आज के आर्टिकल में हम साहित्य के चर्चित कवि हालावाद के जनक हरिवंश राय बच्चन जी (Harivansh rai Bachchan ka Jeevan Parichay) के सम्पूर्ण जीवन परिचय को पढेंगे ,इनसे जुड़ें महत्त्वपूर्ण तथ्यों का अध्ययन करेंगे ।
हरिवंश राय बच्चन – Harivansh Rai Bachchan ka Jeevan Parichay
Table of Contents
नाम | हरिवंश राय बच्चन |
जन्म | 27 नवम्बर 1907 ई. इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ़ जिले के बाबू पट्टी गाँव |
मृत्यु | 18 जनवरी 2003 ई. मुम्बई |
पूरा नाम | हरिवंश राय श्री वास्तव |
पिता | प्रतापनारायण श्री वास्तव |
माता | सरस्वती देवी |
उपनाम | हालावादी |
प्रारंभिक शिक्षा | काव्यस्व पाठशाला से उर्दू की शिक्षा ली। |
प्रथम रचना | ’तेरा हार’,1932 ई. |
कार्य | कवि |
शैली | हिंदी, छायावाद |
हरिवंशराय बच्चन शिक्षा , प्रारंभिक जीवन – Harivansh rai Bachchan ka Jeevan Parichay
राष्ट्रवादी कवि हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के पास प्रतापगढ़ जिले के छोटे से गाँव बाबूपट्टी में हुआ था। इनके पिता प्रताप नारायण श्रीवास्तव एवम माता का नाम सरस्वती देवी था। वे अपने भाइयों में बड़े थे । इन्होने अपनी प्रारंभिक शिक्षा म्युनिसिपल स्कूल से की थी। इसके बाद वे उर्दू सीखने के लिए कायस्त स्कूल में एडमिट हुए । 1938 में इन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य में परा स्नातक किया और संयोग की बात ये भी रही कि 1952 तक वे इसी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर भी रहे। वे कुछ समय तक देश की स्वतंत्रता के लिए महात्मा गाँधी से भी जुड़े ।इसके बाद वे बनारस यूनिवर्सिटी चले गए।1952 में अंग्रेजी साहित्य में पीएचडी करने के लिए इंग्लैंड की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी चले गए।वहां इन्होने विशेष उपलब्धि हासिल की। वे दुसरे भारतीय थे जिन्हें कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से इंग्लिश लिटरेचर में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई थी। उन्होंने इलाहाबाद में ऑल इंडिया रेडियो (AIR) में भी काम किया था।
हरिवंश राय बच्चन परिवार – Family
इनका जन्म 27 नवम्बर 1907 को गाँव बापूपट्टी, जिला प्रतापगढ़, उत्तरप्रदेश के एक कायस्थ परिवार मे हुआ था। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव एवं इनकी माता का नाम सरस्वती देवी था। छोटी उम्र में में इनके माता-पिता इन्हें बच्चन नाम से पुकारते थे। हरिवंश राय बच्चन का सरनेम वास्तव में श्रीवास्तव था। इनेक दो बेटे अमिताभ बच्चन (अभिनेता) और अजिताभ बच्चन थे। इनका पोता– अभिषेक बच्चन (अभिनेता) है।
हरिवंशराय बच्चन का विवाह – Harivansh Rai Bachchan Marrige Life
हरिवंश बच्चन स्नातक में पढ़ रहे थे, उसी दौरान उनकी मुलाकात श्यामा बच्चन से हुई। दोनों के बीच प्रेम हो गया। प्रेम होने के बाद 1926 ई . में दोनों ने शादी कर ली। शादी के ठीक 10 साल बाद, वर्ष 1936 में तपेदिक की लंबी बीमारी के कारण श्यामा की मृत्यु हो गई।। श्यामा के निधन के बाद हरिवंश राय बच्चन अकेलापन महसूस करने लगे। उसके बाद वो अपने दोस्त प्रकाश की सहायता से 24 जनवरी 1942 को हरिवंश राय बच्चन ने तेजी बच्चन से शादी कर ली।
- 1942-1954 ई. तक इलाहाबाद विश्व विद्यालय अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे।
- 1952-1954 ई. कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय पी. एच. डी
- 1955 ई. में विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ
- 1955 ई. राज्यसभा सदस्य
सम्मान व पुरस्कार
- सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार,(1966 ई.)
- साहित्य अकादमी पुरस्कार (दो चट्टाने),1968 ई. में
- पद्म भूषण (साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में),1976 ई. में
- प्रथम सरस्वती सम्मान (चार आत्म कथात्मक खण्डों के लिए),1991 ई.
- कमल पुरस्कार (एफ्रो एशियाई सम्मेलन के द्वारा),1968 ई.
आत्मकथात्मक चार खण्ड-
रचना नाम | प्रकाशन समय |
क्या भूलूं क्या याद करूँ | 1969 ई. |
नीङ का निर्माण फिर | 1970 ई. |
बसेरे से दूर | 1977 ई. |
दशद्वार तक सोपान तक | 1985 ई. |
Harivansh Rai Bachchan Poems in Hindi
प्रमुख काव्य संग्रह
मधुशाला | 1935 ई. |
मधुबाला | 1938 ई. |
मधुकलश | 1938 ई. |
निशा निमंत्रण | 1938 ई. |
एकांत संगीत | 1939 ई. |
आकुल अंतर | 1943 ई. |
संतरंगिणी | 1945 ई. |
मिलन यामिनी | 1950 ई. |
हलाहल | 1950 ई. |
धार के इधर-उधर | 1954 ई. |
प्रणय पत्रिका | 1955 ई. |
आरती और अंगारे | 1958 ई. |
त्रिभंगिमा | 1961 ई. |
चार खेमे चौसठ खूंटे | 1962 ई. |
दो चट्टाने | 1965 ई. |
जाल समेटा | 1973 ई. |
अन्य काव्य संग्रह-
1. 1935 ई. खयाम की मधुशाला
डायरी-
1. प्रवासी की डायरी
सम्पूर्ण काव्य
1. 1983 ई. बच्चन ग्रन्थावली 10 खण्ड में
निबंध संग्रह-
1. नए पुराने झरोखे
2. टूटी-फूटी कङियाँ
अनुवाद कार्य-
1. हैमलैट
2. मैकबैथ
3. जनगीता- (भगवद गीता का दोहे चौपाई में अनुवाद)
4. 64 रूसी कविता
Harivansh Rai Bachchan in Hindi
- क्षयी रोमांस का कवि-बच्चन
- जनता के कवि (बच्चन का उपमान)
- बंगाल के काल और ’महात्मा गांधी की हत्या’ पर लिखी कविताएं सर्वथा कवित्व रहित है।
- खादी के फूल– पंत तथा बच्चन द्वारा रचित रचना
- हालावाद के धर्मग्रंथ- मधुशाला 1935, मधुबाला, मधुकलश
- हाऊस आफ वाइन 1938 (लंदन) मधुशाला का अंग्रेजी अनुवाद।
- अनुवादकर्ता- 1. मार्जरी बोल्टन, 2. रामस्वरूप व्यास
- चाँद पत्रिका में भी कार्य किया।
- ’मदारी’ हास्य (पत्रिका) के सम्पादक रहे।
- प्रथम पत्नी श्यामा की मृत्यु पर ’निशा निमंत्रण’ लिखी।
- दूसरी पत्नी डाॅ. तेजी सिंह (मनोविज्ञान प्रोफेसर)
- ’सिसिफस बरक्स हनुमान’ लम्बी कविता।
प्रमुख पंक्तियाँ(Harivansh Rai Bachchan in Hindi)
1. ’’पूर्व चले की बटोही, बाट की पहचान कर लो।’’
2. ’’प्रार्थना मतकर मतकर मतकर, मनुष्य पराजय के स्मारक है, मठ मस्जिद गिरिजाधर।’’
3. ’’है चिता की राख कर में माँगनी सिंदूर दुनिया’’
4. ’’गाता हूँ अपनी लय भाषा सीख इलाहाबाद नगर से’’
5. ’’कोई न खङी बोली लिखना आरंभ करे अंदाज मीर का बेजाने बेपहंचाने’’
6. ’’मुझमें देवत्व है जहाँ पर, झुक जाएगा लोक वहाँ पर’’
7. ’’है अंधेरी रात, पर दीवा जलाना कब माना है’’
8. ’’कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा मधुकलश’’
9. ’’वृद्ध जग को क्यों अखरती है क्षणिक मेरी जवानी’’
10. ’’मै जग जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ।’’
- निराला के देहांत के पश्चात उनके मृत शरीर का चित्र देखने पर बच्चन द्वारा लिखित कविता-
’’मरा
मैनें गरूङ देखा
गगन का अभिमान
धराशायी, धूल धूसर, म्लान।’’ – (मरण काले)
प्रो. कुमुद शर्मा के अनुसार-
’’इन्होंने (बच्चन) खङी बोली हिन्दी कविता को ही एक नया आयाम नहीं दिया बल्कि हिन्दी का आत्म कथा को भी एक नया मोङ दिया, जिसमें ’कविता, गद्य की गंगा और जीवनी की जमुना एक साथ उपस्थित हुई।’
प्रो. कुमुद शर्मा के अनुसार-
’’ ’मधुशाला’ प्रकाशित होने के बाद इसे शाब्दिक, सांस्कृतिक और तान्त्रिक रूप में बच्चन की भैरवी कहा गया।’’
अब हम इनके बारे विस्तृत जानकारी भी पढ़ लेते है ….
Harivansh Rai Bachchan Biography in Hindi
प्रगति-प्रयोग काल के पूर्वाभास के तो सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि है ही स्वच्छन्दतावादोत्तर काल के श्रेष्ठ कवियों में भी एक कवि है। स्वच्छन्दतावाद-काल की रचनाओं का औदात्य और गौरव स्वच्छन्दतावादोत्तर काल के न तो किसी कवित में मिलेगा और न समस्त रचनाओं में। पर इतिहास के विकास के क्रम में बच्चन ने कविता को जमीन पर उतारा, उसे इहलौकिक जीवन से सम्बद्ध किया और उसकी सीमा का विस्तार भी किया।
स्वच्छन्दतावादी कवियों ने भी अपने निजी दुःख को विस्तारर दिया है। निराला को छोङकर शेष कवियों में वह विस्तार लोक की सीमा का अतिक्रमण कर वायवीय हो जाता है। पर बच्चन भावनापरक होते हुए भी उसे धरती पर ही कायम रखते है।
बच्चन को प्रसिद्धि ’मधुशाला’ के गायन से मिली, जिसे वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक कवि सम्मेलन (1933) ने आद्यन्त सुना चुके थे। उसके आधार पर उन्हें ’हालावाद’ का प्रवर्तक भी कहा जाने लगा। हिन्दी में इस तरह को कोई वाद नहीं चला। यदि हालावाद नाम देना ही हो तो इस प्रवृत्ति का श्रेय बालकृष्ण शर्मा ’नवीन’ और भगवतीचरण वर्मा को देना चाहिए।
इसके पहले ’नवीन’, ’साकी भर-भर ला तू अपनी हाला’ और भगवतीचरण वर्मा ’बस मत कह देना अरे पिलाने वाले, हम नहीं विमुख हो जाने वाले’ लिख रहे थे।
Harivansh Rai Bachchan Poems
इसमें सन्देह नहीं कि मधुशाला (1933), मधुबाला (1936) और मधुकलश (1937) पर उमरखैयाम की गहरी छाप है। उसकी रुबाइयों का उनका किया अनुवाद भी 1935 में छपा। किन्तु इसके पहले मैथिलीशरण गुप्त, गिरिधर शर्मा के अनुवाद सन् 1931 तथा कैलाशप्रसाद पाठ का अनुवाद 1932 में प्रकाशित हो चुके थे। खैयाम के प्रभाव को बच्चन ने ’ये पुराने झरोखे’ में स्वयं स्वीकार किया है। खैयाम और बच्चन का अन्तर यह है कि पहले का क्षण-वाद मृत्युभीति से पीङित है तो दूसरे का मृत्यु के अन्तर्भाव में उल्लसित।
’मधुशाला’ की लोकप्रियता का एक कारण और है कि उसमें स्वच्छन्दतावादी निषेध का निषेध है। ’मधुबाला’ और ’मधुकलश’ में वह जीवन-जगत की समस्याओं से निकट का साक्षात्कार करता है। इस दृष्टि से मधुबाला की ’प्याला’, ’हाला’, ’इसपार-उसपार’ और ’पगध्वनि’ द्रष्टव्य है। प्रथम दोनों कविताएँ कवि का भी परिचय देती है- ’मिट्टी का तन, मस्ती का मन। क्षण भर जीवन-मेरा परिचय।’ ’उल्लास-चपल, उन्माद तरल, प्रतिपल पागल-मेरा परिचय। ’इस पर उस पार’ पंत के परिवर्तन की याद दिलाती है जिसके झंझावाद में परिवर्तन खो गया है किन्तु बच्चन का इस पार उस पार के परिप्रेक्ष्य में सहज और मानवीय है।
हरिवंशराय बच्चन
’मधुकलश’ में लहरों से लङने का आमन्त्रण स्वीकार करते हुए कवि कहता है-
’डूबात मैं किन्तु उतराता
सदा व्यक्तित्व मेरा
हों युवक डूबे भले ही
कभी डूबा न यौवन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,
आज लहरों में निमन्त्रण।
यौवन के प्रति गहन आस्था जीवन के प्रति आस्था है। वह मधुबाला में लिख चुका है-
’यह अपनी कागज की नावें
तट पर बाँधो, आगे न बढ़ो
ये तुम्हें डूबा देंगी गल कर
हे श्वेत-केश-धर कर्णधार।’
बच्चन का विकास का प्रथम चरण 1933 से 1947 तक है तो द्वितीय चरण 1947 से आज तक। इस अवधि में उनकी तीन प्रमुख कृतियाँ प्रकाशित हुई- निशा निमन्त्रण (1938), एंकान्त संगीत (1939) और आकुल अन्तर (1943)। अधिकांश लोगों की दृष्टि में ’निशा निमन्त्रण’ उनकी सर्वोत्तम रचना है। ’मधुकलश’ के प्रथम गीत का स्वर है आज भरा जीवन मुझमें, है आज भरी मेरी गागर’ यहाँ चुक जाता है। उसके स्थान पर वेदना, निराशा और अकेलेपन की काली घटा घिर आती है।
हरिवंशराय बच्चन
ये रचनाएँ पत्नी की मृत्यु से उद्भूत कवि के गम्भीर उद्गार है। इन्हें प्रणयगीत नहीं कहा जा सकता और न विरहगीत। शास्त्रीय शब्दावली में ये शोकगीत (एलेजी) है। शोकगीत का अनुभूत्यात्मक गाम्भीर्य जो कवि को उदारता की ओर ले जाता है और निश्चय ही अत्यन्त प्रभावशाली बन पङा है। इसके साथ ही निराला का एक शोकगीत (एलेजी) है।
शोकगीत का अनभूत्यात्मक गाम्भीर्य जो कवि को उदारता की ओर ले जाता है निश्चय ही अत्यन्त प्रभावशाली बन पङा है। इसके साथ ही निराला का एक शोकगीत भी मानस क्षितिज पर उभरता है। जो अपने सामाजिक सन्दर्भों और संघर्षों के कारण हिन्दी साहित्य में अद्वितीय हो गया है। बच्चन के इस शोकगीत में सामाजिक सन्दर्भ-संघर्ष प्रायः नहीं है। ऐसी स्थिति में इसका प्रभाव एक हद तक पङकर रह जाता है।
इस शोकगीत में चिङियों के नीङ, संध्या, पतझङ, पपीहा, उडु, चाँदनी आदि के माध्यम से कवि अपनी दुःखाभिव्यक्ति करता है। ये सभी प्रतीक पुराने हैं किन्तु उन्हें पूरे सन्दर्भ में कहीं विसंगति और कहीं सादृश्य के परिप्रेक्ष्य में रखकर अनुभूति को गहरा कर दिया गया है-
बच्चे प्रत्याक्षा में होंगे,
नीङो से झाँक रहे होंगे-
यह ध्यान परों में चिङियों के भरता कितनी चंचलता है!
अन्तरिक्ष में आकुल-आतुर
कभी इधर उङ कभी उधर उङ,
पंथ नीङ का खोज रहा है पिछङा पंछी एक अकेला!
नीलम से पल्लव टूट गए,
मरकत से साथी छूट गए
अटके फिर भी दो पीत पात जीवन-डाली को थाम सखे!
चिङियों की नीङ में पहुँचने की आतुरता, बच्चों की सुधियाँ कवि को बहुत निरीह और अकेला बना देती है क्योंकि उसका नीङ नष्ट हो चुका है। फिर भी वह कहीं ईष्यालु नहीं है- ’मत देख नजर लग जायेगी, यह चिङियों का सुखधाम, सखे।’ यही दृष्टि उसे मानवीय बना देती है। पीत-पातों का जीवन डाली थाम कर लटके रहना इस प्रकार की आस्था ही है।
हरिवंशराय बच्चन
’एकान्त-संगीत’ में वह अपनी वेदना से उकेरने की कोशिश करता है। इसमें वह प्रश्न पूछता है- ’अस्त जो मेरा सितारा था हुआ, फिर जगमगाया ? पूछता, पाता न उत्तर।’ फिर भी वह कहता है- ’क्षतशीश मगर नतशीश नहीं।’ वह अपना आन्तरिक बल घनीभूत करता हुआ करता है-
अग्नि पथ ! ⋅अग्नि पथ ! अग्नि पथ!
वृक्ष हो भले खङे,
हो घने हो बङे,
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!
यह महान दृश्य है-
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
झुकी हुई अभिमानी गर्दन
बन्धे हाथ निष्प्रभ लोचन!
यह मनुष्य का चित्र नहीं, पशु का है रे कायर!
हरिवंशराय बच्चन
’निशा निमन्त्रण’ में आत्मान्वेषण की जो प्रक्रिया आरम्भ हुई तो वह एकान्त संगीत में आकर राह पकङ लेती है। लेकिन अभी उसकी खोज जारी है। ’आकुल अन्तर’ में वह लिखता है-
’मैं खोज रहा हूँ, अपना पथ
अपनी शंका समाधान
चाँद सितारे मिलकर गाओ
इतने मत उन्मत्त बनो’
में उसे मार्ग मिल जाता है। ’जिसके आगे झंझा रुकते’ में वह कहता है-
’जीवन में जो कुछ बचता है
उसका भी है कुछ आकर्षण।’
सतरंगिनी (1945) से मिलनयामिनी(1955), प्रणयपत्रिका (1955) तक इनके विकास का अगला चरण है। इस बीच ’बंगाल का काल’ (1946), हलाहल (1946), ’सूत की माला’ (1948) और खादी के फूल (1948) जैसी अनुभूति शून्य सामाजिक-राजनीतिक रचनाएँ भी लिखी गई।
’सतरंगिनी’ में उसे मार्ग मिल जाता है-
’हे अँधेरी रात पर
दीवा जलाना कब मना है
जो बीत गई वह बात गई
नीङ का निर्माण फिर-फिर
नेह का आवाह्न फिर-फिर’
से यह स्पष्ट हो जाता है। ’मिलनयामिनी’ और ’प्रणयपत्रिका’ में मिलनोत्सुक गीत है।
हरिवंशराय बच्चन (Harivansh rai bachchan poems)
धार के इधर-उधर (1957), आरती और अंगारे (1958), और बुद्ध नाचघर (1958), त्रिभंगिमा (1961), चार खेमे चैंसठ खूँटे (1962) आदि में उनकी विषय-वस्तु व्यापक हो गई है। त्रिभंगिमा और चैंसठ खूँटे में ग्राम्यगीतों की सोंधी लय है। ’दो चट्टानें’ (1965) में ’सिसिफस बरक्स हनुमान’ नामक लम्बी रचना में ’येट्स की तरह’ मिथक निर्मित करने का सफल प्रयास दिखाई देगा।
बच्चन के सम्पूर्ण काव्य की विशेषता है कि वे (बंगाल का काल सूत की माला आदि को छोङकर) कहीं भी एक स्तर के नीचे नहीं जाते। भाषा और कथ्य में कहीं विक्षेप नहीं पङता। बच्चन की भाषा, वाक्य-विन्यास को आगे चलकर अधिकांश कवियों ने, बिना ऋण स्वीकार के, अपना आदर्श माना है।
आत्म परिचय(व्याख्या सहित)
आत्म परिचय- हरिवंश राय बच्चन द्वारा रचित ’आत्म-परिचय’ कविता ’निशा निमंत्रण’ से संकलित है। इस गीत में यह प्रतिपादित किया गया है कि अपने को जानना दुनिया को जानने से कठिन है। समाज से व्यक्ति का सम्बन्ध खट्टा-मीठा तो होती ही है, जग-जीवन से पूरी तरह निरपेक्ष रहना संभव नहीं है। व्यक्ति को चाहे दूसरों के आक्षेप कष्टकारी लगे, परन्तु अपनी अस्मिता, अपनी पहचान का उत्स, उसका परिवेश ही उसकी दुनिया है। सांसारिक द्विधात्मक सम्बन्धों के रहते हुए भी व्यक्ति जीवन में सामंजस्य स्थापित कर सकता है।
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ !
·मैं स्नहे-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ !
व्याख्या-
कवि कहता है कि मैं इस सांसारिक जीवन का भारत अपने ऊपर लिये हुए फिरता रहता हूँ। इस तरह की विवशता के बावजूद मेरे जीवन में प्यार-प्रेम सदा बना हुआ है। किसी प्रिय ने मेरे हृदय की भावनाओं का स्पर्श करके (हृदय रूपी वीणा के तारों से) इसे झंकृत कर दिया है इस तरह मैं अपनी साँसों के दो तार लिये हुए जग-जीवन में फिरता रहता हूँ।
कवि बच्चन कहते है कि मैं प्रेमरूपी शराब को पीकर मस्त रहता हूँ। इसी मस्ती में इस बात का विचार कभी नहीं करता हूँ कि लोग मेरे सम्बन्ध में क्या कहते है। मैं इस बात की चिन्ता नहीं करता हूँ। यह संसार तो उन्हें पूछता है जो उनके कहने पर चलते है, उनके अनुसार गाते है; किन्तु मैं अपने मन की भावनाओं के अनुसार गाता हूँ तथा अपने ही मनोभावों को अभिव्यक्ति देता हूँ।
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ !
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजा पर मस्त बहा करता हूँ !
व्याख्या-
कवि कहता है क मैं इस संसार के बारे में अपने हृदय में नये-नये भाव रखता हूँ, मैं उन्हीं मनोभावों को लेकर उङता-घुमङता रहता हूँ। मैं किसी अन्य के इशारे पर नहीं चलता, मैं अपने हृदय की भावना को ही श्रेष्ठ भेंट मानकर अपनाता रहता हूँ। मुझे यह सारा संसार अधूरा लगता है, इसमें प्रेम का अभाव-सा है। यह इसी कारण मुझे अच्छा नहीं लगता है। मेरे मन में प्रेममय सुन्दर सपनों का संसार है और उसी को लेकर मैं आगे बढ़ता रहता हूँ अर्थात् मैं अपने अनुसार प्रेममय संसार की रचना करना चाहता हूँ।
कवि कहता है कि मेरे हृदय में प्रेम की अग्नि जलती रहती है और मैं उसी की आँच से स्वयं तपा करता हूँ। कवि कहता है कि मैं प्रेम-दीवानगी में मस्त होकर जीवन में सुख-दुख दोनों दशाओं में मग्न रहता हूँ। यह संसार विपदाओं का सागर है, मैं इसे प्रेमरूपी नाव से पार करना चाहता हूँ। इसलिए भव-सागर की लहरों पर प्रेम की उमंग और मस्ती के साथ बहता रहता हूँ। इस तरह मैं मदमस्त जीवन-नाव से
संसार-सागर के किनारे लग जाता हूँ।
मैं योवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ !
का यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना ?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना !
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे ?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना !
व्याख्या-
कवि अपने सम्बन्ध में कहता है कि मैं जवानी की मस्ती में रहता हूँ, मेरे ऊपर प्रेम की अत्यधिक सनक सवार रहती है। इस दीवानगी में मुझे कदम-कदम पर निराशा भी मिलती है, अर्थात् दुःख विषाद की भावना विद्यमान रहती है। इससे मेरी मनःस्थिति बाहर से तो हँसते हुए अर्थात् प्रसन्नचित रहती है; परन्तु अन्दर-ही-अन्दर रुलाती रहती है। इस स्थिति का मूल कारण यह है कि मैं अपने हृदय में किसी प्रिय की मधुर स्मृति बसाए हुए हूँ और हर समय उसकी याद करता रहता हूँ और उसके न मिलने से दुःखी हो जाता हूँ।
कवि कहता है कि इस संसार को जानने के लिए अनेक प्रयत्न किये, सबने सत्य को जानने की कोशिश की, परन्तु जीवन-सत्य को कोई नहीं जान पाया। इस तरह जिसे भी देखों वही नादानी कर रहा है। इस संसार में जिसे जहाँ पर भी धन, वैभव और भोग-सामग्री मिल जाती है, वह वहीं पर दाना चुगने लगता है अर्थात् स्वार्थ पूरा करने लगता है; परन्तु कवि की दृष्टि में ऐसे लोग मूर्ख होते है, क्योंकि वे जान-बूझकर सांसारिक लाभ-मोह के चक्कर में उलझे रहते है। मैं संसार की इस नादानी को समझ गया हूँ। इसलिए मैं सांसारिकता का पाठ सीख रहा हूँ और सीखे हुए ज्ञान को अर्थात् पुरानी बातों को भूलकर अपने मन के अनुसार चलना सीख रहा हूँ।
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोङा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।
व्याख्या-
कवि कहता है कि मैं भावुक कवि हूँ, जबकि संसारी लोग दुनियादारी निभाने में लगे रहते है, इस कारण मैं और संसार दोनों अलग-अलग है। अतः मेरा और संसार का कोई नाता या सम्बन्ध नहीं है। मेरा तो इस संसार के साथ टकराव-अलगावा चलता रहता है। मैं रोज एक नये संसार की अर्थात् नये आदर्श की रचना करता हूँ। यह संसार जिस धन-समृद्धि को एकत्र करने में लगा रहता है, मैं उसे पूरी तरह ठुकरा देता हूँ। इस तरह मैं कदम-कदम पर इस संसार की प्रवृत्ति को ठुकराता रहता हूँ।
कवि कहता है कि मेरे रोदन में भी प्रेम-भाव छलकता है। मैं अपने गीतों में प्रेम के आँसू बहाता हूँ। मेरी वाणी यद्यपि कोमल और शीतल है, फिर भी उसमें प्रेम की तीव्र ऊष्मा एवं वेदना का ताप है। इस धरती पर राजाओं के विशाल महल विद्यमान है; परन्तु प्रेम की निराशा के कारण मेरा जीवन एक खण्डर जैसा है, फिर भी मैं जीवन रूपी खण्डहर को जन उन महलों पर न्योछावर कर सकता हूँ। मैं अपने हृदय में उसी खण्डहर रूपी प्रेम-प्रासाद को जीवन्त बनाए हुए हूँ।
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पङा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ, एक नया दीवाना !
·मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ !
व्याख्या-
कवि कहता है कि मैं रोया और मेरे हृदय का दुःख करुण शब्दों में व्यक्त हुआ तो संसार गाना (गीत) कहता है। जब मैं प्रेम के आवेग से भरकर पूरे उन्माद से अपने भावों को व्यक्त करता हूँ- मेरे हृदय के भाव शब्दों में फूट पङते है, तब संसार के लोग उसे छन्द कहने लगते है। दुनिया मुझे कवि के रूप में अपनाती है, मुझे व्यर्थ ही सम्मान देती है, वास्तव में तो मैं कवि नहीं हूँ, अपितु प्रेम-दीवाना हूँ, मेरा हृदय प्रेम-दीवानगी से पूर्णतया व्याप्त है।
कवि कहता है कि मैं संसार में प्रेम-दीवानों की तरह विचरण करता हूँ। मैं जहाँ भी जाता हूँ अपनी दीवानगी से सारा वातावरण मस्त से भर देता हूँ। मेरी हार्दिक भावना प्रेम की सम्पूर्ण मस्ती से छायी हुई है। मैं प्रेम और यौवन के गीत गाता हूँ। मेरे गीतों में ऐसी मस्ती है जिसे सुनक लोग झूम उठते है, प्रेम में झुक जाते है और मस्ती में लहराने लगते है। मैं सभी को इसी प्रेम की मस्ती में झूमने का संदेश देता रहता हूँ। लोग मेरे इसी संदेश को गीत समझ लेते है।
जीवन की आपाधापी में
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
आज के इस आर्टिकल से आपको अच्छी जानकारी मिली होगी ……
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जी धन्यवाद
जी बहुत बहुत धन्यवाद्
इस उपयोगी जानकारी के लिए आपका बहुत बहुत आभार सर….