दोस्तों आज की पोस्ट में भक्तिकालीन सम्बन्ध में प्रमुख आलोचनात्मक कथन दिए गए है जो परीक्षा के लिए काफी उपयोगी साबित होंगे
भक्तिकालीन कवियों के सम्बन्ध में प्रमुख आलोचनात्मक कथन
⇒कबीर तथा अन्य निर्गुण पंथी संतों के द्वारा अंतस्साधना में रागात्मिकता ’भक्ति’ और ज्ञान का योग तो हुआ है पर कर्म की दिशा वही रही जो नाथ पंथियों के यहाँ थी।- आचार्य शुक्ल
कबीर ने अपनी झाङ-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। – आचार्य शुक्ल
⇒ भक्ति धर्म का रसात्मक रूप है- आचार्य शुक्ल
⇒ सूरदास की कविता में हम विश्वव्यापी राग सुनते है वह राग मनुष्य के हृदय का सूक्ष्म उद्गार है। – रामकुमार वर्मा
⇒ भ्रमरगीत सूर साहित्य का मुकुटमणि है, यदि वात्सल्य और श्रृंगार के पदों को निकाल भी दिया जाय तो हिन्दी साहित्य में सूर का नाम अमर रखने के लिए भ्रमरगीत ही काफी है।- आचार्य शुक्ल
⇒ वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया उतना किसी और ने नहीं, इन क्षेत्रों का कोना-कोना झाँक आए हैं। – आचार्य शुक्ल
⇒ महात्मा बुद्ध के बाद भारत के सबसे बङे लोकनायक तुलसी थे। – जार्ज ग्रियर्सन
⇒ प्रंबधकार कवि की भावुता का सबसे अधिक पता यह देखने से चल सकता है कि वह किसी आख्यान को अधिक मर्मस्पर्शी स्थलों को पहचान सका है या नहीं – आचार्य शुक्ल
⇒ तुलसी कलिकाल के वाल्मीकि हैं – नाभादास
⇒ यदि प्रंबधकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक चुना हुआ गुलदस्ता। – आचार्य शुक्ल
⇒ लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
⇒ भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
⇒ कबीर की भाषा सधुक्कङी है- आचार्य शुक्ल
⇒ सूरदास की रचना में संस्कृत की कोमलकांत पदावली और अनुप्रासों की छटा नहीं है जो तुलसी की रचना में दिखाई पङती है।- आचार्य शुक्ल
⇒ सूर ही वात्सल्य है, वात्सल्य ही सूर है- आचार्य शुक्ल
⇒ श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं।- आचार्य शुक्ल
⇒ तुलसी को मुगल काल का सबसे बङा व्यक्ति माना।- स्मिथ
⇒ रामचरितमानस की कोई चौपाई भले ही बिना उपमा की मिल जाय किन्तु उसका कोई पृष्ठ कठिनाई से ऐसा मिलेगा। जिसमें किसी सुन्दर उपमा का प्रयोग न हो।- अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’
⇒ कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला- अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’
⇒ तुसलीदास जी उत्तरी भारत की समग्र जनता के हृदय मन्दिर में पूर्ण प्रतिष्ठा के साथ विराज रहे है।-रामचन्द्र शुक्ल
⇒ यदि इस्लाम न आया होता तो भी भक्ति साहित्य का बारह आना वैसा ही होता है जैसा आज है। –आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
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