आज की पोस्ट में परीक्षापयोगी तथ्य हिंदी आलोचना से लिए गए है हिंदी आलोचना से जुड़े महत्वपूर्ण कथन दिए गए है
हिंदी आलोचना(Hindi Aalochna)से संबंधित प्रमुख कथन
⇒ ’’चीटीं से लेकर हाथी पर्यन्त पशु, भिक्षुक से लेकर राजा पर्यन्त मनुष्य, बिन्दु से लेकर समुद्र पर्यन्त जल, अनन्त आकाश, अनन्त पृथ्वी, अनन्त पर्वत सभी पर कविता हो सकती है।’’
– आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (रसज्ञ रंजन (1920))
⇒ किसी भी अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहते है।’’
– श्याम सुन्दर दास (रूपक रहस्य)
⇒ ’’हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा, दूसरे देशों की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं।’’
– आचार्य शुक्ल (चिंतामणि भाग-2)
⇒ ’’जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।’’
– आचार्य शुक्ल (रस मीमांसा)
⇒ ’सर्वभूत को आत्मभूत करके अनुभव करना ही काव्य का चरम लक्ष्य है।’’
– आचार्य शुक्ल (काव्य में प्राकृतिक दर्शन)
⇒ जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी ही अधिक होगी, उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी।
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
⇒ ये (घनानन्द) साक्षात् रस-मूर्ति और ब्रज भाषा के प्रधान स्तंभों में है। प्रेम की गूढ़ अन्तर्दशा का उद्घाटन जैसा इनमें है वैसा हिन्दी के अन्य शृंगारी कवि में नहीं।’’
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
⇒ इनका-सा (देव कवि सा) अर्थ सौष्ठव और नवोन्मेष विरले ही कवियों में मिलता है। रीतिकाल के कवियों में से बङे ही प्रगल्भ और प्रतिभासंपन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं।
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
आचार्य शुक्ल के महत्वपूर्ण कथन देखें
⇒ कामायनी में उन्हांेने (प्रसाद ने) नर-जीवन के विकास में भिन्न-भिन्न भावात्मिका वृत्तियों का योग और संघर्ष बङी प्रगल्भ और रमणीय कल्पना द्वारा चित्रित करके मानवता का रसात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है।
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
⇒ संगीत को काव्य और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निराला जी ने किया है।
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
⇒ ’’कविता का संबंध ब्रह्म की व्यक्त सत्ता से है।’’
– आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
⇒ ’’अनूठी से अनूठी उक्ति तभी काव्य हो सकती है, जबकि उसका संबंध कुछ दूर का ही सही हृदय के किसी भाव या वृत्ति से होगा।’’
– आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
⇒ ’’संगीत को काव्य के और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निराला जी ने किया है।’’
– आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
⇒ यथार्थवाद की विशेषता में प्रधान है – लघुता की ओर साहित्यिक दृष्टिपात’’
– जयशंकर प्रसाद
⇒ ’’यथार्थवाद में स्वभावतः दुःख ही प्रधानता और वेदना की अनुभूति आवश्यक है।’’
– जयशंकर प्रसाद
⇒ ’’कविता की भाषा से मनोरंजन तो होता है, परन्तु वह जीवन-संग्राम के काम नहीं आता।’’
– सूर्यकान्त त्रिपाठी ’निराला’
⇒ ’’सत्य अपनी एकता में असीम रहता है, तो सौन्दर्य अपनी अनेकता में अनंत।’’
– महादेवी वर्मा
⇒ ’’राजनीति और साहित्य मात्र अभिव्यक्ति में भिन्न है, उनका मूल है आज का यथार्थ, उसके लक्ष्य, उसके अभिप्रेत, उसके संघर्ष।’’
– मुक्तिबोध
⇒ ’’चरम व्यक्तिवाद ही ’प्रयोगवाद’ का केन्द्र बिन्दु है।’
– डाॅ. नामवर सिंह
⇒ मैंने कला-पक्ष की अवहेलना न करते हुए भी भाव-पक्ष को अधिक मुख्यता दी है।
– बाबू गुलाब राय (अध्ययन और आस्वाद)
⇒ काव्य संसार के प्रति कवि की भाव-प्रधान मानसिक प्रतिक्रियाओं की कल्पना के ढांचे में ढली हुई, श्रेय की प्रेयरूपा प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है।’’
– बाबू गुलाबराय (सिद्धान्त और अध्ययन)
⇒ दमित प्रवृत्तियों के उदात्तीकरण द्वारा ही मनुष्य स्थूल पशुचेतना से ऊपर उठा और मानव में काव्यात्मक सौन्दर्य-चेतना तभी जगी, किसी दूसरे कारण से नहीं।’’
– देखा-परखा, इलाचन्द्र जोशी
⇒ छायावाद और ग्रामीण बोलियों के नये गीत एक ही रस-परिवार के है, सहोदर है। इन गीतों से प्रगतिवाद और प्रयोगवाद फीका लगने लगा है। दोनों बासी हो गये है। ताजगी की दृष्टि से नये गीत ही नयी कविता है।
– वृत्त और विकास, पं. शांति प्रिय द्विवेदी
⇒ साहित्य मानव-जीवन से सीधा उत्पन्न होकर सीधे मानव-जीवन को प्रभावित करता है। साहित्य में उन सारी बातों का जीवन्त विवरण होता है, जिसे मनुष्य ने देखा है, अनुभव किया है, सोचा है और समझा है।’’
– आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (साहित्य सहचर)
⇒ मैं कविता को जीवन तक पहुँचने की सबसे सीधी और सबसे छोटी राह मानता हूँ। यह मस्तिष्क नहीं हृदय की राह है।’’
– रामधारी सिंह दिनकर (अर्द्धनारीश्वर)
⇒ कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न-अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह है।’’
– अज्ञेय (त्रिशंकु)
⇒ ’’कला और विषय वस्तु दोनों ही समान रूप से साहित्य-रचना के लिए निर्णायक महत्त्व की नहीं है। निर्णायक भूमिका हमेशा विषय-वस्तु की ही होती है।’’
– रामविलास शर्मा (प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ)
⇒ ’’शुक्ल जी का आदिकाल वास्तविक मध्यकाल है, हिन्दी जनपदों के इतिहास का ’सामंतकाल’ है। वीरगाथा काल ’रीतिकाल’ का प्रथम उत्थान है। पूर्व मध्यकाल (रीतिकाल) ’रीतिवाद’ का द्वितीय उत्थान है।’’
– रामविलास शर्मा (हिन्दी जाति की समस्या)
⇒ सौन्दर्य कोई निरपेक्ष वस्तु नहीं है। उसका निर्माण भी तो कलाकार की अपनी भावनाओं और धारणाओं के आधार पर हीे होता है।’’
– डाॅ. नगेन्द्र (आलोचक की आस्था)
⇒ ’रस’ एक व्यापक शब्द है, ’वह’ विभावानुभाव व्याभिचारी संयुक्त स्थायी’-अर्थात् परिपाक अवस्था का ही वाचक नहीं है, वरन् उसमें काव्यगत संपूर्ण भाव-सम्पदा का अन्तर्भाव है।’’
– डाॅ. नगेन्द्र (रस सिद्धांत)
⇒ ’’सच्चा कलाकार सौन्दर्य की सृष्टि करने के लिए ही कला की साधना करता है – अपनी भावनाओं, मान्यताओं अथवा विचारों का प्रसार सच्चे कलाकार का उद्देश्य नहीं होता।’’
– डाॅ. नगेन्द्र (आलोचक की आस्था)
⇒ भक्ति-आन्दोलन एक जातीय और जनवादी आन्दोलन हैं।
– रामविलास शर्मा (भारत की भाषा समस्या)
⇒ ’’कला की विषय वस्तु न वेदान्तियों का ब्रह्म है, न हेगेल का निरपेक्ष विचार। मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसके भाव, उसके विचार, उसका सौन्दर्यबोध कला की विषय वस्तु है।’’
– रामविलास शर्मा (आस्था और सौन्दर्य)
⇒ ’’जीवन एक विस्मयकर विभूति है, और मानवीय संबंध और भी विस्मयकर।’’
– अज्ञेय (आत्मनेपद)
⇒ कविता तो कवि की आत्मा का आलोक है, उसके हृदय का रस है, जो बाहर की वस्तु का अवलम्ब लेकर फूट पङती है।
– रामधारी सिंह दिनकर (मिट्टी की ओर)
⇒ ’’साहित्य वस्तुतः मनुष्य का वह उच्छलित आनन्द है जो उसके अंतर में अँटाये नहीं अट सका था।’’
– हजारी प्रसाद द्विवेदी (ज्ञान शिखा)
⇒ मनुष्य की सीमित बुद्धि के बाहर, मानव के चेतन तत्त्व से संबद्ध, ज्ञान की सीमा से परे कोई भी शक्ति है जिससे समस्त सृष्टि शासित है।’’
– भगवती चरण वर्मा (साहित्य के सिद्धान्त तथा रूप)
⇒ सौन्दर्य को हम वस्तुगत गुणों वा रूपों का ऐसा सामंजस्य कह सकते है, जो हमारे भावों में साम्य उत्पन्न कर हमको प्रसन्नता प्रदान करे तथा हमको तन्मय कर ले। सौन्दर्य रस का वस्तुगत पक्ष है।’’
– बाबू गुलाबराय [सिद्धान्त और अध्ययन]
⇒ कला कलाकार के आनन्द की श्रेय और प्रेय तथा आदर्श को समन्वित करने वाली प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है।’’
– बाबू गुलाब राय
⇒ ’’नयी कविता में मुक्तिबोध की स्थिति वही है, जो छायावाद में निराला की थी।’’
– डाॅ. नामवर सिंह
⇒ ’’मुक्तिबोध की कविता अदभुत संकेतों से भरी, जिज्ञासाओं से अस्थिर कमी दूर से ही शोर मचाती कभी कानों में चुपचाप राज की बातें कहते चलती है।’’
– शमशेर बहादुर सिंह
⇒ ’’भावना, ज्ञान और कर्म जब एक सम पर मिलते हैं तभी युग प्रवर्तक साहित्यकार प्राप्त होता है। ’’
– महादेवी वर्मा
⇒ साहित्य का उद्देश्य सार्वदेशिक और सार्वकालिक होना चाहिए। हमें अपने साहित्य का उद्देश्य सार्वभौमिक करना है, संकीर्ण एकदेशीय नहीं।’’
– सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
⇒ ’’कविता की भाषा चित्रात्मक होनी चाहिए। काव्य में शब्द और अर्थ का अभिन्न संबंध होता है तथा भावों की अभिव्यक्ति और भाषा सौष्ठव मुक्त छन्द में अधिक सुगमता से व्यक्त किया जा सकता है।’’
– सुमित्रानंदन पंत
⇒ ’’आदर्शवाद जहाँ आकाश है, उच्चता है वहीं यथार्थवाद का विषय पथरीली धरती है लघुता है।’’
– जयशंकर प्रसाद
⇒ ’’यथार्थवाद हमारी दुर्बलताओं, विषमताओं तथा क्रूरताओं का नग्न चित्रण होता है।’’
– प्रेमचंद
⇒ ’’प्राचीन और नवीन का सुन्दर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का विशेष माधुर्य है।’’
– आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
⇒ ’’जगत् अव्यक्त की अभिव्यक्त है, काव्य उस अभिव्यक्ति की अभिव्यक्ति है।’’
– आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
⇒ ’’रस ऐसी वस्ती है, जो अनुभवसिद्ध है, इसके मानने में प्राचीनों की कोई आवश्यकता नहीं, कवि अनुभव में आवे मानिए न आवे मानिए।’’
– भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
⇒ ’छायावाद’ के भीतर माने जाने वाले सब कवियों में प्रकृति के साथ सीधा प्रेम-संबंध पंत जी का ही दिखाई पङता है।
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
⇒ वे (भारतेन्दु) सिद्ध वाणी के अत्यंत-सरस हृदय कवि थे। प्राचीन और नवीन का यही सुन्दर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का विशेष माधुर्य है।
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास )
⇒ अपनी भावनाओं के अनूठे रूप-रंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधङक प्रयोग करने वाला हिन्दी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ।
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
⇒ इनकी (पद्माकर) की मधुर कल्पना ऐसी स्वाभावित और हाव-भावपूर्ण मूर्ति-विधान करती है कि पाठक मानो अनुभूति में मग्न हो जाता है।
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
⇒ केशव को कवि-हृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए।
– आचार्य शुक्ल (हिन्दी साहित्य का इतिहास)
⇒ तुलसी और सूर ऐसे सगुणोपासक भक्त राम और कृष्ण की सौन्दर्य-भावना में मग्न होकर ऐसी मंगलदशा का अनुभव कर गये है, जिसके सामने कैवल्य या मुक्ति की कामना का कहीं पता नहीं लगता।
– आचार्य शुक्ल (चिंतामणि-भाग-1)
⇒ हृदय की अनुभूति ही साहित्य में ’रस’ और ’भाव’ कहलाती है।’’
– चिंतामणि भाग-2, आचार्य शुक्ल
⇒ ’’शब्द-शक्ति, रस और अलंकार, ये विषम-विभाग काव्य-समीक्षा के लिए इतने उपयोगी हैं कि इनको अन्तर्भूत करके संसार की नयी पुरानी सब प्रकार की कविताओं की बहुत ही सूक्ष्म, मार्मिक और स्वच्छ आलोचना हो सकती है।’’
– आचार्य शुक्ल (काव्य में अभिव्यंजनावाद)
⇒ ’’स्थायी साहित्य जीवन की चिरन्तन समस्याओं का समाधान है। मनुष्य मात्र की मनोवृत्तियों, उनकी आशाओं, आकांक्षाओं और उनके भावों, विचारों का यह अक्षय भण्डार है।’’
– श्यामसुन्दर दास
⇒ ’’कवियों का यह काम है कि, वे जिस पात्र अथवा वस्तु का वर्णन करते है, उसका रस अपने अन्तःकरण में लेकर उसे ऐसा शब्द-स्वरूप देते हैं कि उन शब्दों को सुनने से वह रस सुनने वालों के हृदय में जागृत हो जाता है।’’
– महावीर प्रसाद द्विवेदी (रसज्ञ-रंजन)
हिंदी आलोचना के महत्वपूर्ण तथ्य
1. “आलोचना समुच्चय ” आलोचना संग्रह का प्रकाशन किया। ⇒महावीर प्रसाद द्विवेदी
2. मिश्रबंधु विनोद किस काल में लिखा गया ⇒ द्विवेदी युग
3. हिंदी की प्रथम व्यवहारिक स्मीक्षा समाहित ह ⇒सयोंगीता स्वयंवर
4. *देखिये मार्क्सवाद सीखाता ह की हर चीज पर डाउट करो* कथन⇒ रामविलासशर्मा
5. तुलसी को सर्वश्रेष्ठ कवि मानने वाले आलोचक⇒शुक्ल
6. हिंदी के सर्वश्रेष्ठ समालोचक ⇒शुक्ल
7. द्विवेदी युग के साहित्यकारों के दोषो का उदघाटन करने वाले आलोचक⇒नन्ददुलारे वाजपेयी
8. मानवीय मूल्यों में गहन आस्था रखने वाले आलोचक⇒ हजारी प्रसाद द्विवेदी
9. मनुष्यता को साहित्य और रस का पर्याय मानने वाले आलोचक⇒ हजारी प्रसाद द्विवेदी
10. वर्ण भेद के आधार प समीक्षा करने वाले आलोचक⇒डॉ रामविलास शर्मा
11. आ.हजारी प्रसाद द्विवेदी के समर्थक आलोचक⇒डॉ नामवर सिंह
12. फ्रायड के मनोविज्ञान से प्रभावित आलोचक⇒ नगेन्द्र
13. समकालीन समीक्षा की दोनों धारा वस्तुवाद और भाववाद का समन्वय का प्रयास किया है -रामस्वरूप चतुर्वेदी
14. आलोचना के नवीन मानदण्डों की स्थापना करने वाले आलोचक⇒शुक्ल
15. दार्शनिक अनुशासन के आलोचक⇒ डॉ देवराज
हिंदी आलोचना
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