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हिन्दी साहित्य का आधुनिक कालTable of Contents |
हिन्दी गद्य का उद्भव और विकास
भारतेन्दु पूर्व हिन्दी गद्य
भारतेन्दु पूर्व हिन्दी गद्य प्रायः तीन रूपों में मिलता है –
- ब्रजभाषा गद्य
- राजस्थानी गद्य
- खङी बोली गद्य
ब्रजभाषा गद्य
यह कथा, वार्ता, जीवनी, आत्मचरित, टीका तथा अनुवाद के रूप में मिलता है, गोरखनाथ की रचनाओं के बाद ’श्रृंगार रस मण्डन’ (विट्ठलनाथ), अष्टयाम (नाभादास), चौरासी वैष्णव तथा दो सौ वैष्णव की वार्ता में ब्रजभाषा गद्य पुष्ट रूप में दिखाई पङता है, 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ब्रजभाषा गद्य में लिखी गई ’राजनीति’ (लल्लूलाल) तथा ’माधोविलास’ उल्लेखनीय कृतियाँ हैं,
ब्रजभाषा गद्य की क्रमबद्ध परम्परा न होने के कारण उसकी भाषा सुसंगठित और मँजी हुई नहीं है, भाषा में यत्र-तत्र शिथिलता है, सीमित शब्दावली के कारण ब्रज भाषा गद्य नवीन युग की परिस्थितियों और आवश्यकताओं को वहन करने में असमर्थ रहा, अतः ब्रजभाषा गद्य परम्परा का विकास न हो सका।
⇒ राजस्थानी गद्य
राजस्थानी गद्य का आरम्भ 12 वीं शताब्दी से माना गया है, ब्रजभाषा गद्य की अपेक्षा राजस्थानी गद्य परम्परा अधिक समृद्ध और विविध विषय सम्पन्न रही, इसमें दान-पत्रों, पट्टे-परवानों, जैन ग्रंथों, वार्ता तथा राजनीति, इतिहास, काव्यशास्त्र, गणित, ज्योतिष विविध विषयों में रचना हुई, टीका और अनुवाद ग्रंथ भी लिखे, प्रारम्भिक राजस्थानी गद्य संस्कृत की समासयुक्त शैली और अपभ्रंश से प्रभावित है, बाद में वह खङी बोली के निकट आता गया,
राजस्थानी गद्य की भी अपनी सीमाएँ थीं, फलतः वह भी युगानुकूल उपयोगी सिद्ध न हो सका |
खङी बोली गद्य
खङी बोली गद्य के विकास में प्रेस और पत्रकारिता ईसाई मिशनरी, फोर्ट विलियम काॅलेज तथा नवजागरण काल में स्थापित सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं का विशेष योगदान है, 19 वीं शताब्दी तक खङी बोली गद्य पर ब्रज भाषा का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पङता है, उसका रूप मिश्रित, खङी बोली गद्य का प्रारम्भिक रूप ’सुरासुर निर्णय’ (सदासुखराय), ’भाषा योग वशिष्ठ’ (रामप्रसाद निरंजनी), ’नासिकेतोपाख्यान (सदल मिश्र), ’प्रेम सागर’ (लल्लू लाल), ’रानी केतकी की कहानी’ (इंशा अल्ला खां), आदि रचनाओं में मिलता है, इस रचनाओं पर ब्रजभाषा के साथ ही फारसी का भी पर्याप्त प्रभाव है |
अंग्रेजी राज्य में खङी बोली धीरे-धीरे शिक्षा, प्रशासन और अदालत की भाषा बनी, स्वंतत्रता आन्दोलन में खङी बोली की राष्ट्रीय मान्यता मिली, इस तरह भारतेन्दु के समर्थ से ही खङी बोली गद्य ’नए चाल में’ ढलने लगा था |
सन् 1857 की राज्यक्रान्ति और सांस्कृतिक पुनर्जागरण
भारतीय इतिहास में सन् 1857 की राज्य क्रान्ति को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है, इसका केन्द्र बिन्दु यद्यपि उत्तर प्रदेश था, किन्तु इसकी व्यापक प्रतिक्रिया सम्पूर्ण उत्तर भारत अर्थात् हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों में हुई, देश में प्रथम राज्य क्रान्ति के पहले ही सांस्कृतिक पुनर्जागरण की प्रक्रिया चल रही थी, इसका केन्द्र बंगाल था,
प्रेस की स्थापना और पत्रकारिता के उद्भव से विचार-स्वातंत्र्य को प्रोत्साहन मिला था, अंग्रेजी शिक्षा से शिक्षित वर्ग नये-नये पाश्चात्य विचारों से परिचित हो रहा था, ब्रह्म समाज और फोर्ट विलियम काॅलेज की स्थापना हो चुकी थी, कुल मिलाकर देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी, 1857 के सशस्त्र क्रान्ति विद्रोह ने इस प्रक्रिया को और तीव्र कर दिया |
इसी समय हिन्दी जगत् में भारतेन्दु का पदार्पण हुआ, भारतेन्दु ने हिन्दी पत्रकारिता के माध्यम से हिन्दी जगत् में पुनर्जागरण का आन्दोलन तेज कर दिया, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, सनातन धर्म सभा आदि सामाजिक संस्थाओं का प्रभाव जन-जीवन पर पङा, जिससे नई सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना विकसित हुई, मातृभूमि के प्रति और स्वराज का अधिकार राष्ट्रीयता के तत्व बने, स्वदेशी भावना को बल मिला जिससे मातृभाषा के प्रति प्रेम की भावना बढ़ी, खङी बोली हिन्दी धीरे-धीरे उत्तर भारत के पुनर्जागरण की भाषा बनती जा रही थी |
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भारतेन्दु ने 1873 ई. में लिखा – हिन्दी नए चाल में ढली, सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अन्तर्गत सामाजिक कुरीतियों के प्रति सुधार की भावना विकसित हुई, इस तरह राष्ट्रीयता, देशप्रेम, सामाजिक सुधार भावना, स्वदेशी भावना स्वराज पाने की लालसा आदि भावनाएँ हिन्दी साहित्य में खङी बोली हिन्दी के माध्यम से प्रकट होने लगी थीं इस तरह निश्चित ही हिन्दी साहित्य का सर्वथा नया रूप नयी चेतना से सम्पृक्त था |
भारतेन्दु और उनका मण्डल
भारतीय नवजागरण की चेतना को हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम समग्र रूप से प्रतिबिम्बित करने का श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके मण्डल के (समकालीन) लेखकों को जाता है, साहित्य-समाज और देश को लेकर भारतेन्दुयुगीन लेखकों में जितनी गहरी चिन्ता, सक्रियता और संघर्ष दिखाई पङता है, उसके आधार पर रामविलास शर्मा ने उचित ही कहा है कि ’’वास्तव में ऐसा सजीव और चेतन युग एक बार ही आया है |’’
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके मण्डल के प्रमुख लेखकों का संक्षिप्त परिचय और हिन्दी साहित्य में उनके योगदान का मूल्यांकन निम्नलिखित रूप में है –
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850 ई.-1885 ई.)
हिन्दी गद्य के प्रवर्तक भारतेन्दु ने कविता और गद्य की सभी विधाओं में प्रचुर रचना की, उनकी कविताओं में भक्ति और रीति और निरूपण की परम्परा के अवशेष मिलते हैं, साथ ही युगानुकूल कविताएँ राष्ट्रीयता भाव की प्रेरणा भूमि है, सामाजिक कविताओं में सुधारवादी मनोवृत्ति, स्वदेशी भावना और विदेशी शासन के प्रति हास्यपूर्ण व्यंग्य व्यक्त हुआ है |
नाटक, निबन्ध और पत्रकारिता के उन्नयन में भारतेन्दु की विशेष रुचि रही, उन्होंने सत्रह नाटक प्रहसनों की रचना की जिनमें ’अंधेर नगरी’, ’वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ और ’भारत दुर्दशा’ उल्लेखनीय हैं, भारतेन्दु ने नाटकों में अभिनय भी किया तथा अनेक नाट्य मंडलियों की स्थापना कर उन्हें संरक्षण भी दिया, पाश्चात्य ट्रेजडी शैली के दुःखान्त नाटकों की रचना हिन्दी में सर्वप्रथम भारतेन्दु ने ही की थी |
भारतेन्दु ने ’कविवचन सुधा’, ’हरिश्चन्द्र मैगजीन’ तथा ’बालबोधिनी’ पत्र-पत्रिकाएँ निकालकर हिन्दी पत्रकारिता को जनजीवन से जोङा, इन पत्र-पत्रिकाओं में भारतेन्दु ने विविध विषयों पर निबन्ध लिखकर निबन्ध विधा को भी समृद्ध किया, भारतेन्दु ने खङी बोली को हिन्दी गद्य की समर्थ भाषा बनाने में ऐतिहासिक योगदान दिया, रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में ’’हिन्दी गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता मधुर और स्वच्छ रूप दिया, भाषा का निखरा हुआ शिष्ट सामान्य रूप भारतेन्दु की कला के साथ ही प्रकट हुआ, डाॅ. बच्चन ने भारतेन्दुयुगीन गद्य को ’हँसमुख’ गद्य की संज्ञा दी है |
बालकृष्ण भट्ट (1844 ई.-1915 ई.)
भारतेन्दु मण्डल में बालकृष्ण भट्ट का पत्रकार और निबन्धकार के रूप में विशिष्ट स्थान है, उन्हें रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी का ’एडीसन’ कहा है, आत्मव्यंजक, व्यक्तित्व प्रधान कलात्मक शैली के निबन्धों का सूत्रपात बालकृष्ण भट्ट के निबन्धों से ही होता है, भट्ट को व्यावहारिक आलोचना का भी प्रवर्तक कहा जाता है, सतर्क, सजग एवं प्रगतिवादी दृष्टि भट्टजी की आलोचना शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं, भट्टजी ने नाटक और उपन्यासों की भी रचना की, ’नूतनब्रह्मचारी’ और ’सौ अजान एक सुजान’ उपन्यास तथा ’आचार बिडम्बन’ उनका उल्लेखनीय नाटक है |
बालकृष्ण भट्ट की कीर्ति का आधार हिन्दी पत्रकारिता में उनका ऐतिहासिकता योगदान है, उन्होंने ’हिन्दी प्रदीप’ का 33 वर्षों तक सम्पादन-प्रकाशन किया जो स्वयं में कीर्तिमान है, पत्रकार के रूप में बालकृष्ण भट्ट अत्यन्त दृढ़, आत्मसम्मानी और कर्मठ व्यक्ति थे, आर्थिक समस्याओं से जूझते रहने के बावजूद उन्होंने ’हिन्दी प्रदीप’ को अपने दम पर सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का संवाहक बनाए रखा।
प्रताप नारायण मिश्र (1856 ई.-1895 ई.)
प्रताप नारायण मिश्र भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को अपना गुरु और आदर्श मानते थे, इनकी प्रतिभा का उत्कर्ष निबन्ध रचना में दृष्टिगोचर होता है, गम्भीर-से-गम्भीर विषयों से लेकर अति सामान्य विषयों पर भी उन्होंने निबन्ध रचना की, वे हिन्दी गद्य के विशिष्ट शैलीकार हैं, उनके गद्य में सहजता, आत्मीयता और भावानुकूल भाषा शैली का वैशिष्ट्य है, प्रताप नारायण मिश्र के हास्य-व्यंग्य निबन्ध काफी लोकप्रिय हुए |
प्रताप नारायण मिश्र की नाटकों में भी विशेष रुचि थी, उन्होंने ’कलिकौतुक’, ’कलि प्रभाव’ तथा ’हठी हम्मीर’ नाटकों की रचना की, वे पारसी थियेटर में बढ़ती अश्लीलता के विरोध में हिन्दी का रंगमंच स्थापित करना चाहते थे, नाटकों में स्त्री पात्रों का अभिनय करना भी उनका शौक था, प्रताप नारायण मिश्र राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ ही जातीय सम्मान के लिए भी प्रतिबद्ध थे, ’हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान’ नारा उन्होंने ही दिया है |
भारतेन्दु मण्डल में प्रताप नारायण मिश्र के विशिष्ट महत्त्व को बालमुकुन्द गुप्त ने रेखांकित करते हुए लिखा है –
’’उनकी बहुत बातें बाबू हरिश्चन्द्र की सी थी, कितनी ही बातों में यह उनके बराबर और कितनी ही में कम थे, पर एकाध में बढ़कर भी थे, जिस गुण में वे कितनी बार ही भारतेन्दु के बराबर हो जाते थे, वह उनकी काव्यत्व शक्ति और सुन्दर भाषा लिखने की शैली थी, हिन्दी गद्य और पद्य लिखने में हरिश्चन्द्र जैसे तेज, तीखे और बिना किसी लाग-लपेट के लेख लिखा करते थे |
उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी ’प्रेमघन’ (1855 ई.-1922 ई.)
भारतेन्दु मण्डल के प्रतिष्ठित लेखक और भारतेन्दुयुगीन साहित्य निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान, मूलतः कवि प्रेमघन ने कवित्त सवैया छन्द में ब्रजभाषा में भक्ति-श्रृंगार जैसे परम्परा-गत विषयों पर काव्य रचना की, किन्तु खङी बोली का इनका काव्य सामयिक सामाजिक सांस्कृतिक चेतना से ओत-प्रोत है, समस्यापूर्ति में प्रेमघन की विशेष रुचि थी, ’जीर्णजनपद’ नाम से प्रबन्धात्मक काव्य की भी रचना की, साथ ही कजली, होली, लावणी शैली में लोक गीतात्मक कविताएँ भी लिखीं |
प्रेमघन विलक्षण शैली के गद्यकार थे, रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ’’वे गद्य रचना को एक कला के रूप में ग्रहण करने वाले, कलम की कारीगरी समझने वाले लेखक थे,’’ यद्यपि उनके निबन्ध, निबन्ध कम सामयिक टिप्पणियाँ अधिक प्रतीत होती हैं जो उन्हीं के द्वारा प्रकाशित ’आनन्द कादम्बनी’ पत्र में प्रकाशित होती थी, नाटक और आलोचना साहित्य में भी प्रेमघन का महत्त्वपूर्ण योगदान है, ’भारत सौभाग्य’ उनका प्रसिद्ध नाटक है, उनकी आलोचनाएँ व्यक्तिगत रुचि के अनुकूल और कृति के गुण-दोष तक सीमित हैं |
पत्रकार के रूप में प्रेमघन ने ’आनन्द कादम्बिनी’ पत्र सन् 1881 ई. में मिर्जापुर से निकाला था, ’नागरी नीरद’ नाम से साप्ताहिक पत्र भी निकाला |
अम्बिकादत्त व्यास (1848 ई.-1900 ई.)
भारतेन्दु मण्डल के सुप्रतिष्ठित कवि लेखक अम्बिकादत्त्रा व्यास ब्रज भाषा के सफल कवि थे, ’बिहारी सतसई’ के आधार पर लिखी ’बिहारी बिहार’ इनकी प्रसिद्ध काव्य रचना है, अतुकान्त कविता लिखने का भी आपने प्रयास किया, किन्तु सफल न हो सके, भारतेन्दु से प्रभावित होकर अम्बिकादत्त ने ’ललिता’ नाटक की रचना की, दूसरा नाटक ’गोसंकट’ है, दोनों नाटक आधुनिक नाट्य शैली से कोसों दूर है, इनकी गद्य शैली पर पण्डिताऊपन अधिक है, भाषा शैली भी दोषपूर्ण है |
अम्बिकादत्त ने सन् 1884 ई में ’वैष्णव पत्रिका’ नाम से एक पत्र निकाला जो बाद में ’पीयूष प्रवाह’ नाम से चला |
19 वीं शती के उत्तरार्द्ध की हिन्दी पत्रकारिता
19 वीं शती के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध की हिन्दी पत्र पत्रिकाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –
- उदन्त मार्तण्ड – 30 मई, 1826 ई. को कलकत्ता से प्रकाशित, 14 दिसम्बर, 1827 ई. को बन्द हो गया, हिन्दी पत्रकारिता का सर्वप्रथम साप्ताहिक पत्र सम्पादक युगल किशोर शुक्ल।
- बंगदूत – 10 मई, 1829 ई. को कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र सम्पादक राजा राममोहन राय और नीलरतन हालदार।
- बनारस अखबार – जनवरी 1845 ई. में बनारस से प्रकाशित, संचालक राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द, सम्पादक गोविन्द नारायण थत्ते, हिन्दी भाषी प्रदेश का प्रथम समाचार-पत्र।
- सुधाकर – 1850 ई. में हिन्दी-बंगला में बनारस से प्रकाशित, 1853 ई. से यह साप्ताहिक पत्र केवल हिन्दी में प्रकाशित होने लगा।
- बुद्धि प्रकाश – 1852 ई. में आगरा से प्रकाशित/सम्पादक मुंशी सदासुख लाल।
- समाचार सुधावर्षण – जून 1854 ई. में कलकत्ता से प्रकाशित हिन्दी का सर्वप्रथम दैनिक-पत्र।
- प्रजाहितैषी – 1855 ई. में आगरा से प्रकाशित
- पयामे आजादी – 8 फरवरी, 1857 में दिल्ली से पहले उर्दू में फिर हिन्दी में निकला, सम्पादक अजीमुल्ला खाँ।
- कविवचन सुधा – 15 अगस्त, 1867 ई. में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा काशी से प्रकाशित, पहले मासिक फिर 1875 ई. में साप्ताहिक हो गया।
- हरिश्चन्द्र मैगजीन – 15 अक्टूबर, 1873 ई. को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा काशी से प्रकाशित
- बालबोधिनी पत्रिका – 7 जनवरी, 1874 को नारी शिक्षा के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा काशी से प्रकाशित।
- हिन्दी प्रदीप – 1 सितम्बर, 1877 को प्रयाग (इलाहाबाद) से बालकृष्ण भट्ट द्वारा प्रकाशित, 33 वर्षों तक प्रकाशित होता रहा जो एक कीर्तिमान है।
- भारतमित्र – 17 मई, 1878 को कलकत्ता से प्रकाशित 57 वर्षों तक चला।
- सार-सुधानिधि – 13 अप्रैल, 1879 को कलकत्ता प्रकाशित से साप्ताहिक पत्र।
- उचित वक्ता – 7 अगस्त, 1880 को कलकत्ता से साप्ताहिक रूप में प्रकाशित।
- आनन्द कादम्बिनी – 1881 में बदरीनारायण चौधरी ’प्रेमघन’ द्वारा मिर्जापुर से प्रकाशित।
- ब्राह्मण – 1883 में कानपुर से प्रताप नारायण मिश्र द्वारा प्रकाशित।
- पीयूष प्रवाह – 1883 में अम्बिका दत्त व्यास ने काशी से निकाला।
- भारत जीवन – 3 मार्च, 1884 को बाबू रामकृष्ण वर्मा ने काशी से प्रकाशित किया।
- हिन्दोस्थान – 1885 में राजा रामपाल सिंह द्वारा प्रकाशित।
- हिन्दी बंगवासी – 1890 से कलकत्ता से प्रकाशित सम्पादक अमृत लाल चक्रवर्ती।
- साहित्य सुधानिधि – 1 जनवरी, 1893 में देवकीनन्दन खत्री द्वारा मुजफ्फरपुर से निकला।
- नागरीनीरद – 1893 में बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन ने निकाला।
- नागरी प्रचारिणी पत्रिका – 1896 से नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका,
- सरस्वती – 1900 में इलाहाबाद से प्रकाशित, 1903 में इसके सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी हुए।
महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग
हिन्दी साहित्य के सर्वांगीण विकास के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी नवजागरण का जो बीजारोपण किया था, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ’सरस्वती’ के माध्यम से उसे विशाल वटवृक्ष के रूप में साकार किया, आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य के कलात्मक विकास की चिन्ता न करके उसके अभावों की चिन्ता की, ’सरस्वती’ के माध्यम से उन्होंने नवीन साहित्यिक आदर्शों की प्रतिष्ठा की, हिन्दी साहित्य के विविध रूपों और शैलियों का विकास हुआ, गद्य-पद्य में खङी बोली की पूर्ण प्रतिष्ठा का श्रेय महावीर प्रसाद द्विवेदी को जाता है, इसी विशिष्ट अवदान के लिए उन्हें ’युग विधायक’ और ’युग प्रवर्तक’ कहा जाता है।
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ के दो दशकों का काल ’द्विवेदी युग’ के नाम से जाना जाता है, द्विवेदी युग में महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है –
हिन्दी कविता – द्विवेदी युग में हिन्दी कवियों में ब्रजभाषा और श्रृंगारपरक काव्य रचना, समस्या पूर्ति आदि में रुचि बनी हुई थी, सर्वप्रथम द्विवेदीजी ने ब्रजभाषा के स्थान पर खङी बोली में काव्य रचना के लिए अपने युग के कवियों को प्रेरित किया, दूसरे, उन्होंने ’कवि कर्त्तव्य लेख’ द्वारा नए-नए काव्य विषयों पर कविता लिखने का मार्ग प्रशस्त किया, उनका कहना था कि ’’चींटी से लेकर हाथीपर्यन्त पशु, भिक्षुक से लेकर राजापर्यन्त मनुष्य, बिन्दु से लेकर समुद्रपर्यन्त जल, अनन्त पृथ्वी-सभी पर कविता हो सकती है।’’
तीसरी बात, द्विवेदी युग में कविता मनोरंजन के साथ ही ’उचित उपदेश का मर्म’ भी बनी, द्विवेदीयुगीन कवियों ने कविता के इस उच्च आदर्श को आत्मसात् किया, चौथी बात, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ऐतिहासिक व पौराणिक चरित्रों को लेकर सर्वथा नई दृष्टि से प्रबन्ध काव्य रचना के लिए प्रेरित किया, फलतः ’साकेत’, ’प्रिय प्रवास’ जैसे महाकाव्यों की रचना हुई, पाँचवीं बात, द्विवेदीजी की प्रेरणा से हरिऔध ने संस्कृत वृत्तों के आधार पर अतुकान्त छन्द में ’प्रिय प्रवास’ की रचना की, द्विवेदी का मानना था कि ’’छन्द रचना मुख्य नहीं है, मुख्य है कविता और कविता सरस होनी चाहिए।’’
हिन्दी पत्रकारिता – सम्पादक के रूप में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 17 वर्ष तक ’सरस्वती’ का सम्पादन कर हिन्दी साहित्य को सर्वथा नवीन दृष्टि, नयी भाव भंगिमा से सम्पृक्त किया। द्विवेदीजी के प्रोत्साहन और मार्गदर्शन से कवियों और लेखकों की नई पीढ़ी सामने आयी, ’सरस्वती’ में वे सम्पादक कम, कवि शिक्षक अधिक थे |
हिन्दी भाषा – भाषा के क्षेत्र में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने दो महत्त्वपूर्ण कार्य किए पहला, गद्य-पद्य में खङी बोली की समान प्रतिष्ठा, दूसरा, हिन्दी भाषा को व्याकरणसम्मत बनाकर उसको एकरूप बनाना, भाषा परिष्कार में द्विवेदीजी के योगदान की प्रशंसा करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है – ’व्याकरण की शुद्धता और भाषा की सफाई के प्रवर्तक द्विवेदीजी ही थे………. यदि द्विवेदीजी न उठ खङे होते, तो जैसी अव्यवस्थित, व्याकरण विरुद्ध और ऊँट-पटांग भाषा चारों ओर दिखाई देती थी, उसकी परम्परा जल्दी न रुकती |
द्विवेदी युग के प्रमुख कवि और उनकी रचनाओं का परिचय इस प्रकार है –
कवि | रचनाएँ |
महावीर प्रसाद द्विवेदी | कान्यकुब्ज, अबला विलाप |
अयोध्यासिंह उपाध्याय ’हरिऔध’ | प्रियप्रवास, वैदेही वनवास, चुभते चैपदे, रसकलश |
मैथिलीशरण गुप्त | भारत-भारती, जयद्रथ वध, पंचवटी, साकेत, यशोधरा, द्वापर |
जगन्नाथदास रत्नाकर | उद्धव शतक, गंगावतरण, श्रृंगार लहरी |
रामनरेश त्रिपाठी | मिलन, पथिक, मानसी, स्वप्न |
श्रीधर पाठक | कश्मीर सुषमा |
द्विवेदीयुगीन पत्र-पत्रिकाएँ
हितवाणी (1904) | कलकत्ता, सम्पादक रुद्रदत्त शर्मा |
अभ्युदय (1907) | प्रयाग, साप्ताहिक, सम्पादक मदनमोहन मालवीय |
कर्मयोगी (1909) | प्रयाग, मासिक |
केसरी (1908) | बाल गंगाधर तिलक (महाराष्ट्र) |
मर्यादा (1909) | प्रयाग, सम्पादक कृष्णकान्त मालवीय |
प्रताप (1913) | कानपुर, साप्ताहिक, गणेश शंकर विद्यार्थी |
प्रभा (1913) | खण्डवा, मासिक, कालूराम सम्पादक |
Hindi sahitya ka itihas adhunik kal
साहित्य- संस्कृति की प्रमुख पत्रिकाएँ –
सरस्वती (1900) | काशी, सम्पादक देवकी नन्दन खत्री |
समालोचक (1902) | जयपुर, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी |
देवनागर (1907) | कलकत्ता, सम्पादक उमापति शर्मा |
इन्दु (1909) | काशी, सम्पादक अम्बिका प्रसाद गुप्त (सभी मासिक पत्रिकाएँ हैं) |
हिन्दी नवजागरण और ’सरस्वती’
’सरस्वती’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन इलाहाबाद से सन् 1900 में अर्थात् द्विवेदी युग में हुआ था, सन् 1903 से 1920 तक महावीर प्रसाद द्विवेदी इसके सम्पादक रहे, यह अपने युग की हिन्दी भाषा और साहित्य की प्रतिनिधि पत्रिका थी, ’सरस्वती’ का उद्देश्य हिन्दी भाषा क्षेत्र में सांस्कृतिक जागरण करना था, राष्ट्रीय जागरण उसका एक अंग था |
इसलिए उसमें साहित्य तथा हिन्दी भाषा परिष्कार के साथ ही देश की उन्नति और समाज सुधार पर विशेष बल दिया गया, हिन्दी साहित्य को नवजागरण की चेतना से सम्पन्न करने का कार्य ’सरस्वती’ ने निम्नलिखित रूप में किया –
1. साहित्यिक रुचि का परिष्कार – ’सरस्वती’ के माध्यम से द्विवेदीजी ने सामंतवादी साहित्यिक मूल्यों का विरोध किया, तिलस्मी ऐय्यारी उपन्यासों, नायिका भेद वर्णन और समस्यापूर्ति को उन्होंने नैतिकता विरोधी साहित्य माना, ’कवि कर्त्तव्य’ लेख में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि ’’कविता का विषय मनोरंजन के साथ ही उपदेशजनक होना चाहिए।’’ उन्होंने कहा कि कविता के विषय अनन्त है, उन पर भी काव्य रचना होनी चाहिए।
द्विवेदीजी ’साहित्य को ज्ञान राशि का संचित कोश’ मानते थे, अतः ’सरस्वती’ में उन्होंने विज्ञान, इतिहास, पुरातत्व विषयों पर अधुनातन ज्ञानवर्धन सामग्री से पूर्ण लेखों को प्रकाशित कराया, इस तरह गद्य-पद्य के हिन्दी साहित्य को उन्होंने युगानुकूल आधुनिक भावबोध से सम्पन्न किया, इसके लिए उन्होंने काव्य रचना में ब्रजभाषा के प्रयोग का भी विरोध किया, क्योंकि ब्रजभाषा सामंतवादी-रीतिवादी काव्य मूल्यों की संवाहक होने के कारण आधुनिक चेतना को व्यक्त करने में असमर्थ थी, अतुकांत छन्दों में काव्य रचना का सूत्रपात ’सरस्वती’ के माध्यम से ही हुआ जिसकी परिणति निराला की मुक्तछन्द कविता में हुई।
भाषा का परिष्कार – ’सरस्वती’ में प्रकाशित होने वाली रचनाओं की कसौटी भाषा की शुद्धता मानी गई, द्विवेदीजी ने रचनाओं की भाषा में व्याकरण की अशुद्धियों को दूर करके उन्हें व्याकरणसम्मत बनाया, इस तरह भाषा की एकरूपता के लिए ’सरस्वती’ की ऐतिहासिक भूमिका है।
’सरस्वती’ ने खङी बोली को साहित्य की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, अपने युग में ’सरस्वती’ ही एकमात्र ऐसी पत्रिका थी जिसमें ज्ञान-विज्ञान की सामग्री को खङी बोली में प्रकाशित किया जो हिन्दी भाषी प्रदेश में राष्ट्रीय जनजागरण के लिए युगीन आवश्यकता थी। इस तरह ’सरस्वती’ के प्रयासों से खङी बोली हिन्दी ज्ञान-विज्ञान और चिन्तन की भाषा बनी।
मैथिलीशरण गुप्त और राष्ट्रीय काव्य धारा
यद्यपि देश भक्तिपूर्ण राष्ट्रीय काव्य की रचना भारतेन्दु युग में ही होने लगी थी (भारतेन्दु की वाणी का सबसे ऊँचा स्वर देश भक्ति का था – रामचन्द्र शुक्ल), किन्तु भारतेन्दु युग की राष्ट्रीय कविता में वह गहन-गम्भीरता और ओजस्विता नहीं थी जो द्विवेदी युग में दिखाई पङती है, इसके दो प्रमुख कारण हैं – ब्रजभाषा में काव्य रचना दूसरे तत्कालीन युग की परिस्थितियाँ, भारतेन्दु युग के कवियों की राष्ट्र चिन्ता ’’हा हा भारत दुर्दशा देखी न जाई, आवहु सब मिलकर रोबहु भारत भाई,’’ तक सीमित थी, इसके विपरीत मैथिलीशरण गुप्त और अन्य कवियों ने राष्ट्रीय भावों की अभिव्यक्ति कर भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता के प्रति अदम्य लालसा ही नहीं जगाई, बल्कि उसको पाने के लिए जनता को संघर्षरत भी किया।
निश्चय ही इसमें द्विवेदी युग की सामयिक परिस्थितियों का भी विशेष योगदान था, ’स्वराज’ की मांग और स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ हो चुका था, बालगंगाधर तिलक के उद्घोष ’स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ और गांधीजी के राष्ट्रीय क्षितिज पर आने के साथ ही सम्पूर्ण परिवेश राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत हो गया था, ’करो या मरो’, की उद्दाम भावना ने भारतीय जनता को त्याग और बलिदान के लिए प्रेरित किया था, इसी समय जलियाँवाला बाग कांड से अंग्रेजी शासकों के दमन और शोषण के प्रति विद्रोह और आक्रोश सारे देश में फैल गया |
सामयिक राष्ट्रीय घटनाओं की मुखर अभिव्यक्ति अपने समग्र प्रभाव और प्रेरणा स्रोत के रूप में द्विवेदी युग के काव्य में परिलक्षित होती है |
मैथिलीशरण गुप्त (1886-1964 ई.)
मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग की राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना के प्रतिनिधि कवि हैं, रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ’’उनकी रचनाओं में सत्याग्रह, अहिंसा, देशप्रेम, विश्वप्रेम, किसानों व श्रमजीवियों के प्रति प्रेम और सम्मान की झलक पाते है।’’ गुप्तजी की देशप्रेम और राष्ट्रीय चेतना को देखकर गांधीजी ने उन्हें ’राष्ट्रकवि’ कहा था – ’’वे राष्ट्र के कवि हैं, उसी प्रकार, जिस प्रकार राष्ट्र के बनाने से मैं महात्मा बन गया।’’
राष्ट्र कवि के रूप में मैथिलीशरण ’भारत भारती (1912 ई.) से लोकप्रिय हुए, ’भारत भारती’ के मंगलाचरण में कवि किसी देव-देवता की वन्दना न करके देशप्रेम और भाषा प्रेम की स्तुति करता है –
मानस भवन में आर्यजन जिनकी उतारें आरती।
भगवान भारतवर्ष में गूँजें हमारी भारती।।
उत्तर-भारत में राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार में ’भारत भारती’ की ऐतिहासिक भूमिका रही है, मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति विविध रूपों में हुई है, उनके लिए भारत एक भू-खण्ड मात्र नहीं है, बल्कि ’सगुण मूति सर्वेश’ हैं, उन्हें अपनी मातृभूमि पर गर्व है, इसलिए वे ’स्वदेश संगीत’ रचना में अनेक तरह से मातृभूमि की महिमा का गान करते हैं,
’हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी’
जैसी पंक्ति कवि को आत्मचिन्तन और राष्ट्रचिन्तन के लिए प्रेरित करती है, पहले भी हम कह चुके हैं कि मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना के प्रतिनिधि कवि हैं, जन-जन में राष्ट्रीय चेतना के जागरण के लिए मैथिलीशरण ने भारतीय संस्कृति का गौरव गान किया है। ’गुरुकुल’ और ’हिन्दू’ दोनों इस दृष्टिकोण की रचनाएँ हैं,
कुछ लोग मैथिलीशरण गुप्त को ’हिन्दूवादी’ कवि कहते हैं, किन्तु गांधी के आदर्शों और जीवन मूल्यों से प्रभावित मैथिलीशरण गुप्त हिन्दूवादी नहीं, बल्कि मानवतावादी हैं, ’काबा और कर्बला’ में उन्होंने स्पष्ट कहा है, ’’अपने देश में आन्तरिक सुख शान्ति के लिए हमको (हिन्दू -मुसलमान) हिलमिल कर रहना होगा।’’
राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रमुख कवि
माखनलाल चतुर्वेदी (1889 ई.-1968 ई.)
’एक भारतीय आत्मा’ के नाम से लोकप्रिय माखनलाल चतुर्वेदी स्वतंत्रता सेनानी भी थे, वे कई बार जेल भी गए, इसलिए उनकी कविता में त्याग-बलिदान और संघर्ष की आवेगमयी भावना दिखाई पङती है, राष्ट्रप्रेम, आत्मोत्सर्ग इनके काव्य की मूल भावना है, ’हिम किरीटनी’ और ’हिम तरंगिणी’ माखनलाल के राष्ट्रीय चेतना के उल्लेखनीय काव्य संग्रह हैं |
’कैदी और कोकिला’ शीर्षक कविता में माखनलाल ने जेल-जीवन की अपनी अनुभूतियों और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विद्रोह के प्रति अपनी संघर्ष भावना को व्यक्त किया है –
क्या ? देख न सकतीं जंजीरों का गहना।
हथकङियाँ क्यों ? यह ब्रिटिश राज्य का गहना।।
कोल्हू की चर्रक चूँ ? जीवन की तान।
मिट्टी पर लिखे अंगुलियों ने क्या गान ?
हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जुआँ।
खाली करता हूँ ब्रिटिश अकङ का कूआँ।।
सियाराम शरण गुप्त (1895 ई.’-1963 ई.)
मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई सियारामशरण गुप्त पर गांधीवाद का विशेष प्रभाव है, इसलिए इनकी रचनाओं में अहिंसा, सत्य, करुणा, विश्वशान्ति, बन्धुत्व आदि गांधीवादी मूल्यों की गहरी अभिव्यक्ति हुई है, भाषा-शैली सरस और सरल है, ’आर्द्रा ’, ’खादी की चादर’, ’आत्मोत्सर्ग’, ’उन्मुक्त’, ’जयहिन्द’, ’नोआखली’ आदि सियारामशरण गुप्त की प्रसिद्ध रचनाएँ है।
’’वास्तव में गुप्तजी मानवीय संस्कृति के कवि हैं, उनमें न कल्पना का उद्वेग है न भावों का आवेग, उनकी रचनाएँ सर्वत्र एक प्रकार के चिन्तन, आस्था विश्वासों से भरी हैं जो उनकी अपनी साधना और गांधीजी के साध्य-साधन की पवित्रता की गूँज से मण्डित हैं।’’
बालकृष्ण शर्मा ’नवीन’ (1897 ई.-1960 ई.)
’नवीन’ उपनाम से लोकप्रिय बालकृष्ण शर्मा देश की राजनीति में सक्रिय रूप से सम्बद्ध रहे हैं, हिन्दी की राष्ट्रीय काव्य धारा को आगे बढ़ाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, वे राष्ट्रीय वीर काव्य के मुख्य कवि हैं, देश के नवयुवकों को स्वतंत्रता की बलिवेदी पर मर-मिटने का आह्वान ’नवीनजी’ इस प्रकार करते हैं –
है बलिवेदी, सखे प्रज्ज्वलित माँग रही ईंधन क्षण-क्षण,
आओ युवको, लगा दो तुम अपने यौवन का ईंधन।
नवीन की कविताओं में क्रान्ति के स्वर भी हैं – ’’कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए।’’ ’कुंकुम’, ’उर्मिला’, ’अपलक’, ’रश्मिरेखा’ इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ है।
सुभद्राकुमारी चैहान (1905 ई.-1948 ई.)
’खूब लङी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी’ – कविता की लोकप्रिय कवयित्री सुभद्रा कुमारी चैहान राष्ट्रीय काव्यधारा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं, इन्होंने असहयोग आन्दोलन में भाग लेने वाले वीरों पर प्रभावशाली काव्य रचना की है, इनकी कविताएँ ’त्रिधारा’ और ’मुकुल’ काव्य संग्रह में संकलित हैं, ’झाँसी की रानी’ कविता को अंग्रेजी ने जब्त कर लिया था।
रामनरेश त्रिपाठी (1881 ई.-1962 ई.)
रामनरेश त्रिपाठी स्वच्छन्तावादी भावधारा के कवि हैं, किन्तु देशप्रेम तथा राष्ट्रीयता इनकी रचना का मुख्य विषय रहे हैं, वे राष्ट्रीय भावनाओं के गायक के रूप में लोकप्रिय रहे हैं, ’मिलन’, ’पथिक’, ’मानसी’ और ’स्वप्न’ इनके कविता संग्रह हैं, इनमें देशभक्ति की भावनाओं का समावेश सरसता से हुआ है।
स्वच्छन्दतावाद और उसके प्रमुख कवि
अंग्रेजी के रोमाण्टिसिज्म का हिन्दी अनुवाद स्वच्छन्दतावाद सामान्यतः साहित्य की विशिष्ट प्रवृत्ति का द्योतक शब्द है, इस प्रवृत्ति को परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है –
’’साहित्यिक उदारवाद ही स्वच्छन्दतावाद है अर्थात् शिष्ट और क्लैसिक साहित्य परिपाटी के विरोध में खङी होने वाली विचारधारा को स्वच्छन्दतावाद कहा जा सकता है।’’
’रोमाण्टिसिज्म’ शब्द का पहले-पहल प्रयोग 19 वीं शताब्दी के अंग्रेजी काव्य के लिए किया गया जिसमें वर्डस्-वर्थ, शेली, कीट्स बायरन आदि की काव्य रचनाएँ आती हैं, स्वच्छन्दतावाद की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
1. स्वच्छन्द भाव का प्रकृति प्रेम
2. देशप्रेम
3. उदार मानवतावादी दृष्टिकोण
4. एकान्त प्रणय भावना
5. मुक्त और स्वच्छन्द काव्य अभिव्यक्ति शैली
हिन्दी साहित्य में छायावाद के पूर्व की कविता को स्वच्छन्दतावादी काव्य कहा गया है जिसका प्रवर्तक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने श्रीधर पाठक को माना है, यद्यपि डाॅ. बच्चन सिंह ने ’हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास’ में सम्पूर्ण छायावादी काव्य को ही स्वच्छन्दतावादी काव्य कहा है, छायावाद के स्थान पर स्वच्छन्दतावाद नाम के प्रयोग में उनका मुख्य तर्क है कि ’’इससे इस काल के साहित्य का सम्बन्ध अन्य भारतीय साहित्य और भारतीयेत्तर साहित्य के स्वच्छन्दतावादी आन्दोलनों से जुङ जाता है।’’
इसमें संदेह नहीं कि छायावादी कवि अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावादी आन्दोलनों से प्रभावित थे, छायावादी कवियों के विद्रोह का आधार वैयक्तिक स्वतंत्रता थी, अपनी विचार पद्धति और काव्यरूपविधान-दोनों के लिए ही छायावाद स्वच्छन्दतावाद का ऋणी है, तो भी छायावाद युग के पूर्व और उसके बाद भी चलने वाली एक विशिष्ट काव्यधारा के लिए स्वच्छन्दतावाद का प्रयोग रूढ़ हो गया है – छायावादी काव्य के लिए नहीं।
हिन्दी कविता की स्वच्छन्दतावादी धारा के प्रमुख कवि इस प्रकार हैं –
1. श्रीधर पाठक – इन्हें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्वच्छन्दतावादी हिन्दी कविता का प्रवर्तक माना है, उनकी कविताओं में स्वच्छन्दतावाद के दर्शन पहली बार हुए, खङी बोली में रचित श्रीधर पाठक की कविताएँ आधुनिक हिंदी कविता का शुभारम्भ करती हैं, ’कश्मीर सुषमा’ (1904 ई.) में श्रीधर पाठक ने पहली बार प्रकृति के परम्परागत उद्दीपन वर्णन शैली से विद्रोह कर प्राकृतिक सौन्दर्य का उन्मुक्त और स्वच्छन्द वर्णन किया है, उनका प्रकृति वर्णन अपनी समग्रता में अनूठा है-
प्रकृति यहाँ एकान्त बैठि निज रूप सँवारति।
पल-पल पलटति वेष छनिक छवि छिन-छिन धारति।।
श्रीधर पाठक की प्रकृति वर्णन पद्धति छायावाद में पूर्ण विकसित होती है।
2. मुकुटधर पाण्डे – लोचन प्रसाद पाण्डे (’छायावाद’ शब्द के प्रथम प्रयोक्ता) के अनुज मुकुटधर पाण्डे मानवीय मूल्यों के कवि हैं, इस सन्दर्भ में उनकी कविताएँ द्विवेदीयुगीन उपदेशात्मकता के बजाय आन्तरिक संवेदना से पूर्ण हैं, उनकी कविता इतिवृत्त वर्णन प्रधान न होकर भावप्रवण है, जो स्वच्छन्दतावाद की प्रमुख विशेषता है, इनके काव्य में छायावादी काव्य प्रवृत्तियों का पूर्वाभास मिलता है, ’पूजा फूल’ मुकुटधर पाण्डे का प्रथम काव्य संग्रह है, ’कानन-कुसुम’ और ’शैलबाला’ उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं, रामचन्द्र शुक्ल ने इन्हें ’नयी काव्य धारा’ (छायावाद) का प्रवर्तक माना है।
3. रामनरेश त्रिपाठी – आप स्वच्छन्द भावधारा के प्रतिष्ठित कवि हैं, देशप्रेम, राष्ट्रीय चेतना तथा प्रकृति चित्रण रामनरेश त्रिपाठी की काव्य रचना के मुख्य विषय रहे हैं, गहन प्रणय भावना इनके प्रेम वर्णन की मुख्य विशेषता है, प्रकृति चित्रण सहज और मनोरम है –
’’प्रतिक्षण नूतन वेष बनाकर रंग-बिरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिद माला।।’’
’मिलन’, ’पथिक’ और ’स्वप्न प्रेम’ कथात्मक खण्ड काव्य है, मानसी उनकी फुटकर कविताओं का संग्रह हैं,
4. रूपनारायण पाण्डे – स्वच्छन्दतावादी मनोवृत्ति के कवि हैं, इनकी रचनाएँ भी छायावाद का पूर्वाभास कराती हैं, इन्होंने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मक काव्य शैली का विरोध कर खङी बोली हिन्दी में आन्तरिक अनुभूतियों की काव्याभिव्यक्ति की है, ’वन वैभव’ कवि के प्रगति मुक्तकों का संग्रह है, ’वन विहंगम’, ’दलित कुसुम’, ’आश्वासन’ इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं, रूपनारायण पाण्डे इस नवीन काव्य धारा में मानवीय संवेदना और उदात्त मानवीय मूल्यों के कवि के रूप में प्रतिष्ठित रहे हैं।
छायावाद
आधुनिक काल की सन् 1918 ई. से 1938 ई. तक हिन्दी कविता को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने नई काव्यधारा का तृतीय उत्थान कहा है जिसे सामान्यतः ’छायावाद’ के नाम से जाना जाता है, छायावाद के उदय के सम्बन्ध में रामचन्द्र शुक्ल का कथन है ’’पुराने ईसाई सन्तों के छायाभास तथा यूरोप के काव्य क्षेत्र में प्रवर्तित अध्यात्मिक प्रतीकवाद के अनुकरण पर रची जाने के कारण बंगाल में ऐसी कविताएँ छायावाद कही जाने लगी थी, अतः हिन्दी में भी ऐसी कविताओं का नाम छायावाद चल पङा।’’
सन् 1920 में मुकुटधर पाण्डे के निबन्ध ’हिन्दी में छायावाद’ से पता चलता है कि द्विवेदीयुगीन कविताओं से भिन्न कविताओं के लिए छायावाद नाम प्रचलित हो चुका था।
परिभाषा –
डाॅ. नगेन्द्र ने छायावाद को ’स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह’ माना है, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे ’अभिव्यंजना का नूतन विधान’ कहा है, जयशंकर प्रसाद के अनुसार, ’’जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब उसे हिन्दी में ’छायावाद’ के नाम से अभिहित किया गया।’’ नन्ददुलारे वाजपेई ने लिखा ’’छायावाद मानव जीवन सौन्दर्य और प्रकृति को आत्मा का अभिन्न स्वरूप मानता है।’’
वस्तुतः इन परिभाषाओं से छायावाद के स्वरूप पर समग्र प्रकाश नहीं पङता, न तो वह मात्र अभिव्यंजना का नूतन विधान है और न ही केवल स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह, दोनों का समन्वय ही छायावाद के मूलचरित्र को रेखांकित करता है अर्थात् ’नवीन आभ्यन्तर अनुभूति को व्यक्त करने के लिए नवीन अभिव्यंजना शैली आवश्यक थी और इस शैली के काव्य का नाम छायावाद पङा।’
छायावाद के प्रवर्तक कौन ?
रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी कविता की नई धारा (छायावाद) का प्रवर्तक मैथिलीशरण गुप्त और मुकुटधर पाण्डे को माना है, किन्तु इसे भ्रामक तथ्य मानकर खारिज कर दिया गया, इलाचन्द्र जोशी और विश्वनाथ मिश्र जयशंकर प्रसाद को निर्विवाद रूप से छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं, सन् 1913-1914 के आसपास ’इन्दु’ में प्रसाद की जिस ढंग की कविताएँ छपती थीं, (जो ’कानन कुसुम’ में संकलित हुईं) वे निश्चय रूप से तत्कालीन हिन्दी काव्य क्षेत्र में युग-परिवर्तन की सूचक हैं।
विनयमोहन शर्मा और प्रभाकर माचवे ने माखनलाल चतुर्वेदी को तो नन्ददुलारे वाजपेयी, सुमित्रानन्दन पंत को छायावाद के प्रवर्तन का श्रेय देते हैं, किन्तु अब जयशंकर प्रसाद को ही सर्वमान्य रूप से छायावाद का प्रवर्तक माना जाने लगा है।
छायावाद की पृष्ठभूमि
समकालीन परिस्थितियों और विचारधाराओं ने विविध रूप में हिन्दी कविता को प्रभावित किया है, पूँजीवाद का विकास और व्यक्तिवाद का जन्म, स्वच्छन्दवादी प्रवृत्तियों का उदय, प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव, राजनीति के क्षेत्र में गांधीजी का आन्दोलन और स्वांतत्र्य प्रेम का जागरण, पाश्चात्य सभ्यता का नई पीढ़ी पर प्रभाव, अंग्रेजी के रोमाण्टिक कवियों का प्रभाव, कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रति श्रद्धाभाव, ब्रह्मसमाज का आन्दोलन और राजा राममोहन राय के क्रान्तिकारी विचार तथा कर्मकाण्डी वैष्णव धर्म के विरुद्ध स्वामी दयानन्द का आर्य समाजी आन्दोलन, आदि विभिन्न सांस्कृतिक परिस्थितियों ने मिल-जुलकर छायावाद को जन्म दिया।
छायावाद की साहित्यिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में महादेवी वर्मा का यह वक्तव्य महत्त्वपूर्ण है, ’’उस युग की कविता की इतिवृत्तात्मकता इतनी स्पष्ट हो चली थी कि मनुष्य की सारी कोमल और सूक्ष्म भावनाएँ विद्रोह कर उठीं, स्थूल सौन्दर्य की निजी अभिव्यक्तियों से थके हुए और कविता की परम्परागत नियम शृंखला से ऊबे हुए व्यक्तियों को फिर उन्हीं रेखाओं में बँधे स्थूल का न तो यथार्थ चित्रण रुचिकर हुआ और न उसका रूढ़िगत आदर्श भाया, उन्हें नवीन रूपरेखाओं में सूक्ष्म सौन्दर्यानुभूति की आवश्यकता थी, जो छायावाद में पूर्ण हुई।’’
काव्य प्रवृत्तियाँ विशेषताएँ –
- आत्मानुभूति की प्रधान अभिव्यक्ति
- सूक्ष्म भावाभिव्यक्ति की प्रधानता
- स्थूलता और इतिवृत्तात्मकता के प्रति पूर्ण विद्रोह,
- कल्पना का प्राचुर्य
- सौन्दर्य के प्रति आकर्षण, सौन्दर्य की सूक्ष्म अभिव्यक्ति
- प्रेम विरह, और करुणा की मार्मिक अभिव्यक्ति
- प्रकृति के प्रति जिज्ञासा और मानवीय चेतना का आरोप
- लाक्षणिक प्रयोग, अन्योक्ति एवं बिम्ब प्रतीकों से युक्त विशिष्ट काव्य शैली
- छन्दों के नए प्रयोग
- चित्रात्मकता और ध्वन्यात्मकता काव्य भाषा का विशिष्ट गुण।
छायावाद के प्रमुख कवि
जयशंकर प्रसाद (1889 ई.-1937 ई.)
छायावाद के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद का प्रथम कविता संग्रह ’कानन कुसुम’ है जिसमें अनुभूति और अभिव्यक्ति का नया रूप मिलता है, ’झरना’ में आधुनिक काव्य प्रवृत्तियाँ अधिक मुखर हुई हैं, ’आँसू’ प्रसाद की विशिष्ट रचना है जिसमें कवि के हृदय की घनीभूत पीङा आँसुओं के माध्यम से व्यक्त हुई है, गीतकला की दृष्टि से उत्कृष्ट ’लहर’ प्रसाद की सर्वाेत्तम कविताओं का संग्रह है |
प्रसाद की अन्तिम प्रौढ़तम कृति ’कामायनी’ है, इसमें आदि मानव मनु की कथा के द्वारा उदात्तवादी सामंजस्यपूर्ण आनन्दवाद की प्रतिष्ठा की गई है, प्रसाद के कवि जीवन का प्रारम्भ ’कलाधर’ उपनाम से ब्रज भाषा काव्य रचना से हुआ था।
सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ (1897 ई.-1961 ई.)
युगीन यथार्थ के प्रति निराला सर्वाधिक छायावादी कवि हैं, वे अपने समय के जितने विवादास्पद कवि रहे, उतने ही कालान्तर में निर्विवाद और सर्वमान्य भी रहे, अपने क्रान्तिकारी विचारों के कारण उन्हें सदैव विरोध और संघर्ष का सामना करना पङा, छन्दों की रीतिबद्धता तोङकर उन्होंने मुक्त छन्द में ’जूही की कली’ कविता लिखी, उनकी प्रेम अभिव्यक्ति अन्य छायावादी कवियों की तरह हवाई नहीं है, निराला प्रेम, विद्रोह, संघर्ष और क्रान्ति के कवि हैं, ’तुलसीदास’, ’राम की शक्ति पूजा’, ’सरोज स्मृति’, उनकी आत्मचरितात्मक काव्य रचनाएँ हैं, ’अनामिका’, ’परिमल’, ’गीतिका’ निराला के अन्य कविता संग्रह है।
सुमित्रानंदन पंत (1900 ई.-1977 ई.)
छायावादी कवियों में सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्धि ’प्रकृति के सुकुमार कोमल कवि’ के रूप में है, पंत ने नारी, प्रकृति, सौन्दर्य और जीवन के प्रति मध्यमवर्गीय दृष्टिबोध का परिष्कार अपनी रचनाओं के माध्यम से किया है, ’उच्छवास’, ’ग्रन्थि’, ’वीणा’, ’पल्लव’, ’गुंजन’ उनकी छायावाद युग की रचनाएँ हैं, ’कला और बूढ़ा चाँद’, ’चिदम्बरा’ और ’लोकायतन’ छायावादोत्तर युग की रचनाएँ हैं, ’चिदम्बरा’ पर पंत को ज्ञानपीठ पुरस्कार भी प्रदान किया गया।
महादेवी वर्मा (1907-1987 ई.)
महादेवी वर्मा को ’आधुनिक युग की मीरा’ कहा जाता है, उनके काव्य में वेदना और दुःख की विभिन्न छवियाँ अभिव्यक्त हुई हैं, दुःख महादेवी की काव्य सर्जना की मूल प्रेरणा है जो उनके शब्दों में सारे संसार को एकसूत्र में बाँधे रखने की क्षमता रखता है, ’नीहार’, ’रश्मि’, ’नीरजा’, ’सान्ध्यगीत’, और ’दीपशिखा’ – महादेवी के प्रमुख काव्य संग्रह हैं, ’यामा’ उनकी छायावादी युग की प्रमुख कविताएँ संकलित हैं।
उत्तर छायावादी काव्य और उसके प्रमुख कवि
उत्तर छायावादी हिन्दी कविता कई विचारधाराओं के प्रभाव और प्रतिक्रियास्वरूप प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, समकालीन कविता आदि काव्यधाराओं में विकसित हुई हैं, इन विभिन्न काव्य धाराओं की विशिष्ट काव्य प्रवृत्तियाँ और प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –
प्रगतिशील काव्य
छायावाद के बाद सन् 1938 ई. से 1943 ई. तक का आधुनिक हिन्दी कविता ’प्रगतिवाद’ या ’प्रगतिशील कविता’ के नाम से जानी जाती है, छायावादी कविता और काव्यभाषा दोनों ही अतीन्द्रिय कल्पना, रोमानी प्रवृत्ति, निराशा और पलायन की प्रवृत्ति, सूक्ष्म और कोहरे-सी अस्पष्ट भाषा तत्कालीन जन-जीवन की अभिव्यक्ति में पूरी तरह से असमर्थ हो चुकी थी, पंत और निराशा ने भी छायावादी कविता की इस असमर्थता को पहचानकर प्रगतिशील चेतना की आत्मसात् कर लिया था, पंत ने कहा था ’’इस युग की कविता सपनों में नहीं पच सकती।’’
पृष्ठभूमि
प्रगतिवाद का मूल आधार साम्यवाद है, राजनीति के क्षेत्र में जो साम्यावाद है, साहित्य के क्षेत्र में वही प्रगतिवाद है, अर्थात् प्रगतिवादी हिन्दी कविता को साम्यवाद की साहित्यिक अभिव्यक्ति कहा जा सकता है, पूँजीवाद का विरोध, शोषण के प्रति विद्रोह, शोषित से सहानुभूति, संघर्ष और क्रान्ति का आह्वान, ईश्वर-धर्म पर अनास्था आदि साम्यवाद की मुख्य विशेषताएँ हैं जो हिन्दी कविता में भी प्रमुख रूप से व्यक्त हुई हैं।
कार्ल मार्क्स के साम्यवादी दर्शन का विश्वव्यापी प्रभाव पङा था, देश के अनेक बुद्धिजीवी इसके प्रति आकर्षित हुए, सन् 1936 में देश में पहली बार ’प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना हुई, लखनऊ में संघ के प्रथम सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए प्रेमचन्द ने कहा था –
’’हमारी कसौटी पर केवल यही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता के भाव हों, सौन्दर्य का सार हो, जो हममें गति, बेचैनी और संघर्ष पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है।’’ प्रेमचन्द का यह भाषण प्रगतिवाद का नीतिशास्त्र बन गया।
प्रगतिवादी हिन्दी कविता का उद्भव छायावादी कवियों सुमित्रानंदन पंत और निराला से हो चुका था, पंत की ’ज्योत्सना’, ’युगवाणी’ तथा निराला की ’वह तोङती पत्थर’, ’नए पत्ते’, ’कुकुरमुत्ता’ आदि कविताओं में प्रगतिवादी स्वर मुखरित हो उठे थे, प्रगतिवाद के प्रमुख कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, शिवमंगल सिंह सुमन, रामधारी सिंह दिनकर आदि उल्लेखनीय है।
मूल्यांकन
प्रगतिवाद में हिन्दी कविता प्रगतिशीलता को आत्मसात् कर व्यक्ति केन्द्रित आत्मभिव्यक्ति से निकलकर जनजीवन के सामाजिक यथार्थ से जुङी, छायावादी वेदना निराशा और अवसाद का कोहरा छँटा और युगबोध की चेतना का प्रकाश फैला, धरती के यथार्थ से जुङकर प्रगतिवादी हिन्दी कविता की भाषा भी अत्यन्त सशक्त रूप में मुखरित हुई, जनजीवन और उससे जुङे सुख-दुःख की अभिव्यक्ति पहली बार प्रगतिवादी काव्य में सच्चे अर्थों में हुई।
छायावादी खोखले आदर्शवाद और भावुक रुमानी कल्पनाओं के मायावी आवरण को हटाकर प्रगतिवाद ने जीवन और समाज के प्रति एक यथार्थवादी दृष्टि विकसित की, शोषण और अन्याय के प्रति विद्रोह की चेतना जगाई, साथ ही मनुष्य को उसकी अस्मिता और शक्ति-सामथ्र्य से परिचित कराया, अतः अनेक सीमाओं के बावजूद आधुनिक हिन्दी कविता में प्रगतिवादी काव्य की अपनी पृथक् पहचान और महत्त्व बना हुआ है।
केदारनाथ अग्रवाल
प्रगतिवाद के सशक्त कवि केदारनाथ अग्रवाल सच्चे अर्थों में जनवादी कवि हैं, केदार की राजनीति सम्बन्धी कविताओं की अपेक्षा प्रकृति प्रेम और समाज सम्बन्धी कविताएँ अधिक प्रभावशाली हैं, ’कहें केदार खरी-खरी’, ’फूल नहीं रंग बोलते हैं’, ’हे मेरी तुम’, ’गुलमेंहदी’, ’आत्मगंध-केदार के उल्लेखनीय कविता संग्रह हैं।
नागार्जुन
विचारों से किसी भी वाद से मुक्त नागार्जुन शुद्ध जनवादी कवि हैं, राजनीति केन्द्रित उनकी कविताएँ ’सपाट, ऊबङ खाबङ, दलीय और पोस्टर कविता’ है, किन्तु उन्होंने दीर्घजीवी कविताएँ भी लिखी हैं, ’बादल को घिरते देखा है’, ’रवीन्द्र’, ’पाषाणी’, ’सिन्दूर तिलकित भाल’, ’तुम्हारी दन्तुरित मुस्कान’-नागार्जुन की श्रेष्ठ प्रगतिवादी कविताएँ कही जा सकती है।
शिवमंगल सिंह ’सुमन’
’सुमन’ की प्रगतिशील कविताएँ दो तरह की हैं – गीतपरक छोटी कविताएँ और उद्बोधनपरक लम्बी कविताएँ, इनमें गतिपरक कविताएँ अधिक प्रभावशाली और काव्यत्व की दृष्टि से भी अच्छी हैं, ’हिल्लोल’, ’जीवनगान’, ’प्रलय सृजन’ ’सुमन’ उनके प्रगतिवादी कविता संकल्पना है।
त्रिलोचन
इनकी कविताओं में किसानी जीवन और परिवेश नाना रूपों और किया व्यापारों के साथ चित्रित हुआ है, वे धरती की सोंधी गन्ध के कवि हैं, इसीलिए उनकी काव्य भाषा में भी गाँव की सादगी है, ’मिट्टी की बारात’ त्रिलोचन का उल्लेखनीय कविता संग्रह है।
प्रयोगवाद और नई कविता
प्रयोगवाद का उदय प्रगतिवाद की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ। साम्यवादी दर्शन की कट्टरता, सामाजिक यथार्थवाद की अतिव्याप्ति और सामूहिकता के कारण प्रगतिवादी कविता में एकरसता आ गई थी, वैयक्तिक अनुभूतियों के लिए वहाँ कोई अवकाश नहीं था, फलतः वैयक्तिकता का मूल आधार लेकर प्रयोगवादी कविता का मार्ग प्रशस्त हुआ।
प्रयोगवादी कविता का आरम्भ सन् 1943 ई. में अज्ञेय द्वारा सम्पादित ’तारसप्तक’ से होता है जिसमें सात कवियों (मुक्तिबोध, नेमिचन्द जैन, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, रामविलास शर्मा और अज्ञेय) की कविताएँ भाव-बोध तथा काव्य शिल्प की दृष्टि से नये-नये प्रयोगों की कविताएँ थीं, ये सातों कवि अज्ञेय के शब्दों में किसी एक स्कूल के नहीं हैं, वे राही नहीं, राहों के अन्वेषी हैं, ’तारसप्तक’ के कवियों ने ’प्रयोगशील’ या ’प्रयोग’ शब्द का उल्लेख किया है, ’प्रयोगवाद’ का नहीं।
अज्ञेय ने कहा है – ’’हमें प्रयोगवादी कहना उतना सार्थक या निरर्थक है, जितना हमें ’कवितावादी कहना, ……. प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है वह साधन है और दोहरा साधन है, क्योंकि एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है, दूसरे, वह इस प्रेषण की क्रिया को और उसके साधनों को जानने का साधन है अर्थात् प्रयोग द्वारा कवि अपने सत्य को अधिक तरह जान सकता है, वस्तु और शिल्प दोनों के क्षेत्र में प्रयोग फलप्रद होता है।’’
नई कविता
सन् 1951 में ’दूसरा सप्तक’ के प्रकाशन से प्रयोगवादी कविता ’नई कविता’ में रूपान्तरित हो जाती है, ’नई कविता’ नाम भी अज्ञेय का ही दिया हुआ है, सन् 1954 में जगदीश गुप्त के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका ’नई कविता’ से इसे व्यापक जनाधार मिला, दूसरा सप्तक में प्रकाशित भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती की कविताएँ नई कविता की प्रतिनिधि कविताएँ सिद्ध हुई, ये कवि प्रयोगवादी भी हैं और नई कविता के कवि भी।
डाॅ. बच्चन सिंह प्रयोगवाद और नई कविता के अन्तर्सम्बन्धों का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं – ’’वास्तव में नई कविता प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के अति छोरों को मिलाने वाली रेखा के किसी बिन्दु पर होती है, यह बिन्दु मध्य बिन्दु के इधर भी हो सकता है, उधर भी।’’
नई कविता की पहली प्रवृत्ति है ’’वाद से मुक्ति, न वह पूरे तौर पर प्रयोगवादी है और न प्रगतिवादी, आस्था-आशा, संकल्प-उत्साह तथा अनास्था, निराशा, भय, अनिश्चितता, शंका, संदेह आदि के स्वरों की अनुगूँज इसकी दूसरी विशेषता है, संवेदनात्मक वैचारिकता को सभी नये कवियों ने स्वीकार किया है, कहीं परिवर्तनमान परम्परा की स्वीकृति है तो कहीं अस्वीकृति, कहीं कोरी वैयक्तिकता है तो कहीं व्यक्ति और समाज की टकराहट।’’
लोक-सम्पृक्ति नई कविता की ऐसी विशिष्टता है जिसकी प्रायः उपेक्षा हुई है, लोक जीवन से नई कविता का लगाव प्रगतिवादी कविता की तरह सैद्धान्तिक रूप में नहीं, बल्कि सहज रूप में है, ’’नई कविता ने लोकजीवन की अनुभूति, सौन्दर्य-बोध, प्रकृति और उसके प्रश्नों को एक सहज और उदार मानवीय भूमि पर ग्रहण किया, साथ ही लोक-जीवन के बिम्बों, प्रतीकों, शब्दों और उपमानों को लोक-जीवन के बीच से चुनकर अपने आपको अत्यधिक संवेदनापूर्ण बनाया।’’
’तीसरा सप्तक’ सन् 1959 में प्रकाशित हो चुका था, इससे पूर्व नकेन (नलिनी विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश मेहता) ने ’प्रपद्यवाद’ काव्यान्दोलन की शुरूआत की, नकेनवादियों ने प्रयोगवादी कवियों पर कई आरोप लगाए, किन्तु उन्हें अधिक गम्भीरता से नहीं लिया गया, सन् 1960 के बाद तो नई कविता में काव्यान्दोलनों की बाढ़-सी आ गई,
सन् 1960 की हिन्दी कविता को ’साठोत्तरी कविता’ भी कहा गया, डाॅ. जगदीश गुप्त ने ’किसिम किसिम की कविता’ शीर्षक से अनेक कविता आन्दोलनों का विवरण दिया है, इनमें अकविता, सनातन-सर्वोदयी कविता, अस्वीकृत कविता, विद्रोही कविता, गलत कविता, नूतन कविता, एण्टी कविता, नंगी कविता, शुद्ध कविता, गीत कविता, टटकी कविता, नव प्रगतिवादी कविता आदि उल्लेखनीय है, इनका कोई विशेष महत्त्व कभी नहीं रहा।
प्रमुख कवि | काव्य रचनाएँ |
अज्ञेय | हरी घास पर क्षणभर, बाबरा अहेरी, इन्द्र धनुष रौंदे हुए, इत्यलम्, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार |
मुक्तिबोध | चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूलि, |
रघुवीर सहाय | सीढ़ियों पर धूप, आत्महत्या के विरुद्ध, हँसो-हँसो जल्दी हँसो, लोग भूल गए हैं, |
शमशेर बहादुर सिंह | कुछ कविताएँ, कुछ और कविताएँ, चुका भी हूँ नहीं मैं, इतने अपने पास, बात बोलेगी, काल तुझसे होङ है मेरी |
भवानी प्रसाद मिश्र | गीत फरोश, सतपुङा के जंगल, टूटने का सुख |
नरेश मेहता | वनपाखी सुनो, बोलने दो चीङ को, मेरा समर्पित एकान्त |
धर्मवीर भारती | ठंडा लोहा, सात गीत वर्ष, कनुप्रिया |
कुँवर नारायण | चक्रव्यूह, आत्मजयी |
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना | काठ की घंटियाँ, बाँस का पुल, एक सूनी नाव, कुआनो नदी, जंगल का दर्द, खूँटियों पर टँगे लोग |
केदारनाथ सिंह | अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, बाघ |
Hindi sahitya ka itihas adhunik kal
प्रयोगवाद की काव्य प्रवृत्तियाँ –
- घोर वैयक्तिकता या आत्मनिष्ठा
- अतिबौद्धिकता
- प्राचीन परम्परा व रूढ़ियों के प्रति विद्रोह
- दमित कुंठा की अभिव्यक्ति
- धर्म-ईश्वर के प्रति अनास्था
- व्यंग्य
- पीङा बोध
- अदम्य जिजीविषा
- प्रकृति सौन्दर्य की नवीन दृष्टि
- बिम्बात्मक व प्रतीकात्मक काव्य भाषा
नई कविता की काव्य प्रवृत्तियाँ
- जीवन के प्रति गहरी आस्था
- यथार्थ की संवदेनात्मक अभिव्यक्ति
- लघु मानव की प्रतिष्ठा
- लोक जीवन से सम्पृक्ति
- बौद्धिकता
- विद्रोही चेतना
- ईश्वर में अनास्था
- लम्बी कविताओं की प्रवृत्ति
- लाक्षणिक काव्यभाषा
- भाषा में रूपगत स्वच्छन्दता
समकालीन कविता
समकालीन कविता वस्तुतः नई कविता के आगे की कविता है जो ’अनुभूति की प्रामाणिकता’ और ’भोगा हुआ यथार्थ’ को रचना का प्रमाण मानती है, साहित्य में समकालीनता को समझने का एक ही उपाय है कि समकालीन मनुष्य को उसके गत्यात्मक जीवन में परखना, उसके साथ तादाम्य करना अथवा उसके साथ होना, उसके मन में उतरना अथवा उसके साथ ’अस्तित्व की एकता’ स्थापित करना।
इस दृष्टि से अज्ञेय जैसे कवि समकालीन कवियों में नहीं आते, वे ’समकाल’ में अपना स्थान तो रखते हैं, किन्तु समकालीन मानव जीवन के वास्तविक सुख-दुःख, आशा-आकांक्षाओं आदि के प्रति अज्ञेय में वह तलीनता नहीं मिलती जो समकालीन कवियों में मिलती है, नई कहानी की तरह कविता के क्षेत्र में ’नई कविता’ का ही आधिपत्य रहा है, यद्यपि नई कविता का उद्भव ’तारसप्तक’ के बाद से माना जाता है, किन्तु आज तक की कविता को ’नई कविता’ के नाम से जाना जाता है।
इसी दृष्टि से कविता को अपने काल से जोङने के लिए ’समकालीन कविता’ का नाम दिया गया जो सत्तर के दशक के बाद की कविताओं के लिए था, किन्तु यह नाम भी बहुत चला नहीं।
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