आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के चर्चित कवि कुंवर नारायण (Kunwar Narayan) के बारे में विस्तार से पढेंगे ,इनसे जुड़ें महत्त्वपूर्ण तथ्य दिए गए है ।
कुंवर नारायण (Kunwar Narayan)
Table of Contents
- जन्म- 19 सितम्बर, 1927 ई.
- मृत्यु- 15 नवम्बर, 2017 ई. (लखनऊ)
- जन्मस्थान- फैजाबाद (उत्तरप्रदेश)
- लेखन – 1950 के आसपास काव्य लेखन प्रारम्भ किया
काव्य रचनाएँ
🔷 चक्रव्यूह (प्रथम काव्य संग्रह, 1956 ई.)
🔶 परिवेश हम तुम (1961 ई.)
🔷 अपने समाने (1979 ई.)
🔶 कोई दूसरा नहीं (1993 ई.)
🔷 इन दिनों (2002 ई.)
🔶 नीम रोशनी
🔷 तीसरा सप्तक में संकलित कविताएँ
कहानी संग्रह-
🔶 1973 ई. आकारों के आस-पास
खण्ड काव्य-
🔷 आत्मजयी (1965 ई.)
– कठोपनिषद् की पौराणिक कथा नचिकेता पर आधारित प्रबन्ध काव्य है जिसमें नई पीढी एवं पुरानी पीढी के मूल्य संघर्ष को उजागर किया गया है।
🔶 बाजश्रवा के बहाने (2008 ई.)
⇒ ज्ञानपीठ पुरस्कार की राशि 2005 में 7 लाख रूपये कर दी गई थी कुंवर नारायण यह प्रथम व्यक्ति थे जिन्हें ये राशि मिली थी।
→ 2011 से पुरस्कार की राशि 11 लाख रू. कर दी गई है।
⇒ आलोचक मानते है कि ’’कुंवर नारायण की कविता में व्यर्थ का उलझाव अखबारी सतहीपन और वैचारिक धुंध के बजाय संयम परिष्कार और साफ- सुथरापन है।
चलिए अब हम इनके जीवन के महत्त्वपूर्ण तथ्यों को पढतें है …
कुंवर नारायण का पहला काव्य-संग्रह ’चक्रव्यूह’ आधुनिकता की मनोदशा का सूचक है- ’मैं नवागत वह अजित अभिमन्यु हूँ/प्रारब्ध जिसका गर्भ ही से हो चुका निश्चित / अपरिचित जिन्दगी के व्यूह में फेंका हुआ उन्माद/बांधी पक्तियों को तोङ/क्रमशः लक्ष्य तक बढ़ता हुआ जयनाद।’ यह आज की सामाजिकता से घिरे व्यक्ति की एक दी हुई निश्चित स्थिति है। पर व्यक्ति लक्ष्य तक बढेगा ही, किंतु इसे कुछ निग्रह के साथ ही स्वीकारा जा सकता है। इन पंक्तियों में अनजाने ही जो अन्तर्विरोध आ गया है वह कुंवर नारायण का ही नहीं है अनेक अन्य कवियों और युग का भी है।
प्रश्न है कि जिसका प्रारब्ध गर्भ में ही निश्चित हो चुका है वह अर्जित कैसे है ? अगर उसकी अजेयता गर्भ में ही निश्चित है जो फिर वह अभिमन्यु कैसे हो सकता है ? अभिमन्यु तो लक्ष्य तक पहुँचने के पूर्व मारा जाता है। एक ओर प्रारब्धवादी होना और दूसरी ओर न होना एक साथ सम्भव नहीं है। इस अन्तर्विरोध के कारण कवि का ’मैं’ कहीं कहता है कि ’पर मैं प्रकाश का वह अन्तः केन्द्र हूँ/ जिससे गिरने वाली वस्तुओं को छायाएँ बदल सकती है/’ तो इसके विरुद्ध कहता है।
विरुद्धों का यह सामंजस्य ’आत्मजयी’ और ’परिवेश: हम-तुम’ में मिलता है।
’आत्मजयी’ एक चर्चित काव्य है। इसमें कठोपनिषद् की ’यम-नचिकेता’ को कहानी आधार रूप में ग्रहण की गई है। नचिकेता का परिवेश भी अभिमन्यु के चक्रव्यूह से कम जटिल नहीं है। नचिकेता अपने ढंग से व्यूह को तोङकर लक्ष्य तक पहुँच जाता है। पर उसका लक्ष्य क्या है ? परिस्थितियाँ क्या है ? लक्ष्य पर पहुँचने की प्रक्रिया क्या है ? और अन्त में उसकी प्रासंगिकता क्या है ?
वस्तुतः नचिकेता निजी सुख-सुविधा से आगे किसी ऐसे मूल्य या बोध की तलाश में है कि ’मत्र्य होते हुए भी मनुष्य किसी अमर अर्थ में जी सकता है।’ यह प्रश्न पुराने अर्थ में आध्यात्मिक या रहस्यात्मक न होकर अस्तित्वपरक है। इस नचिकेता का अमरतव सर्जनात्मक संभावनाओं के प्रति आस्था की उपलब्धि में निहित है। किन्तु सर्जनात्मकता का अर्थ इतना अनिर्णीत है कि उसके सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।
वाजश्रवा भौतिक जीवन का विश्वासी है जो आज का युग है और नचिकेता आत्मा के सत्य तक, सार्थकता तक पहुँचना चाहता है। वह मृत्यु-बोध से आत्म-बोध या जीवन बोध पाता है। संपूर्ण जीवन को देकर ही सम्पूर्ण जीवन को पाया जा सकता है।
किसी भी सोचने-विचारने वाले व्यक्ति के मन में जिन्दगी की सार्थकता का सवाल बराबर उठता रहता है। वाजश्रवा के क्रोध के बाद नचिकेता के सवाल विषादात्मक बन जाते हैं- वे जिन से पाया/नगण्य सुख-साधन कुछ……/दान मिला/दान से अधिक एहसान मिला/वे जिनको प्यार दिया जीवन को खाली कर,/ उन्होंने दया की, मुझ पर उपकार किया/वे सब समुद्ध रहे अपने में/लेकिन में रीत गया आत्मा को व्यय करके,/बदले में केवल एक कुंठा संचय करके।/प्रलोभनों में ’काम’ को उपलक्षण के रूप में लिया गया है।
वह जिज्ञासु हो उठता है- धरा, धाम, सखा, बन्धु/पिता, नाम, वर्तमान/मुझमें है-मुझसे है-मेरे है……../अनजाने, पहचाने, माने, बेमाने……/सब मेरे है-मैं सबका हूँ-/लेकिन में फिर अचेतावस्था में उसे अतीत और भविष्य बोध होता है। इसके बाद जिज्ञासा, श्रेष्ठ का वरण, सृजक दृष्टि आदि शीर्षकों के अन्तर्गत नचिकेता की अन्तर्यात्राओं का उल्लेख किया गया है। अन्ततः वह मुक्तिबोध के सोपान तक पहुंच जाता है।
’आत्मा की ओर लौटो’ की औपनिषदिक विचारधारा इस देश की अपनी विचाराधारा बन गई है। हिन्दी साहित्य के संत सवियों कबीर, दादू आदि में इसे स्पष्टतः देखा जा सकता है। निराला की रचनाओं में भी इसकी प्रतिध्वनि मिलती है। दिनकर की उर्वशी की समस्या को कामध्यात्मक की समस्या कहा जाता है।
उर्वशी के पुरूरवा की समस्या मानसिक ज्यादा है। उसे काम के अतिरेक का परिणाम भी कहा जा सकता है। वह कामाभाव में संन्यास लेता है। किन्तु ’आत्मजयी’ की समस्या जीवन के एक बुनियादी सवाल को- सार्थकता के सवाल को-उठाती है। उर्वशी का कामाध्यात्मक रोमैंटिक हो गया है। रोमैंटिक कामाध्यात्मक का अन्त पलायन में होता है। ’आत्मजयी’ का आध्यात्म्य शंकर अद्वैतवाद में होता है-
स्वयं अदृष्ट
इसी माया वस्तु को
बार-बार धारण करूँ-इसी भोग सामग्री को ग्रहण करूँ-
इससे छूटा रह कर।
अपनी अपूर्व रचना में
एक कलाकार ईश्वर की तरह अनुपस्थित
अथाह समय से जियूँ-
केवल आत्मा
अमरत्व
और आश्चर्य
यह परिणति नई नहीं हो पाती। संसार के मायावस्तु के रूप में लेना प्रकारान्तर से निवृत मार्ग का ही समर्थन है। इसमें सन्देह नहीं कि कुंवर नारायण इसके माध्यम में जीवन की जटिलतर समस्याओं को रचनात्मक बोध के विविध आयामों को उठाते है। पर इसकी शंकर अद्वैतवादी परिणति इसे निवृत्तवादी बना देती है और काव्य मुक्तिबोध की सीमा में सिमटकर व्यक्ति का निषेधात्मक आत्मबोध बनकर रह जाता है। शमशेर के नए काव्य-संग्रह ’इतने पास अपने’ की तरह कुंवर नारायण का नया काव्य संग्रह ’अपने सामने’ कुछ नया नहीं जोङ पाता।
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