दोस्तों आज की पोस्ट में देवनागरी लिपि(devnagri lipi), देवनागरी लिपि क्या है(Devnagri lipi kya hain), देवनागरी लिपि का विकास(Devnagri lipi ka vikas), देवनागरी लिपि विशेषताएँ(Devnagri lipi ki visheshtaen) और इसके दोष पढेंगे ,जिससे हम देवनागरी लिपि को चरणबद्ध समझ सकेंगे।
देवनागरी लिपि – Devnagri lipi
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देवनागरी लिपि किसे कहतें है – Devnagri Lipi kise Kahate Hain
लिखित ध्वनि-संकेतों को लिपि(Lipi) कहा जाता है। किसी भाषा को जिन ध्वनि संकेतों के माध्यम से लिखा जाता है, उन ध्वनि-संकेतों को उस भाषा की लिपि कहते है।
उदाहरण के लिए –
हिन्दी देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में, अंग्रेजी रोमन लिपि और उर्दू फारसी लिपि में लिखी जाती है। भारत के प्राचीन शिलालेखों एवं सिक्कों में दो लिपियां मिलती हैं-
- ब्राह्मी लिपि
- खरोष्ठी लिपि
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ जो पहले गुप्त लिपि फिर कुटिल लिपि और अन्ततः 10 वीं शतीब्दी में देवनागरी लिपि(devnagri lipi) के रूप में विकसित हुई।
चलो अब हम जानेंगे कि देवनागरी लिपि(devnagri lipi) का विकास कैसे हुआ ?
देवनागरी लिपि का नामकरण – Devanagri lipi in Hindi
- देवनागरी लिपि(devnagri lipi) के नामकरण के सम्बन्ध में कई मत प्रचलित हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नवत् है:
- कुछ विद्वानों गुजरात के नागर ब्राह्मणों की लिपि होने से इसे नागरी लिपि कहते है।
- कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार, नगर की लिपि होने से इसे नागरी लिपि कहते है।
- एक अन्य मत से, नागवंशी राजाओं की लिपि होने से इसे नागरी कहा गया।
- तान्त्रिका चिह्न ’देवनगर’ से सम्बन्धित होने का कारण इसे नागरी कहा गया।
- स्थापत्य की एक शैली नागर शैली थी, जिसमें चतुर्भुजी आकृतियां होती थी।
- नागरी लिपि में चतुर्भुजी अक्षर ग, प, भ, म, आदि हैं। अतः इसे देवनागरी लिपि कहा गया।
- वस्तुतः ये सभी मत अनुमान पर आधारित हैं, अतः इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।
- इस सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि देवनागरी लिपि(devnagri lipi) का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ। ब्राह्मी लिपि की उत्तरी शाखा को नागरी कहा जाता था जो बाद में देव भाषा संस्कृत से जुङ गई, परिणामतः नागरी का नाम देवनागरी हो गया।
देवनागरी लिपि का विकास – Devnagri Lipi ka Vikas
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट के एक शिलालेख में मिलता है। 8 वीं शताब्दी में राष्ट्रकुल नरेशों में भी यही लिपि प्रचलित थी और 9 वीं शताब्दी में बङौदा के ध्रुवराज ने भी अपने राज्यादेशों में इसी लिपि का प्रयोग किया है।
यह लिपि भारत के सर्वाधिक क्षेत्रों में प्रचलित रही है। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार , महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात आदि प्रान्तों में उपलब्ध शिलालेख, ताम्रपत्रों, हस्तलिखित प्राचीन ग्रन्थों में देवनागरी लिपि(devnagri lipi) का ही सर्वाधिक प्रयोग हुआ हैं।
आजकल देवनागरी की जो वर्णमाला प्रचलित है, वह 11 वीं शती में स्थिर हो गई थी और 15 वीं शती तक उसमें सौन्दर्यपरक स्वरूप का भी समावेश हो गया था।
ईसा की 8 वीं शती में जो देवनागरी लिपि(devnagri lipi) प्रचलित थी, उसमें वर्णों की शिरोरेखाएं दो भागों में विभक्त थीं जो 11 वीं शती में मिलकर एक हो गयी ।
11 वीं शताब्दी की यही लिपि वर्तमान में प्रचलित है और हिन्दी, संस्कृत, मराठी भाषाओं को लिखने में प्रयुक्त हो रही है। देवनागरी लिपि(devnagri lipi) पर कुछ अन्य लिपियों का प्रभाव भी पङा है।
उदाहरण के लिए, गुजराती लिपि में शिरोरेखा नहीं है, आज बहुत से लोग देवनागरी में शिरारेखा का प्रयोग लेखन में नहीं करते। इसी प्रकार अंग्रेजी की रोमन लिपि में प्रचलित विराम चिह्न भी देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में लिखी जाने वाली हिन्दी ने ग्रहण कर लिए है।
देवनागरी में सुधार और संशोधन – Devanagri Lipi
देवनागरी लिपि में समय – समय पर अनेक सुधार एवं संशाधन होते रहे है, जिन्हें देवनागरी लिपि(devnagri lipi) का विकासात्मक इतिहास कहा जा सकता है। ये सुधार इसके दोषों का निराकरण करने हेतु तथा इसे लेखन एवं टंकण आदि की दृष्टि से अधिक उपयोगी बनने हेतु किए जाते है। इन सुधारों एवं संशोधनों का क्रमबद्ध विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
(1) सर्वप्रथम बम्बई के महादेव गोविन्द रानाडे ने एक लिपि सुधार सीमित का गठन किया। तदनन्तर महाराष्ट्र साहित्य परिषद् पुणे ने सुधार योजना तैयार की।
(2) सन् 1904 में ’तिलक’ ने ’केसरी पत्र’ में देवनागरी लिपि(devnagri lipi) के सुधार की चर्चा की, परिणामतः देवनागरी के टाइपों की संख्या 190 निर्धारित की गई और इन्हें ’तिलक टाइप’ कहा गया।
(3) तत्पश्चात् वीर सावरकर, महात्मा गांधी, विनोबा भावे और काका कालेलकर ने इस लिपि में सुधार का प्रयास करते हुए इसे सरल एवं सुगम बनाने का प्रयास किया। ’हरिजन’ पत्र में काका कालेलकर ने देवनागरी की स्वर ध्वनियों के स्थान पर ’अ’ पर मात्राएं लगाने का सुझाव दिया, जिससे देवनागरी लिपि में वर्णों की संख्या कम की जा सकें।
काका कालेलकर की बहुत-सी पुस्तकों में इस लिपि का प्रयोग किया गया।
इस लिपि का एक उदाहरण प्रस्तुत हैः
प्रचलित देवनागरी | काका कालेलकर की लिपि |
उसके खेत में ईख अच्छी है | अुसके खेत में अीख अच्छी है |
(4) डाॅ. श्यामसुंदर दास ने यह सुझाव दिया कि प्रत्येक वर्ग में पंचम वर्ण- ङ्, ´्, म, न, ण के स्थान पर केवल अनुस्वार का प्रयोग किया जाये।
उदाहरण:
अङ्क | अंक |
पञ्च | पंच |
कम्बल | कंबल |
कन्धा | कंधा |
कण्ठ | कंठ |
श्यामसुन्दर दास जी का यह सुझाव व्यावहारिक था, इसलिए आज के लोग पंचमाक्षरों के स्थान पर केवल अनुस्वार का प्रयोग करते हैं।
(5) डाॅ. गोरखप्रसाद का सुझाव था कि मात्राएं व्यंजनों के दाहिनी ओर ही लगाई जाएं; अर्थात् जो मात्राएं प्रचलित देवनागरी में दाएं, बाएं, ऊपर-नीचे लगती हैं, वे सब व्यंजन के दाहिनी ओर लगनी चाहिए।
(6) काशी के विद्वान् श्रीनिवास जी का सुझाव था कि देवनागरी लिपि(devnagri lipi) के वर्णों की संख्या कम करने हेतु उसमें से सभी महाप्राण ध्वनियां निकाल दी जाएं तथा अल्पप्राण ध्वनियों के नीचे कोई चिह्न लगाकर उन्हें महाप्राण बना लिया जाए। जैसे क को ख बनाने के लिए क के नीचे रेखा खींचकर उसे महाप्राण बना दिया गया है। अर्थात् ख = क्
(7) सन् 1935 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सभापतित्व में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें लिपि सुधार समिति का गठन किया गया, जिसमें लिपि सुधार समिति का गठन हुआ। 5 अक्टूबर, सन् 1941 को इस लिपि सुधार समिति ने निम्न सुझाव दिएः
(अ) सभी मात्राओं, अनुस्वार, रेफ आदि को ऊपर – नीचे न रखकर उच्चारण क्रम में रखा जाए। यथाः
कुल = क ु ल मूल = म ू ल
जेल = ज े ल धर्म = र्ध म
(ब) ह्रस्व इ की मात्रा को भी व्यंजन के आगे लगाया जाए, किन्तु उसे नीचे तनिक बाई ओर मोङ दिया जाए और दीर्घ ई की मात्रा को तनिक दाई और मोङ दें, जिससे उनमें अन्तर किया जा सके।
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उदाहरण :
मिल = मी्रल मील = मी्ल
(स) संयुक्ताक्षरों में आधे अक्षर को आधे रूप में और पूरे अक्षर को पूरे रूप में लिखा जाना चाहिए। यथाः प्रेम = प्रेम
भ्रम = भ्रम, त्रुटि = त्रुटि।
(द) स्वरों के स्थान पर ’अ’ में मात्राएं लगाकर काम चलाया जाए।
(य) पूर्ण विराम के लिए खङी रेखा की प्रयुक्त की जाए।
(र) रव के स्थान पर गुजराती ख का प्रयोग करें।
(8) इसी क्रम में सन् 1947 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आचार्य नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता में एक लिपि सुधार समिति का गठन किया, जिसने निम्नांकित सुझाव दिएः
(अ) अ की बारहखङी भ्रामक है।
(ब) मात्राएं यथास्थान रहें , किन्तु उन्हें थोङा दाहिनी ओर हटाकर लिखा जाए।
(स) अनुस्वार तथा पंचम वर्ण के स्थान पर सर्वत्र शून्य से काम चलाया जाए।
(9) सन् 1953 ई. में उत्तर प्रदेश सरकार ने अन्य प्रदेशों की सरकारों के प्रतिनिधियों की बैठक बुलाकर इन सुझावों को थोङे हेर-फेर के साथ स्वीकार कर लिया और यह जोङ दिया कि ह्रस्व इ की मात्रा व्यंजन के दाहिनी ओर ही लगाई जाए, किन्तु दीर्घ ई से उसकी भिन्नता दिखाने हेतु उसे तनिक छोटे रूप में कर दिया जाए।
उदाहरण:
किसी = कीसी
(10) सन् 1953 ई. में ही डाॅ. राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति ने लिपि सुधारों पर गहन विचार-विमर्श किया। इस समिति ने विभिन्न प्रान्तों के 100 से अधिक प्रतिनिधि और 14 मुख्यमन्त्रियों ने भाग लेकर विचार-विमर्श किया। समिति के सर्वमान्य सुझाव निम्नवत् थेः
(क) ख, ध, भ, छ को घुण्डीदार की रखा जाए।
(ख) संयुक्त वर्णों को स्वतन्त्र तरीके से लिखा जाए, यथाः
प्रेम = प्रेम श्रेय = श्रेय
(ग) ’क्ष’ का प्रयोग देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में जारी रखा जाए।
(11) उक्त सुझावों के अतिरिक्त भाषा-विज्ञान के अधिकारी, विद्वानों डाॅ. उदयनारायण तिवारी, डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा, डाॅ. भोलानाथ तिवारी तथा डाॅ. हरदेव बाहरी आदि ने भी देवनागरी लिपि(devnagri lipi) के दोषों का निराकरण करते हुए उसमें कुछ सुधार करने के सुझाव दिए। यथाः
(क) संयुक्त अक्षरों में प्रयुक्त होने वाली ’र’ ध्वनि के लिए ’र’ के नीचे हलन्त लगाकर काम चलाया जाए।
(ख) संयुक्त अक्षरों- क्ष, श्र, द्य, त्र को वर्णमाला से निकाल दिया जाए और इनके स्थान पर क्ष, श्र, द्य, त्र से काम चलाया जाए।
(ग) म्ह, ल्ह, न्ह, र्ह संयुक्त व्यंजन होते हुए भी मूल महाप्राण व्यंजन हैं, अतः इनके लिए स्वतन्त्र लिपि चिह्न होने चाहिए।
(घ) नागरी लिपि का प्रयोग हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली आदि भाषाओं के लिए होता है, अतः इन भाषाओं की कुछ ध्वनियों को अंकित करने के लिए देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में अतिरिक्त चिह्न ग्रहण कर लिए जाएं तो निश्चय ही सभी भाषाओं को पूरी तरह लिखने की सामथ्र्य इसमें आ जाएगी और तब यह और भी अधिक उपादेेय हो जायेगी।
इस प्रकार देवनागरी लिपि में समय-समय पर अनेक सुधार एवं संशोधन होते रहे है। प्रयास यही रहा है कि इस लिपि को अधिकाधिक उपयोगी बनाया जाए।
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) भारत की एक प्रमुख लिपि है, जो संस्कृत, हिन्दी, मराठी और नेपाली भाषाओं को लिखने में प्रयुक्त होती है। संसार की कोई भी लिपि पूर्णतः उपयुक्त नहीं कही जा सकती, क्योंकि प्रत्येक लिपि में जहां कुछ विशेषताएं होती हैं, वहीं कुछ दोष भी विद्यमान रहते हैं। ऐसी स्थिति में उसी लिपि को वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकता है, जिसमें गुण अधिक हों और दोष न्यूनतम हों।
यहां हम देवनागरी लिपि(devnagri lipi) के गुण-दोषों का विवेचन अंग्रेजी की रोमन लिपि और उर्दू की फारसी लिपि की तुलना करके करेंगे और इस प्रकार देवनागरी लिपि(devnagri lipi) की वैज्ञानिकता की परीक्षा करेंगे।
देवनागरी लिपि की विशेषताएँ – Devnagri lipi ki Visheshtayen
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) की प्रमुख विशेषताएं निम्नवत् हैं:
(1) वर्ण विभाजन में वैज्ञानिकता-
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में स्वरों एवं व्यंजनों का वर्गीकरण वैज्ञानिक पद्धति पर किया गया है। साथ ही स्वर और व्यंजन वैज्ञानिक ढ़ंग से क्रमबद्ध किए गए हैं। इस लिपि में मूलतः 14 स्वर, 35 व्यंजन और तीन संयुक्ताक्षर अर्थात् कुल 52 वर्ण है। व्यंजनों का वर्गीकरण उच्चारण स्थान एवं प्रयत्न के आधार पर किया गया है। इस विभाजन के कारण एक ओर तो वर्णों को शुद्ध रूप में उच्चारित किया जा सकता है तथा दूसरी ओर सुव्यवस्थित क्रम होने से उन्हें स्मरण रखने में भी सुविधा रहती है। रोमन लिपि में स्वर और व्यंजन परस्पर मिले हुए हैं, किन्तु देवनागरी में पहले स्वर ध्वनियां हैं, फिर व्यंजन ध्वनियों को क्रमबद्ध किया गया है।
(2) प्रत्येक ध्वनि के लिए एक चिह्न-
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) की यह अन्यतम विशेषता है कि इसमें प्रत्येक ध्वनि के लिए केवल एक चिह्न है, जबकि रोमन लिपि और फारसी लिपि में एक ध्वनि के लिए कई-कई विकल्प है, अतः वहां लिखने में भिन्नता आ सकती है, पर देवनागरी में प्रत्येक शब्द की केवल एक ही वर्तनी हो सकती है। उदाहरण के लिए, देवनागरी की ’क’ ध्वनि रोमन लिपि में कई तरह लिखी जा सकती है
जैसे :
कैट – Cat | क के लिए C |
किंग – King | क के लिए K |
क्वीन – Queen | क के लिए Q |
कैमिस्ट्री- Chemistry | क के लिए Ch |
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इसी प्रकार फारसी लिपि में देवनागरी की ’ज’ ध्वनि को व्यक्त करने के लिए चार विकल्प हैं- जे , ज्वाद , जोय , जाल।
स्पष्ट है कि देवनागरी लिपि(devnagri lipi) रोमन और फारसी लिपियों की तुलना में अधिक वैज्ञानिक है।
(3) अपरिवर्तनीय उच्चारण-
देवनागरी लिपि के वर्ण चाहे जहां प्रयुक्त हों, उनका उच्चारण अपरिवर्तित रहता है, जबकि रोमन लिपि में एक वर्ण एक शब्द में जिस रूप में उच्चारित होता है, दूसरे शब्द में उस रूप में उच्चारित नहीं होता और उसका उच्चारण परिवर्तित हो जाता हैं। यथाः
But – बट में | U का उच्चारण अ है। |
Put – पुट में | U का उच्चारण उ है। |
City – सिटी में | C का उच्चारण ’स’ है। |
Camel – कैमल में | C का उच्चारण ’क’ है। |
(4) उच्चारण और लेखन में एकरूपता-
देवनागरी लिपि में जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है। इसे देवनागरी लिपि(devnagri lipi) की प्रमुख विशेषता माना गया है। रोमन लिपि में यह विशेषता नहीं है, वहां उच्चारण और लेखन में भिन्नता दिखाई पङती है।
Knowledge – नाॅलेज में | K N W का उच्चारण ही नहीं होता |
knife – नाइफ में | k लिखा तो जाता है, पर बोला नहीं जाता |
Psychology- साइकाॅलजी में | P अनुच्चरित है। |
देवनागरी लिपि में इस प्रकार के ’साइलेन्ट’ वर्ण नहीं हैं। इस प्रकार इस लिपि में ध्वन्यात्मक सामंजस्य है तथा उच्चारण और लेखन में एकरूपता होने से यह वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकती है।
(5) वर्णात्मक लिपि-
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) वर्णात्मक लिपि है, ध्वन्यात्मक नहीं क्योंकि इसके सभी वर्ण उच्चारण के अनुरूप है। रोमन लिपि और फारसी लिपि में यह गुण नही है। देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में ’ज’ ध्वनि को अंकित करने के लिए ’ज’ वर्ण का प्रयोग होगा, किन्तु रोमन लिपि में ’ज’ ध्वनि को अंकित करने के लिए j या z लिखा जाएगा। इसी प्रकार फारसी में इसे ’जीम’ से लिखा जाएगा।
(6)समग्र ध्वनियों को अंकित करने की क्षमता-
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में किसी भी भाषा में प्रयुक्त होने वाली समग्र ध्वनियों को अंकित किया जा सकता है। रोमन लिपि इस दृष्टि से सक्षम नहीं है। उदाहरण के लिए रोमन लिपि में हिन्दी भाषा में प्रयुक्त होने वाली ध्वनियों न,ण, ङ्, ´् को व्यक्त करने के लिए केवल ‘N से ही काम चलाया जाता है। सब जानते है कि न और ण तथा ङ्, ´् अलग-अलग ध्वनियां हैं किन्तु अंग्रेजी की रोमन लिपि में इनके अन्तर को व्यक्त करने के लिए अलग-अलग लिपि चिह्न नहीं है। स्पष्ट है कि हम रोमन लिपि से केवल काम चला सकते हैं, किन्तु हिन्दी भाषा में प्रयुक्त ध्वनियों को ठीक-ठीक नहीं लिख सकते।
रोमन लिपि में महाप्राण व्यंजन भी स्वतन्त्र रूप से अलग वर्ण के रूप में नहीं हैं, केवल H लगाकर व्यंजन को महाप्राण बना लिया जाता है। जो अधिक उचित नहीं है। अपनी क्षमता के कारण आज देवनागरी लिपि समस्त भारतीय भाषाओं की लिपि बनने में समर्थ है। देवनागरी में उपलब्ध इस गुण को सम्पूर्णता भी कहा गया है। अपनी इस सम्पूर्णता के कारण यह वैज्ञानिक लिपि कही जा सकती है।
(7) गत्यात्मक लिपि-
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) की एक विशेषता यह भी है कि यह अत्यन्त व्यावहारिक एवं गत्यात्मक है। आवश्यकतानुसार इसने अनेक नए लिपि चिह्नों को भी अंगीकार कर लिया है। उदाहरण के लिए, फारसी लिपि की जो ध्वनियां हिन्दी में व्यवहृत होती हैं, उन्हें व्यक्त करने के लिए देवनागरी लिपि के कई वर्णों के नीचे बिन्दी लगाकर उच्चारणगत विशिष्टता को व्यक्त किया जाता हैं। यथा- क, ख, ग, ज, फ। इसी प्रकार अंग्रेजी शब्दों में व्यवहृत होने वाली ध्वनि ’ऑ’ को भी देवनागरी लिपि में एक वर्ण के रूप में कहीं -कहीं आ गई हैं। इस प्रकार देवनागरी लिपि स्थिर एवं अपरिवर्तनीय लिपि न होकर गत्यात्क लिपि है।
(8) सरल, कलात्मक एवं सुन्दर-
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) रोमन और फारसी लिपि की तुलना में सरल, कलात्मक एवं सुन्दर भी है। रोमन लिपि में जहां वर्णमाला के चार प्रारूप हैं- लिखने के कैपिटल अक्षर, छापे के कैपीटल अक्षर, लिखने के छोटे अक्षर तथा छापे के छोटे अक्षर, वहीं देवनागरी लिपि में अक्षर केवल एक ही तरह से लिखे जाते है। फारसी लिपि लिखने में बङी कठिन है।
(9) कम खर्चीली-
लिपि की एक विशेषता यह भी मानी गई है कि वह कम खर्चीली होनी चाहिए; अर्थात् कम स्थान घेरती हो तथा मुद्रण, टाइप आदि में अधिक खर्चीली न हो। देवनागरी लिपि(devnagri lipi) संयुक्ताक्षरों एवं मात्राओं के कारण कम स्थान घेरती है, अतः रोमन लिपि या फारसी लिपि की तुलना में कम खर्चीली है।
जैसेः
थोथा – Thotha चन्द्रिका -Chandrika
स्कूल -School
(10) स्पष्टता-
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में पर्याप्त स्पष्टता हैं। इसमें एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम होने की बहुत कम गुुंजाइश है, किन्तु फारसी लिपि में यह दोष बहुत है। एक नुक्ता होने या न होने से खुदा से जुदा हो जाता है। इसी प्रकार अंग्रेजी का रोमन लिपि में भी बहुत अक्षरों में शीघ्रता से लिखने में पारस्परिक भ्रम होने की सम्भावना हो जाती है।
जैसे
e और c O और Q
j और i m और n
(11) नियमबद्धता-
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में जो नियमबद्धता है, वह सम्भवतः संसार की किसी लिपि में नहीं है। इसमें प्रत्येक वर्ण अपने निश्चित स्थान पर क्यों है, इसका उत्तर दिया जा सकता है। वाग्यन्त्र को ध्यान में रखकर तथा उच्चारण स्थान में रखकर इसके स्वरों एवं व्यंजनों का स्थान निर्धारित किया गया है।
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रोमन लिपि के सम्बन्ध में इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता है कि A के बाद B क्यों आती है, किन्तु देवनागरी लिपि में इस प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता है कि क के बाद ख और ख के बाद ग क्यों आता है ? ये सभी कंठ्य ध्वनियां हैं और इनका उच्चारण स्थान कण्ठ है, अतः ये स्थान पर संयोजित की गई हैं। देवनागरी लिपि(devnagri lipi) के व्यंजन वर्णों का क्रम इस प्रकार हैः
- क ख ग घ ङ कंठ्य
- च छ ज झ ´ तालव्य
- ट ठ ड ढ ण मूर्धन्य
- त थ द ध म दन्त्य
- प फ ब भ म ओष्ठ्य
- य र ल व अन्तस्थ
- श ष स ह ऊष्म
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में व्यंजन संयोग के नियम भी प्रायः सुनियोजित हैं, अतः इनमें वर्तनी की भूलों की सम्भावना कम रहती है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में वे सभी विशेषताएं उपलब्ध है जो एक वैज्ञानिक लिपि में होनी चाहिए। उसी लिपि को वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकता है, जिसमें गुण अधिक हों और दोष न्यूनतम हों।
यद्यपि दुनिया की कोई भी लिपि ऐसी नहीं होगी, जिसमें कोई दोष ही न हो, तथापि वैज्ञानिक लिपि के लिए के लिए कम से कम दोषों वाली लिपि को ही मान्यता मिलेगी। देवनागरी लिपि(devnagri lipi) की विशेषताएं अधिक हैं, दोष कम हैं, अतः इसे वैज्ञानिक लिपि कहा जस सकता है।
देवनागरी लिपि के दोष
देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में जहां अनेक विशेषताएं हैं, वहीं कुछ अभाव भी है। इनका विवरण निम्नवत् हैः
(1) देवनागरी लिपि(devnagri lipi) में कुछ चिह्नों में एकरूपता नहीं है, यथा – ’र’ का संयोग चार रूपों में होता हैं- धर्म, क्रम, पृथ्वी, ट्रेन।
(2) कुछ अक्षर अभी भी दो प्रकार से लिखे जाते हैं- अ, प्र, ण, ल, ळ, झ, आदि।
(3) मात्राओं को कोई व्यवस्थित नियम नहीं है। कोई मात्रा ऊपर लगती है तो कोई पीछे।
(4) साम्य- मूलक वर्णों के कारण इसे पढ़ने-समझने में कभी- कभी परेशानी हो जाती है। इस प्रकार के साम्य-मूलक वर्ण है- व, ब, म, भ, घ, ध।
(5) देवनागरी में कहीं-कहीं क्रमानुसारिता का गुण भी नहीं है। पिता शब्द में सबसे पहले इ ध्वनि लिखि गई है, फिर प ध्वनि अंकित की गई है, जबकि उच्चारण में ’इ’ , ’प’ के बाद बोली जाती है।
(6) शिरोरेखा के कारण इस लिपि को शीघ्रता से लिखने में कठिनाई का अनुभव होता है। सम्भवतः इसीलिए बहुत से लोग लिखने में शिरोरेखा का प्रयोग नहीं करते।
(7) व्यंजन संयोग में कहीं-कहीं अनियमितता है
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जैसे
प्रेम में प पूरा लिखा गया है और र आधा, जबकि वास्तव में प आधा होना चाहिए और र पूरा।
(8) टाइपिंग और मुद्रण हेतु रोमन लिपि देवनागरी लिपि से अधिक सुगम है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नागरीलिपि को और अधिक उपयोगी एवं वैज्ञानिक बनने की आवश्यकता है। उसके अभावों को दूर करके उपयोगी एवं व्यावहारिक सुझाव देने की आज भी जरूरत है, तभी इस लिपि को पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकेगा।
देवनागरी लिपि का मानक स्वरूप – Devanagri Lipi
(अ) मानकीकृत देवनागरी वर्णमाला
(1) स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
(2) अनुस्वार- अं
(3) विसर्ग- अः
(4) व्यंजन- क ख ग घ ङ कंठ्य
- च छ ज झ तालव्य
- ट ठ ड ढ ण मूर्धन्य
- त थ द ध म दन्त्य
- प फ ब भ म ओष्ठ्य
- य र ल व अन्तस्थ
- श ष स ह ऊष्म
- क्ष, त्र ज्ञ, श्र संयुक्त व्यंजन
- ङ, ढ़ द्विगुण व्यंजन
नोट-
- देवनागरी लिपि में कुल 52 वर्ण हैं।
- देवनागरी लिपि में 11 स्वर है।
- अनुस्वार, विसर्ग को ’अयोगवाह’ कहा जाता है, इनकी संख्या 2 है।
- व्यंजनों की कुल संख्या 39 है।
- व्यंजनो में से 4 संयुक्त व्यंजन और द्विगुण व्यंजन हैं।
- 11 स्वर + 2 अयोगवाह + 39 व्यंजन = 52 वर्ण
- कोई भी वर्ण दो प्रकार से नहीं लिखा जाएगा।
देवनागरी लिपि का मानकीकरण
लिपि के विविध स्तरों पर पाई जाने वाली विषमरूपता को दूर कर उसमें एकरूपता लाना ही मानकीकरण है।
लिपि का मानकीकरण करने के लिए निम्न तथ्य महत्त्वपूर्ण हैंः
1. एक ध्वनि को अंकित करने के लिए विविध लिपि चिह्नों में से एक को मान्यता दी जाती है। यथा- देवनागरी लिपि में निम्न प्रकार वर्ण द्विविध प्रकार से लिखे जाते हैः
अ, झ, ल, ध, भ, ण
इनमें से प्रथम पंक्ति में लिखे हुए वर्ण ही मान्य हैं। द्वितीय पंक्ति के वर्ण अमान्य हैं।
2. ध्वनियों के उच्चारण में भी एकरूपता लानी आवश्यक है। क्षेत्रीय उच्चारण के कारण लोग अलग-अलग ढंग से ही ध्वनि का उच्चारण करते हैं।
जैसे
पैसा, पइसा, पाइसा
इनमें से पहला ’उच्चारण ही’ मानक उच्चारण है, शेष दो उच्चारण ठीक नहीं हैं।
3. वर्तनी की एकरूपता भी भाषा की शुद्धता के लिए परम आवश्यक है। देवनागरी लिपि में ई, यी तथा ये,ए के प्रयोग कहाँ करने चाहिए और कहाँ नहीं, इस सम्बन्ध में भारत सरकार के शिक्षा मन्त्रालय की ’वर्तनी समिति’ ने कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लेकर मानकीकरण की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है। इसके अनुसार –
(अ) संज्ञा शब्दों के अन्त में ’ई’ का प्रयोग होना चाहिए, ’यी’ का नहीं।
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जैसे
मिठाई, भलाई, बुराई, लङाई, पढ़ाई, खुदाई।
(ब) जिन क्रियाओं के भूतकालिक पुल्लिंग एकवचन रूप के अन्त में ’या’ आता है उसके बहुवचन रूप में ’ये’ और स्त्रीलिंग रूप में ’यी’ का प्रयोग उचित हैं।
जैसे
आया – आयी, आये – शुद्ध प्रयोग है।
गया – गयी, गये-शुद्ध प्रयोग है।
(स) जिन क्रियाओं के भूतकालिक पुल्लिंग एकवचन के अन्त में ’आ’ आता है उनके बहुवचन रूपों में ’ए’ और स्त्रीलिंग रूपों में ’ई का प्रयोग उचित है।
जैसे
हुआ-हुई, हुए-शुद्ध प्रयोग है।
(द) विधि क्रिया और अव्यय में ’ए’ का प्रयोग ही उचित है। जैसे चाहिए, दीजिए, लीजिए, कीजिए, पीजिए, इसलिए,
के लिए।
(य) वर्गों के पंचमाक्षर के बाद यदि उसी वर्ग का कोई वर्ण हो तो वहां अनुस्वार का प्रयोग ही करना चाहिए। जैसे
वंदना, हिंदी, नंदन, चंदन, अंत, गंगा।
(र) अंग्रेजी के जिन शब्दों में ’ओ’ ध्वनि का प्रयोग होता है उनके लिए हिन्दी की देवनागरी लिपि मे अर्धचन्द्र का प्रयोग करना चाहिए।
यथा –
College – काॅलेज
Office – ऑफिस
Doctor – डाॅक्टर
(ल) संस्कृत के जो शब्द विसर्ग युक्त हैं यदि वे तत्सम रूप में हिन्दी में लिखे गये
हों तो विसर्ग सहित लिखे जाने चाहिए, किन्तु यदि तद्भव रूप में प्रयुक्त हों तो
बिना विसर्ग के भी काम चल सकता है।
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जैसे
दुःख – तत्सम रूप में
दुख – तद्भव रूप में
(व) भय्या को भैया, गवय्या को गवैया तथा रुपइया को रुपैया रूप में ही लिखा जाना चाहिए।
इनमें से प्रथम रूप अशुद्ध एवं द्वितीय शुद्ध है।
(श) हिन्दी के संख्यावाचक शब्दों की वर्तनी का मानकीकरण 5 फरवरी, 1980 को हिन्दी निदेशालय,
दिल्ली के प्रमुख विद्वानों ने किया है।
इनमें से अशुद्ध लिखे जाने कुछ शब्दों के मानक शुद्ध रूप अग्रवत् हैं:
अशुद्ध रूप | मानक शुद्ध रूप |
1. एगारह | ग्यारह |
2. छः | छह |
3. सत्तरह | सत्रह |
4. इकत्तीस | इकतीस |
5. उनंचास | उनचास |
6. तिरेपन | तिरपन |
7. उन्यासी | उनासी |
8. छियाछठ | छियासठ |
9. छयासी | छियासी |
10. उनत्तीस | उनतीस |
4. कुछ क्रिया रूपों का भी मानकीकरण किया गया है।
उदाहरण:
अशुद्ध प्रयोग | शुद्ध प्रयोग |
करा | किया |
होएंगे | होंगे |
होयगा | होगा |
(स) नासिक्य व्यंजन जहां स्वतन्त्र रूप में संयुक्त हुए हों वहां वे अपने मूल रूप में ही लिखे जाने चाहिए।
यथा- अन्न, गन्ना, उन्मुख, सम्मति, सन्मति।
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