बादल को घिरते देखा है ||  नागार्जुन || व्याख्या प्रश्नोत्तर सहित | Badal ko ghirte dekha hai

आज के आर्टिकल में हम नागार्जुन जी की कविता बादल को घिरते देखा है(Badal ko ghirte dekha hai) की व्याख्या सहित जानकारी देने वाले है

बादल को घिरते देखा है – Badal ko ghirte dekha hai

यह कविता नागार्जुन के कविता संग्रह ’युगधारा’ से संकलित है। इसमें कवि ने बादल व प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन किया है।

’बादल को घिरते देखा है ’कविता में बादल की प्रकृति के बारे में कवि का अपना चिंतन है। यह बादल कालिदास के मेघदूत है जो विरही के पास संदेश लेकर जाते हैं। इन्हीं बादलों के साथ कस्तूरी मृग की बैचनी, बर्फीली घाटियों में क्रन्दन करते चकवा-चकवी और किन्नर-किन्नरियों के काल्पनिक चित्रण को बादल के साथ सम्बद्ध कर प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत कविता कल्पना दृष्टि से कालिदास एवं निराला की काव्य परंपरा की सारथी है।

बादल को घिरते देखा है

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोट मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बङी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर विसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

भावार्थ: – प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहते हैं कि उन्होंने हिमालय के उज्ज्वल शिखरों पर बादलों को घिरते देखा है। कवि ने बादलों के मोती जैसे शीतल कणों को ओस की बूँद के रूप में मानसरोवर झील में स्थित कमल पत्रों पर गिरते देखा है। हिमालय की ऊँची-ऊँची चोटियों पर अनेक झीलें स्थित हैं।इन झीलों के शांत व गहरे नीले जल में मैदानी क्षेत्रों की गर्मी से व्याकुल हंस शरण लेते है। कवि ने इन हंसों को पानी पर तैरते हुए कमलनाल के भीतर स्थित कङवे और मीठे कोमल तंतुओं को खोजते देखा है। इस प्रकार कवि इन झीलों में विचरण करते हुए हंसों का वर्णन करता है।

विशेष:

  • बादल का मानवीकरण किया गया है। अतः मानवीकरण अलंकार का प्रयोग है।
  • ’छोटे-छोटे’ में पुनरक्ति प्रकाश अलंकार तथा ’मोती जैसे’ में उपमा अलंकार है।
  • ’आ-आकर’, एवं ’श्यामल नील सलिल’ अनुप्रास अलंकार है।
  •  उमस देशज शब्द है।

 

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल वह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णिम शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिङते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

दुर्गम बरफानी घाटी में
शत-सहस्त्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

भावार्थ – इस अंश में कवि ने बसंत ऋतु की मादकता, चकवा चकवी का मिलन तथा कस्तूरी मृग की व्याकुलता का स्वाभाविक वर्णन किया है। कवि कहते है कि बसंत ऋतु के सुप्रभात में मंद-मंद हवा बह रही है तथा प्रातःकालीन सूर्य की किरणें अपनी आभा चारों ओर फैला रही थीं, जिससे आसपास के शिखर स्वर्णिम से प्रतीत हो रहे थे। प्रातःकाल में ऐसे मोहक वातावरण में रात्रि में विरह के अभिशाप में व्याकुल चकवा-चकवी का अभिशप्त जीवन क्रंदन अब शांत हो गया है और वे मानसरोवर झील के किनारे बिछी हुई शैवाल की हरी चादर पर प्रणय-क्रीङा कर रहे हैं। अर्थात् वे रात्रि के वियोग के पश्चात पुनर्मिलन से अत्यंत खुश है। यहाँ कवि ने इस प्रणय क्रीङा का सजीव वर्णन किया है।

कवि ने हिमालय की दुर्गम बर्फीली घाटियों में जिनकी ऊँचाई सहस्त्रों फीट है, अपनी ही नाभि से उठने वाली सुगंधी को ढूँढ़ने वाले कस्तूरी मृग को बैचेन होकर भागते देखा है।

विशेष –

  •  इसमें बसंत ऋतु की मादकता व कस्तूरी मृगों के स्वभाव का स्वाभाविक वर्णन है।
  •  ’मंद-मंद’ व ’अलग-अलग’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार व ’चकवा-चकवी’ एवं ’तरल तरुण’ में अनुप्रास अलंकार है।

 

कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढा बहुत परंतु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पङा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाङों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिङते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

भावार्थ – इस पद्यांश में कवि कहते है कि वर्तमान में धनपति कुबेर व उसकी नगरी अलका का कोई पता नहीं है और न ही कालिदास द्वारा वर्णित व्योम प्रवाही गंगाजल ही कहीं दिखाई देता है। बहुत तलाश करने पर भी ’मेघदूत’ का भी पता नहीं चलता है। क्या पता वह छायामय यहीं कहीं पर बरस तो नहीं गया है। छोङो, वह सब तो मात्र कवि की कल्पना थी। कवि आगे कहते हैं कि उन्होंने तो भीषण सर्दी में गगनचुंबी कैलाश पर्वत पर बादलों को तूफानी हवाओं से गरज-गरज कर टकराते हुए देखा है। इस परिवेश में घिरते हुए बादलों को कवि ने स्वयं देखा है।

विशेष –

  •  ’कवि कल्पित’ में अनुप्रास अलंकार है।
  •  ’गरज-गरज’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

 

शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल
मुखरित देवदारु कानन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले,
शंख-सरीखे सुघढ़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपदी पर,
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आँखोंवाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मदिरारुण आँखोंवाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

भावार्थ – कवि कहता है कि पर्वतीय प्रदेश में बहने वाले सैकङों झरने, अपने जल प्रवाह से देवदार के वनों में कल-कल ध्वनि कर रहे हैं। वहीं देवदार के वृक्षों के नीचे लाल और सफेद भोजपत्रों से निर्मित कुटिया के अंदर रंग-बिरंगे फूलों से केशों को सजाकर, इंद्रमणियों के हार पहने हुए, कानों में नीलकमल और वेणि में लाल कमल लटका कर, लाल चंदन की तिपाई पर चाँदी से बने और मणियों से जङे हुए मदिरा पात्रों कें अंगूरी शराब सामने भरकर व मुलायम-मुलायम और बेदाग छोटे कस्तूरी हिरणों की छाल पर पालथी मारकर बैठे हुए तथा मदिरापान के कारण हुए लाल-लाल नेत्रों में मस्त किन्नर और किन्नरियों की बाँसुरी पर अपनी कोमल व मनोहर अँगुलियों को फेरते हुए देखा है।

विशेष –

  •  ’शत-शत’, ’अपने-अपने’ में पुनरुक्ति प्रकाश, ’निर्झर-निर्झरणी’ व ’नरम निदाद्य’ में अनुप्रास अलंकार तथा ’शंख, सरोखे सुघढ़ गलों में’ में उपमा अलंकार है।
  •  कवि ने हिमाचल की उन्नत घाटी, देवदारू के वन और किन्नर-किन्नरियों की दंतकथाओं को प्रस्तुत कर बादल के माध्यम से प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को शब्दचित्र के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
  •  मेघदूत: यह संस्कृत के महाकवि कालिदास का प्रसिद्ध खंडकाव्य है जिसके नायकयक्ष और नायिका यक्षिणी शाप के कारण अलग रहने को बाध्य होते हैं। यक्ष मेघ को दूत बनाकर यक्षिणी के लिए संदेश भेजता है। इस काव्य में        प्रकृति का मनोरम चित्रण हुआ है।

 

’बादल को घिरते देखा है ’ के अभ्यास प्रश्न उत्तर 

1. ’बादल को घिरते देखा है’, कविता के रचनाकार है –
(अ) केदारनाथ अग्रवाल          (ब) सुमित्रानंदन पंत
(स) नागार्जुन ®                    (द) महादेवी वर्मा

2. ’तुंग हिमालय के कंधों पर, छोटी-बङी कई झीले है।’’

पंक्तियों में निहित अलंकार है –
(अ) उपमा                           (ब) अनुप्रास
(स) मानवीकरण ®               (द) रूपक

3. चकवा-चकवी का क्रदन बंद क्यों हुआ है –
(अ) उनका मिलन हो गया
(ब) रात्रि समाप्त हो गई
(स) उनका विरह दूर हो गया
(द) उक्त सभी ®

4. कस्तूरी मृग अपने पर कैसे चिढ़ता है –
(अ) उसे अपनी नाभि से खूशबू आती है और वह खुशबू को ढूंढता है ®
(ब) उसे अपना साथी नहीं मिलता है
(स) बादल को घिरते देखता है
(द) बादल के बरसने पर

5. कवि ने किन्नर और किन्नरियों की परिकल्पना क्यों कैसे की ?
(अ) मान्यता है कि वे स्वर्ग में निवास करते है
(ब) पुण्यात्मा किन्नर बनते हैं
(स) हिमालय की शुभ्रता देखकर ®
(द) हिमालय के उत्तुंग शिखर देखकर

6. अनिल का पर्यायवाची है –
(अ) अरुण                    (ब) आभा
(स) जल                       (द) हवा ®

7. अगल-बगल में समास है –
(अ) द्वंद्व समास ®      (ब) अव्ययीभाव समास
(स) तत्पुरुष समास         (द) बहुब्रीही समास

8. ’बादल को घिरते देखा है’ से क्या अभिप्राय है –
(अ) बादल का बरसना ®      (ब) बादल का फटना
(स) बादल का उमङना          (द) बादल का मिटना

9. ’शैवालों की हरी दरी पर,
प्रणय-कलह छिङते देखा है।’’
कवि किसके मध्य प्रणय-कलह छिङते देख रहा है –
(अ) हँस-हँसिनी में                 (ब) बगुलों में
(स) चकवा-चकवी में ®          (द) शैथलों में

10. ’’शैवालों की हरी दरी पर, प्रणय कलह छिङते दखा है।’’

पंक्तियों में अलंकार है –
(अ) उपमा ®                       (ब) रूपक
(स) उत्प्रेक्षा                          (द) अर्थान्तर न्यास

11. कवि ने बादल को किससे गरज कर भिङते देखा है –
(अ) विद्युत से                       (ब) बादल से
(स) वायु से ®                        (द) जल से

12. ’बादल को घिरते देखा है’-कविता के सौन्दर्य को कवि ने किस ऋतु का उद्गम बताया है –
(अ) पावस का ®                    (ब) शरद का
(स) ग्रीष्म का                         (द) सुख का

13. ’निशा’ का विलोम है –
(अ) रात्रि                               (ब) दोपहर
(स) दिवस ®                         (द) प्रातःकाल

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