आज की पोस्ट में आप सरदार पूर्ण सिंह के चर्चित निबन्ध मजदूरी और प्रेम के सारांश को पढेंगे ,बहुत ही शानदार निबन्ध है आप भी इसका सार रूप पढ़ें
मजदूरी और प्रेम (सरदार पूर्णसिंह)
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सरदार पूर्णसिंह द्वारा लिखित निबंधों में ’मजदूरी और प्रेम’ का महत्वपुर्ण स्थान हैं । इसमें किसान तथा श्रमिकों को ईश्वर का सच्चा प्रतिनिधि बताया गया है तथा श्रम की महता प्रतिपादित की गई है ।
हल चलाने वाले का जीवन –
हल चलाने वाले तथा भेङ चराने वाले स्वभाव से सज्जन होते हैं । वे खेत की हवन शाला में अपने श्रम की आहुति दिया करते हैं । ब्रह्महुत से जगत पैदा हुआ है । किसान अन्न पैदा करने में ब्रह्म के समान है । अन्न तथा फलों में उसका ही श्रम दिखाई देता है । वह साग -पात खाता है । ठंडे चस्मों तथा नदियों का पानी पीता है । वह पढा -लिखा नही है । जप – तप नही करता, खेती ही उसके ईश्वरीय प्रेम का केन्द्र हैं । वह पशु – पालन करता है । वह तथा उसका परिवार प्राकृतिक जीवन जीते हैं । उसकी आवश्यकताएँ सीमित हैं । लेखक को किसान के सरल जीवन में ईश्वर दर्शन होते हैं ।
गङरिये का जीवन –
एक बार लेखक ने एक बूढे गङरिये को देखा । वह पेङ के नीचे बैठा ऊन कात रहा था । उसकी भेङें वहाँ चर रही थीं । उसके सिर के बाल सफेद थे किन्तु मुँह पर स्वास्थ्य की लालिमा थी । उसका कोई स्थायी घर नहीं था । जहाँ जाता था वहीं घास की झोंपङी बना लेता था । उसकी स्त्री रोटी पकाती थी । उसकी दो जवान कन्यायें थीं । वे भेङ चराते समय पिता के साथ रहती थीं । उन्होंने अपने माता – पिता के अतिरिक्त किसी को नहीं देखा था । गङरिया पवित्र प्राकृतिक जीवन जीता था । उसकी युवा पुत्रियों की पवित्रता सूर्य, बर्फ और वन की सुगंध के समान थी । वे सभी अपनी भेङों की प्रेमपूर्वक देखभाल करते थे । किसी भेङ के बीमार होने पर चिन्तित तथा उसकी सेवा में रत रहते थे स्वस्थ होने पर प्रसन्न होते थे । वे ईश्वर की वाणी को सुनते नहीं प्रत्यक्ष देखते थे । इससे उनको ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती थीं । लेखक को यह देखकर लगता है कि अनपढ लोग ही ईश्वर को साक्षात् देख पाते हैं – पंडितों के उपदेश निरर्थक हैं । पुस्तकों द्वारा प्रदत्त ज्ञान अपूर्ण है । गङरिये के परिवार की प्रेम – मजदूरी का मूल्य कोई नहीं चुका सकता है ।
मजदूर की मजदूरी –
दिन-भर श्रम करने वाले की मजदूरी कुछ पैसों में नहीं दी जा सकती । मजदूर के शरीर के सभी अंग ईश्वर ने बनाए हैं और पैसे जिस धातु से बने हैं, वह भी ईश्वर ने बनाई है । अन्न, धन एवं जल भी ईश्वर की देन हैं । मजदूर की मजदूरी प्रेम – सेवा से दी जा सकती है । एक जिल्दसाज ने लेखक की एक किताब की जिल्द बनाई थी । वह उसका आमरण मित्र बन गया था। पुस्तक उठाते ही लेखक के मन में भरत – मिलाप का आनन्द आने लगता था ।
एक अनाथ विधवा ने गाढे की कमीज रातभर जागकर सिली । भूखी, दुःखी वह विधवा थककर रुक जाती फिर ’हे राम’ कहकर सीने लगती है । इस कमीज में उसके सुख, दुःख और पवित्रता मिली हुई है । इस कमीज को पहनकर लेखक को तीर्थयात्रा का पुण्य मिलता है । यह उसके शरीर का नहीं आत्मा का वस्त्र है । ऐसा श्रम ईश्वर की प्रार्थना है । प्रार्थना शब्दों में नहीं होती । ऐसी प्रार्थना ईश्वर तत्काल सुनता है ।
प्रेम-मजदूरी मनुष्य के हाथों से हुए कार्यो में उसकी आत्मा की पवित्रता मिली होती है। राफेल के बनाये चित्रों में कला-कुशलता के साथ उसकी आत्मा दिखाई देती है।उनकी तुलना में कैमरे से खिंचे फोटो र्निजीव लगते है। अपने हाथ से उगाये आलु में जो स्वाद आता है,वह डिब्बाबन्द चीजों में नही आता। जिन चीजों में मनुष्य के हाथ लगते है,उनमें उसकी पवित्रता तथा प्रेम मिल जाता है।
प्रियतमा द्वारा बनाया रूखा-सूखा खाना होटल के खाने से ज्यादा स्वादिष्ट होता है। उसके द्वारा लाए गये पानी में प्रेम का अमृत मिश्रण है।उसकी इस प्रेम और त्याग भरी सेवा का बदला लेखक नहीं दे सकता । वह सुबह उठती है,आटा पीसती है, गाय का दूध निकालती है। मक्खन निकालती है,चूल्हे पर रोटी बनाती है।वह पूर्व दिशा की लालिमा से अधिक आनन्ददायिनी लगती है। वह रोटी नहीं अमूल्य पदार्थ है। ऐसा संयमपूर्ण प्रेम ही योग है।
मजदूरी और कला –
श्रम आन्नद देने वाला होता है । उसकी रुपयों से नहीं खरीदा जा सकता । श्रम करने वाले की पूजा ही ईश्वर की पूजा है । भगवान मंदिर – मस्जिद में नहीं मनुष्य की अनमोल आत्मा में मिलता है । मनुष्य और उसके श्रम का तिरस्कार नास्तिकता है । बिना श्रम, बिना हाथ के कला – कौशल, विचार और चिन्तन बेकार है । दान के धन पर आराम से रहने से धर्म में अनाचार फैलता है । हाथ से काम करने वाला मजदूर ही सच्चा महात्मा और योगी है । आरामतलबी से जीवन तथा चिन्तन में बासीपन आ गया है । मशीनी सभ्यता मनुष्य को नष्ट कर देगी । नई सभ्यता श्रमिकों के श्रम से ही फलेगी – फूलेगी ।
मजदूरी और फकीरी –
मजदूरी और फकीरी का संयोग मानवता के विकास के लिए आवश्यक है । बिना परिश्रम फकीरी भी बासी हो जाती है । प्रकृति में नित्य नवीनता है । उसकी उपेक्षा कर बिस्तर पर पङे-पङे, बिना हाथों से श्रम किए चिन्तन करना ठीक नहीं है । साधु-संन्यासी श्रम करेंगे तभी उनकी बुद्धि निर्मल होगी । श्रम में एक नए ईश्वर के दर्शन होते हैं । श्रम ही ईश्वर का भजन है, मनुष्य को धातु से नहीं खरीदना चाहिए ।
प्रेम, सेवा और समानता के व्यवहार से उसकी आत्मा को अपना बनाना चाहिए । सभी मनुष्य आपस में भाई-बहिन हैं । वे एक ही पिता की सन्तान हैं । यह सारा संसार एक ही परिवार है । मजदूरी निष्काम कर्म है । उसमें स्वार्थ का अभाव है । मजदूरी और फकीरी अभिन्न हैं । जोन आॅफ आर्ट, टाल्सटाय, उमर खैयाम, खलीफा उमर, कबीर, रैदास, गुरु नानक, भगवान श्रीकृष्ण आदि का जीवन श्रमपूर्ण चिन्तन का उदाहरण है।
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