आज के इस आर्टिकल में क्रोचे का अभिव्यंजनावाद (kroche ka abhivyanjnavad) और इसके संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियाँ आपके साथ शेयर की जा रही है। आप इस टाॅपिक को अच्छे से पढ़े।
क्रोचे का अभिव्यंजनावाद
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अभिव्यंजनावाद का प्रारम्भ पाश्चात्य देशों में हुआ है। शैली को प्रभावित प्रदान करने वाले यूरोप में दो वाद प्रचलित हुए-एक तो अभिव्यंजनावाद और दूसरा कलावाद। अभिव्यंजना को महत्त्व प्रदान करने वालों में वेन्देतो क्रोचे का नाम आता है। डाॅ. गोविन्द त्रिगुणायत ने यह प्रमाणित किया है कि अभिव्यंजनावाद का बीजारोपण पाश्चात्य देशों में हुआ। उन्होंने लिखा है कि ’’सर्वप्रथम लैसिंग ने अपने सौंदर्यवाद को प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में यह सिद्धांत सामने रखा था कि आत्मा का सौंदर्य ही कला और काव्य के रूप में अभिव्यक्त होता है। यह अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से होती है।’’
डाॅ. त्रिगुणायत ने यह भी बतलाया है कि साहित्य या काव्य को सौंदर्य की अभिव्यक्ति स्वीकार करके दोनों ही देशों में अभिव्यंजनावाद को काव्य का प्राणभूत तत्त्व स्वीकार किया गया। भारत में भवभूति के ’वाणी को आत्मा की कला कहने से भी एक दृष्टि में अभिव्यंजनावाद की पुष्टि होती है।’
विकलमैन नामक पाश्चात्य विद्वान ने भी अभिव्यंजनावाद के सिद्धांत का संकेत दिया है। उन्होंने अभिव्यंजनावाद की विविध शैलियों और स्वरूपों का विवेचन किया है। आगे चलकर काॅन्ट ने ज्ञान के दो विभाग किए- विशुद्ध ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान। काव्यकला को उन्मुक्त भाव से विचरने की अनुमति देने वाला यही काव्य-सिद्धांत है। कुछ आगे चलकर काॅलरिज ने अपने कल्पना-सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इन सबसे यह स्पष्ट है कि क्रोचे को अपने सिद्धांत के विकास और प्रतिष्ठापन के लिए पूर्व संस्कार प्राप्त थे।
अभिव्यंजना का स्वरूप
अभिव्यंजना-सिद्धांत के आधार पर कलाकार का काम यथार्थ का प्रतिनिधिमूलक चित्रण करना ही नहीं है। या तो कलाकार अन्तर की भावना को यथार्थ रूप में प्रकाशित करता है या उससे सम्बन्ध ही नहीं रखता। वह तो वास्तव में अपने मन की एक अवस्था को ही अभिव्यंजित करता है। क्रोचे की दृष्टि में ज्ञान के दो रूप हैं- ज्ञान और क्रिया या संकल्प। प्रथम का सम्बन्ध सैद्धांतिक पक्ष से है और दूसरे का सम्बन्ध व्यावहारिक जगत् से। ज्ञान या प्रज्ञा को भी क्रोचे ने दो भागों में विभाजित किया है- एक तो स्वयंप्रकाश ज्ञान या सहज ज्ञान, दूसरा कलात्मक या तार्किक ज्ञान। जहाँ तक अभिव्यंजनावाद का प्रश्न है, उसका सम्बन्ध कलात्मक ज्ञान से है।
इस ज्ञान की व्यष्टिमूलकता इसे स्वतंत्र बना देती है।’’ बाह्य रूपों से निरपेक्ष यही संस्कार जब कल्पना के साँचे में ढलकर निकलते हैं तो काव्य और कला के क्षेत्र में उस अभिव्यक्ति को अभिव्यंजना कहा जाता है। स्पष्ट है कि प्रातिभ ज्ञान से उद्भुत कल्पना ही अभिव्यंजना की जननी है।’’ क्रोचे की दृष्टि में कलात्मक ज्ञान की उद्भावना ही अभिव्यंजना है। अभिव्यंजना की विशेषताओं से पूर्व क्रोचे की यह उक्ति विचारणीय है- ’’Art is the expression of impression not the expression of expressions’’ अर्थात् कला अनुभूति या प्रभावों की अभिव्यक्ति है, न कि अभिव्यक्ति की अभिव्यक्ति।
क्रोचे सहज ज्ञान को अपने आप में एक प्रतिच्छवि मानते हैं, लेकिन इस प्रतिच्छवि में उस प्रतिच्छवि से भिन्नता है जो बाह्य वस्तुओं के देखने से दर्शक के मन पर अभिव्यक्त होती है। क्रोचे के अनुसार जब अभिव्यंजना या रूप लेने की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, तब सौंदर्य की सृष्टि भी समाप्त हो जाती है। क्रोचे के इस सिद्धांत के आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि कलाकार के मन के भीतर ही कोई रचना की क्रिया चला करती है और अन्तर में चलने वाली उस क्रिया की अभिव्यक्ति भी अन्तर में ही होती है। उसके अन्तर में उठने वाली भाव-तरंगों का मूल्य वहीं तक सीमित है।
अभिव्यंजना का स्वरूप
क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की प्रमुख बातें निम्नांकित बिन्दुओं द्वारा समझी जा सकती हैं-
(1) अभिव्यंजनावाद का सम्बन्ध सहज ज्ञान या कलात्मक ज्ञान से है।
(2) अभिव्यंजनावाद का सम्बन्ध बाह्य जगत् से बिल्कुल नहीं है।
(3) काव्य में अभिव्यंजनावाद ही सब कुछ है। क्रोचे की दृष्टि में अभिव्यंग्य का मूल्य कुछ भी सूक्ष्म रूप से अभिव्यक्ति कलाकार के मन में होती है। बाद में आश्रय-भेद से उसको अभिव्यक्ति मिलती है।
(4) कवि की सौंदर्य भावना का गत्यात्मक रूप ही अभिव्यंजनावाद में आता है। इसकी सूक्ष्म रूप से अभिव्यक्ति कलाकार के मन में होती है। बाद में आश्रय-भेद से उसको अभिव्यक्ति मिलती है।
(5) सहज ज्ञान स्वयं प्रतिच्छविरूप है। यह प्रतिच्छवि अन्तर्जगत् से ही सम्बन्धित है।
(6) अभिव्यंजना अपने आप में पूर्ण है। किसी भी प्रकार के बाह्य उद्देश्य से उसका कोई प्रयोजन नहीं दिखाई पङता है।
(7) कला आध्यात्मिक क्रिया है और अभिव्यंजना उसी का दूसरा नाम है। कला का मूर्त रूप अभिव्यंजना है।
(8) अभिव्यंजनावाद में जो प्रक्रिया काम करती है, उसके स्तर हैं- संवेदना, सहजानुभूति, आनन्दानुभूति और सहजानुभूति का मूर्तीकरण।
(9) स्वभावतः प्रत्येक व्यक्ति कलामय है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में सहजानुभूति का स्तर होता है और यह निर्विवाद सत्य है कि जहाँ सहजानुभूति है, वहीं पर अभिव्यंजनावाद स्वतः प्रमाणित है।
(10) क्रोचे की दृष्टि में अभिव्यंजना सौंदर्य का रूपान्तर है, क्योंकि उन्होंने सौंदर्य को न तो वस्तु में स्वीकार किया है और न अभिव्यंजना में।
अभिव्यंजनावाद पर लगाये गये आरोप
क्रोचे के अभिव्यंजनावाद पर विद्वानों ने अनेक आरोप लगाये हैं। सामान्यतः ये आरोप मनोविज्ञान के पण्डितों द्वारा लगाये गये हैं। कतिपय प्रमुख आरोप निम्नलिखित हैं-
(1) क्रोचे के मतानुसार सहज ज्ञान में बौद्धिकता या विचारणा नहीं होती है। आरोप करने वाले विद्वानों की मान्यता है कि इस प्रकार का सहज ज्ञान कल्पनातीत है।
(2) क्रोचे के अभिव्यंजनावाद पर दूसरा आरोप यह लगाया है कि सहज ज्ञान रूपायित होता है। यह सच है कि सहज ज्ञान का यह रूप स्थान, काल और धारणा से प्रतीत होता है।
वास्तव में क्रोचे के इस सिद्धांत ने साहित्य-जगत् में बङी भ्रांतियों को उकसाया है, परिणामस्वरूप आपत्तियाँ जटिल से जटिलतर होती गयीं और इस वाद को लेकर पूरी तरह से एक बखेङा ही खङा हो गया। उपर्युक्त आपत्तियों के अतिरिक्त भी इस सिद्धांत पर अनेक आपत्तियाँ और लगायी गयी हैं। सबसे पहली बात यह है कि क्रोचे ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि कलाकार का काम कला को दूसरों तक प्रेषित करना है तथा कलात्मक कृति का प्रभाव दूसरों पर पङता भी है।
एक अन्य तथ्य यह है कि कला के प्रेमी से इस बात की अपेक्षा की जाती है कि एक अन्य वस्तु के सहारे से जो हमसे बाहर की है, उसकी अन्तश्चेतना का प्रसार हो। इस मत के खण्डन में कहा जाता है कि कलाकारों की अन्तश्चेतना उसकी अपनी निज की अनुभूतियों से ही प्रसार पाती है। क्रोचे ने जीवन के प्रति भी उपेक्षा बरती है जबकि कलाकार जीवन को एकदम नहीं भुला सकता है।
अभिव्यंजनावाद और आचार्य शुक्ल
आचार्य शुक्ल ने अभिव्यंजनावाद के संदर्भ से तीन प्रमुख बातें कही हैं जो निम्नलिखित हैं-
(1) शुक्ल जी की दृष्टि में कल्पना भाव-क्षेत्र की वस्तु है। वे उसे क्रोचे के सदृश्य ज्ञान-क्षेत्र की वस्तु नहीं मानते। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था कि ’’कल्पना काव्य का एक क्रियात्मक बोधपक्ष है जिसका विधान हमारे यहाँ के रसवादियों ने भाव के योग में ही माना है।’’
(2) शुक्ल जी अभिव्यंजना को केवल उक्ति का अनूठापन मानते थे। क्रोचे के अनुसार अनूठी उक्ति की अपनी अलग सत्ता होती है। वह क्या है, कैसी है, यह सब कुछ काव्य के बाहर की बात है। उसे किसी दूसरे कथन का पर्याय नहीं समझना चाहिए।
(3) शुक्ल जी अभिव्यंजनावाद के विरोधी इसलिए भी रहे कि उसमें जीवन से मुँह मोङने या पलायन करने की बात कही गयी है। शुक्ल जी ने क्रोचे के इस मतवाद का खण्डन किया है कि काव्यगत दुखात्मक भावों की अनुभूति दुखात्मक होती है। उनका कहना है कि साधारणीकरण व्यापार से भावित होने के कारण काव्यगत अनुभूति भावित होकर सुखात्मक हो जाती है।
अभिव्यंजनावाद और डाॅ.गोविन्द त्रिगुणायत
डाॅ. त्रिगुणायत ने भी इस मत की आलोचना करते हुए लिखा है कि ’’पहली बात तो यह है कि इसमें व्यंग्य को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है। कोई भी सिद्धांत जिसमें व्यंग्य को महत्त्व नहीं दिया जायेगा, वह काव्य-क्षेत्र के अन्तर्गत प्रतिष्ठित नहीं हो सकता है। भारतीय दृष्टि में तो व्यंग्य व्यंजकता की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्व की वस्तु है।
यदि ऐसा नहीं होता है, तो कबीर और जायसी आदि कवि ही न कहलाते। मैं व्यंजना सम्बन्धी अखण्डता को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हूँ। भारतीय दृष्टि से आत्मा के अतिरिक्त और कोई अखण्ड तत्त्व नहीं है, फिर अभिव्यंजना आत्मा की तुलना में नहीं आ सकती है।’’
इसी प्रसंग में हमें एक बात पर और भी विचार करना चाहिए और वह यह है कि क्या क्रोचे का अभिव्यंजनावाद और कुन्तक का वक्रोक्तिवाद एक ही हैं या भिन्न-भिन्न? अभिव्यंजनावाद और वक्रोक्तिवाद को एक समझने की भूल आचार्य शुक्ल जैसे पण्डितों से भी हो गयी थी। उन्होंने उसे अर्थात् अभिव्यंजनावाद को वक्रोक्तिवाद का विलायती उत्थान तक कह डाला था।
उनकी दृष्टि में वक्रोक्तिवाद और अभिव्यंजनावाद में इतना ही अन्तर है कि वक्रोक्तिवादी व्यंजना का विशेष रूप से उपभोग करते थे और अभिव्यंजनावादी लक्षणा को प्रधानता देते थे।
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क्रोचे ने जीवन को बिल्कुल नकार दिया था,इसका फल ये है कि दुनिया की समकालीन कविता में क्रोचे का कोई प्रभाव नहीं दिखता।
कोई सिद्धांतकार जिन परिस्थितियों में रहता है, उनका सीधा असर वह करता है।क्रोचे को नहीं मालूम था कि उसका लोक एशिया और अफ्रीका की जनता की लुट पर आधारित था। वह अपने लोक को अक्षुण्ण रखने को कहता था कि कविता को बाहर से कुछ भी ग्रहण करना चाहिए।