय जगत् के नाना रुपों को देख प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के मन में कभी-कभी उठा करती है। …’गुंजन’ में भी पन्तजी की रहस्यभावना अधिकतर स्वाभाविक पथ पर पाई जाती है।”
रामनरेश त्रिपाठी जीवन परिचय देखें
महावीर प्रसाद द्विवेदी जीवन परिचय देखें
रामचन्द्र शुक्ल जीवन परिचय
लोक मंगल की साधनावस्था की विशेषता क्या है