Moral Stories in Hindi – बेहतरीन हिंदी कहानियाँ – Motivational Stories

Friends, in today’s article, we have brought you a collection of excellent stories (Moral Stories in Hindi), you read them and get good inspiration.

ज्ञानवर्धक हिंदी कहानियाँ  – Moral Stories in Hindi

दोस्तो आज के आर्टिकल में हम बहुत ही अच्छी ज्ञानवर्धक और MAOTIVATION कहानियाँ लेकर आए है। हम सबको कहानियाँ अच्छी लगती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ,तो कहानियाँ उसे अच्छे से प्रभावित करती है और जीवन भी बदल देती है।

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चलो अब हम कहानियों को पढ़ते है ……..

Short Moral Stories in Hindi

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बहुत समय पहले की बात है, एक राजा अत्यन्त विनम्र और दानी था। अपनी प्रजा से उसे बहुत प्रेम था और सदैव उसके सुख-दुख का ध्यान रखता था। इन्हीं गुणों के कारण उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। दुर्भाग्य से राजा का पुत्र प्रकृति में अपने पिता से बिल्कुल विपरीत था। उसे किसी की कोई चिन्ता नहीं थी। उसके दुष्टतापूर्ण व्यवहार से राजा और प्रजा दोनों ही परेशान थे। उसके पुत्र को सुधारने एवं सही मार्ग पर लाने का बहुत प्रयास किया, परन्तु असफल रहा। उसे ज्ञान देने हेतु दूर-दूर से विद्वान एवं मनीषी बुलाए, परन्तु दुष्ट बालक के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि आयु बढने के साथ-साथ उसके दुगुणों में वृद्धि ही होती गई।

सौभाग्य से एक दिन महात्मा बुद्ध भी, उस राजकुमार को सही मार्ग पर लाने की चेष्टा से उसके पास आए। उन्होंने न तो उसे डराया-धमकाया न बुरा-भला कहा बल्कि स्नेह से एक नीम के पौधे के पास ले गए और राजकुमार से उस पौधे का एक पत्ता चखने को कहा। नीम के पत्ते को खाने से राजकुमार का मुँह कङवा हो गया और क्रोध में आकर उसने उस पौधे को उसी समय उखाङ कर फेंक दिया। महात्मा बुद्ध ने उससे कहा -’’राजकुमार तुमने पौधे को उखाङ कर क्यों फेंक दिया। राजकुमार ने उत्तर दिया कि अभी से इस पौधे के पत्ते इतने कङवे हैं, बङे होने पर तो वे बिलकुल ही विष हो जायेगें, इसलिए इसको जङ से उखाङ देना ही उचित है।

राजकुमार की बात सुनकर महात्मा बुद्ध ने गम्भीर होकर कहा -’’तुम्हारे कङवे व्यवहार से राज्य की जनता भी बहुत पीङित है। यदि तुम्हारी ही नीति जनता भी काम में ले तो तुम्हारी क्या दशा होगी।’’ अतः यदि तुम भी कुछ नाम और यश कमाना चाहते हो तो अपने पूज्य पिताजी की भांति स्वभाव में मीठापन लाओ, प्रजा से स्नेह का व्यवहार करो और सुख-दुख में उसका साथ दो।
महात्मा जी की सीख से राजकुमार पर गहरा प्रभाव पङा और वह अपने पुराने व्यवहार के लिए लज्जित होने लगा। उसी दिन से राजकुमार में गम्भीर परिवर्तन आ गया और दुष्टता त्यागकर उसने भलाई की राह पर चलना प्रारम्भ कर दिया।

Moral:  हमेशा शांत व्यवहार व मीठा बोलना चाहिए ।

Short Moral Stories in Hindi

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एक समय धनपतराय नाम के व्यक्ति की एक नगर में साइकिलों की मरम्मत की दुकान थी। धनपतराय मेहनती, मृदु भाषी एवं ईमानदारी से काम करने वाला व्यक्ति था। वह न तो घटिया किस्म का सामान साइकिलों में लगाता था और न ही मरम्मत का काम बे मन से करता था। धनपतराय अच्छी किस्म के पुर्जे काम में लेता था परन्तु उनका उचित मूल्य ग्राहक वसूलता था। उसके कार्य एवं व्यवहार से सभी ग्राहक प्रसन्न थे और इसी कारण हमेशा उसकी दुकान पर ग्राहकों की भीङ रहती थी। साइकिलों की मरम्मत करने वाले अन्य दुकानदारों की स्थिति धनपतराय से बिल्कुल भिन्न थी।
धनपतराय के एक पुत्र था – सुरेश। वह चाहता था कि सुरेश पढ-लिख जाय तो कोई बङा धंधा कर ले। परन्तु धनपतराय की इच्छा पुरी नहीं हुई और सुरेश का मन पढाई में नहीं लगा। समय गुजरता गया और धनपतराय का बुढापा आ गया। कभी-कभी उसे दिल का दौरा भी पङने लगा। सुरेश न तो पढ ही सका और न साइकिल की मरम्मत का काम अच्छी तरह सीख पाया।

इसलिए दुकान भी अक्सर बन्द रहने लगी। अन्त में धनपतराय ने सोचा कि इतनी बढिया चलती दुकान को अचानक बन्द करने के बजाय तो सुरेश को ही सौंपना उचित है। अतः सुरेश को बुलाकर कहा-
’’मेरा स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता है, इसलिए अब यह दुकान तुमको सौंप रहा हूं। मुझे भरोसा है कि तुम इस को भली प्रकार सम्भाल कर, इसका नाम बनाये रखोगे।’’
धनपतराय के मन से तो भार हल्का हो ही चुका था। अचानक ही दूसरे दिन धनपतराय की तबियत अधिक खराब हो गई। अस्पताल में इलाज करवाने से तबियत तो धीरे-धीरे ठीक होने लगी। परन्तु धनपतराय दुकान पर जाने लायक नहीं हो सके। जब दुकान अच्छी चलती थी, तब सुरेश ने कभी भी इसका कारण जानने और समझने का प्रयास नहीं किया। अब दुकान में भीङ भी नहीं रहती थी। ग्राहकों में काफी कमी आ गई थी। शिष्ट व्यवहार नहीं होने के कारण ग्राहकों के स्थान पर दोस्तों की भीङ लगी रहती थी।

वे दुकानदार जो पहले धनपतराय से डरा करते थे, अब उन्होंने मौके का फायदा उठाया और सारे ग्राहक अपनी ओर खींच लिये। सुरेश भी इस बिगङती स्थिति से चिन्तित था। शाम को जब सुरेश दिन भर का हिसाब पिताजी को बतलाता तो वे उसे देखकर दुःखी हो उठते थे। स्थिति को सुधारने की दृष्टि से धनपतराय ने प्रतिदिन थोङे-थोङे समय के लिए दुकान पर जाना प्रारम्भ कर दिया।

एक दिन जब धनपतराय दुकान पर पहुँचे तो देखा सुरेश किसी पुरजे की अदला-बदली के चक्कर में एक ग्राहक से झगङ रहा है और दोनों ने एक दुसरे का गिरहबान पकङ रखा है। धनपतराय ने विनम्रता से ग्राहक से बात पूछी और तुरन्त ही पुर्जे के रुपये उसको देकर शान्त करके उसे रवाना कर दिया। सुरेश का गुस्सा अपने पिता के कार्य से और भी बढ गया परन्तु धनपतराय शान्त रहे। सुरेश को समझा- बुझाकर कहा- ’’बेटा, दुकानदार को ग्राहक सक झगङा करना शोभा लहीं देता।

ग्राहक से प्रेम से बात करने में ही दुकानदार को लाभ है।’’ कुछ दिन बाद धनपतराय को फिर दिल का दौरा पङा, परन्तुु इलाज कराने के बाद भी सुरेश उनको नहीं बचा सका। पिता की मृत्यु ने उसके मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला और अब वह एक शांत स्वभाव का मधुर भाषी और मेहनती दुकानदार बन गया था। दुकान फिर से चल निकली और धनपतराय के समय जैसी भीङ पुनः होने लगी।

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एक नगर में कोई मनुष्य रहता था। कुछ समय के बाद उसकी पत्नी मर गई। उसकी लङकी का नाम टाम था। एक दिन उसने दूसरा विवाह कर लिया। उसकी सौतेली माँ बालिका से स्नेह नहीं करती थी। पूरे दिन काम करके भूखी बालिका सो जाती थी। सौतेली माँ की भी एक कन्या थी, जिसका नाम काम था।

कुछ दिनों के बाद उसके पिता की मृत्यु हो गई। अब तो टाम नामक कन्या की दुर्दशा होने लगी। यद्यपि पिता का एक विशाल भवन था किन्तु बालिका एक छोटे-से कमरे में रहती, अन्य कक्षों में वह प्रवेश भी नहीं कर सकती थी। घर का सारा काम भी वही करती थी।

सारा काम करने से वह कमजोर हो गई थी परन्तु किसी को कुछ भी नहीं कहती थी।
एक दिन सौतेली माँ ने उसे लकङी लेने वन को भेजा। उसने विचार किया- ’’अच्छा होता यदि इसे कोई भेङिया खा जाता।’’ लेकिन मारने वाले से बचाने वाला बलवान् होता है। सौतेली माँ के दुःख का एक कारण यह भी था कि टाम नामक कन्या सुन्दर होती जा रही थी।
एक दिन सौतेली माँ ने दोनों कन्याओं को कहा- ’’गाँव के तालाब से मछलियाँ पकङ लाओ। जो अधिक मछलियाँ नहीं लायेगी उसे रात्रि में भोजन नहीं मिलेगा।’’ टाम नामक बालिका ने विचार किया- ’’यह नियम केवल मेरे लिए लागू होगा।’’ उसने प्रातःकाल से शाम तक अपनी टोकरी मछलियों से भर ली। भरी हुई टोकरी देखकर काम नामक बालिका ने कहा- ’’हे बहिन! तेरे मुख पर धूल लगी है, इस सरोवर में स्नान क्यों नहीं कर लेती?’’ जब टाम स्नान करने गई तब काम उसकी मछलियों से भरी टोकरी लेकर घर की ओर चल पङी।

टाम विलाप करने लगी। कुछ समय बाद सरोवर से एक जलपरी निकली, उसने विलाप का कारण पूछा। बालिका ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। जलपरी ने कहा- ’’हे पुत्री! शोक मत कर, तेरी टोकरी में मैंने सुनहरी मछली डाल दी है। तू उसे अपने घर के पास वाले कुँए में डाल दे। वह तुम्हारी मन की इच्छापूर्ण करेगी।’’ उसने वैसा ही किया। वह मछली प्रतिदिन उसके साथ बातें करती थी। सौतेली माँ को शंका हुई। उसने टाम नामक बालिका को एक दिन बाहर भेज दिया।
सौतेली माँ ने उस मछली को कुएँ से निकाला और उसे खा गई। शाम को टाम कुएँ के पास आई और मछली को पुकारा परन्तु कोई उत्तर न मिला। वह करुण विलाप करने लगी, तब जलपरी ने कहा- ’’शोक मत कर, मछली की हड्डियों को अपने कमरे में गाङ दे। टाम नामक कन्या ने वैसा ही किया। उस समय उसे एक सुन्दर साङी मिली।

दूसरे दिन उत्सव था। सौतेली माँ ने चावल और चने मिला कर टाम नामक कन्या को कहा- ’’तू इन चावलों में से चनों को अलग कर।’’ ऐसा कहकर सौतेली माँ अपनी लङकी के साथ मेला देखने चली गई। आँसू बहाती हुई कन्या ने विचार किया- ’’मैं साङी पहन कर मेले में कैसे जाऊँगी?’’ उसी समय हजारों चिङियाएं वहाँ आ गईं। क्षणभर में ही चावलों में से चनों को अलग कर दिया। वह शीघ्र ही साङी और जूते पहन कर राजकुमारी की तरह मेले में पहुँची। उसे आयी देखकर काम नामक बालिका ने माँ के कान में कहा- ’’यह बालिका जो राजकुमारी जैसी लग रही है, क्या यही टाम है?’’
सौतेली माँ को देखकर टाम नामक बालिका भय के कारण भागने लगी।

उसका एक जूता वहीं गिर पङा। एक राजपुत्र उस जूते को देखकर मोहित हो गया तथा उसने सैनिकों को आदेश दिया- ’’कुमारी को राजभवन में लाओ।’’ सैनिक ढूंढ़कर उसे वहाँ ले आये। सुन्दरी बालिका को देखकर राजपुत्र ने उसे महारानी बना दिया। यह देखकर सौतेली माँ बहुत दुःखी हुई। एक दिन, पिता के श्राद्ध में टाम अपने पिता के घर आई। ऊपर से प्रसन्न सौतेली माँ ने कहा- ’’पेङ से नारियल के फल तोङकर याचकों को बांटो।

जब वह वृक्ष पर चढ़ी तो सौतेली माँ ने वृक्ष को काट दिया व स्वयं रोती हुई राजा को कहने लगी- ’’हाय! मेरी पुत्री नारियल के वृक्ष से गिर गई और मर गई है।’’
गिरी हुई बालिका को उठाकर एक वृद्धा स्त्री अपने घर ले गई तथा उसका उपचार भी किया। कुछ दिनों के बाद वह स्वस्थ हो गई। इधर सौतेली माँ अपनी पुत्री को राजमहल ले गई तथा राजा को कहने लगी- ’’मेरी पुत्री को महारानी बनाओ।’’ राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

एक दिन राजा शिकार खेलने वन में गया, देखते-देखते सर्वत्र अन्धकार छा गया। उसी वन में कहीं दूर उसने एक जलते हुए दीपक को देखा। बहुत समय बाद वह वहाँ पहुँचा। राजा ने कहा- ’’मैं यहाँ रात्रि में विश्राम करना चाहता हूँ।’’ वृद्धा स्त्री ने राजा का स्वागत किया। वहाँ टाम को देखकर राजा को आश्चर्य हुआ और वह आनन्दित भी हुआ। महारानी के मुँह से सौतेली माँ के द्वारा किया गया सारा वृत्तान्त सुनकर राजा कुपित हुआ और सैनिकांे को आदेश दिया कि महारानी की सौतेली माँ और उसकी पुत्री को कारागार में डाल दो। कारागार में पङी सौतेली माँ ने विचार किया- ’’भगवान के घर देर है अन्धेर नहीं।’’

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लहरों के साथ नाचती लकङी की पेटी समुद्र के किनारे आ गई। धीवरों ने उस पेटी को खोला। उस पेटी में वे दोनों बेहोश पङे थे। कुछ समय बाद फिलिप ने होश आने पर विचार किया कि मैं समुद्र के पास कैसे आ गया?
उसी समय उसे एक सुन्दर मछली दिखाई दी तथा मछली ने उसे पांच साल तक उसकी इच्छा पूर्ति का वरदान दिया।
प्रातःकाल फिलिप ने विचार किया- ’’यदि यहाँ अच्छा महल बन जाता तो!’’ उसी समय वहाँ सुन्दर महल बन कर खङा हो गया। सभी धीवर आश्चर्यचकित रह गये। सभी धीवरों ने फिलिप को कन्धे पर बिठाकर समुद्र का राजा स्वीकार कर लिया।
एक दिन सामन्त की पुत्री ने फिलिप से कहा-अपनी आकृति को क्यों नहीं बदल लेते?’’ फिलिप उसी समय सुन्दर राजपुत्र हो गया। अब वह पहले की तरह निर्बुद्धि भी नहीं रह गया था। फिलिप ने मन में विचार किया- ’’सामन्त ने हमारा जो अपमान किया उसे मैं नहीं सहन करूँगा। परन्तु मछली के कथनानुसार अब पाँच वर्ष में थोङा-सा समय बच गया है।’’
एक दिन सामन्त की पुत्री महल की छत पर बैठी थी। उसने देखा कि एक नाव समुद्र में डूब रही है। उसके इशारे से धीवर नाव को खींचते हुए महल में ले आये। इस नाव में केवल तीन यात्री थे, वे भी सामन्त की पुत्री के परिवार के ही थे। वे घूमने के लिए निकले थे किन्तु आँधी ने उनकी नाव को समुद्र में डुबा दिया। यह देखकर सामन्त की लङकी बहोश हो गई। जल आदि छिङकने पर जब उसे होश आया तब सामन्त को अपने जामाता की सम्पत्ति को देखकर आश्चर्य हुआ।
कुछ समय बाद फिलिप भी वहाँ आ गया। सामन्त ने कहा- ’’आप जैसे जामाता को पाकर मैं कृतार्थ हूँ। आप मेरे लिए भी एक महल यहीं पर बनवा दें ताकि मैं अपनी पुत्री का विवाह आपके साथ कर दूँ और आपको अपना उत्तराधिकारी भी बना दूँ।’’ फिलिप ने मन में विचार किया और महल बन कर खङा हो गया।

लोभ में आकर सामन्त ने फिलिप को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। निश्चित समय पर उनका विवाह हो गया। फिलिप सामन्त को धन से सत्कार करने के लिए समुद्र के किनारे ले गया। फिलिप ने जब मन में विचार किया तब वहाँ रत्नों का ढेर लग गया। इससे सामन्त प्रसन्न हो गया।

फिलिप ने कहा- ’’मैं आपका उत्तराधिकारी बनकर अपने कत्र्तव्य का पालन करता हूँ। आप यहीं पर सुखपूर्वक रहिये।’’ ऐसा कहकर फिलिप ने अपना कार्य आरम्भ कर दिया।
अब दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही मछली के कथनानुसार पाँच वर्ष पूरे होने वाले थे। समय पूरा होते ही मछली के वचन प्रभावहीन हो गये। महल के सभी रत्न लुप्त हो गये। यह देखकर सामन्त पागल सा हो गया लेकिन अब क्या कर सकता था? उसका उत्तराधिकारी फिलिप राज्य के सुख का अनुभव कर रहा था। विधि का विधान विचित्र हुआ करता है।

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हैटी द्वीप में बौकी तथा मैलिस नामक दो भाई रहते थे। बौकी सरल हृदय तथा विनम्र था लेकिन मैलिस बङा चतुर तथा तेज बुद्धि वाला था। मैलिस छल-कपट करके दूसरो को ठग लेता था। एक बार बौकी अपने खेत के अनाज को शहर में ले जाना चाहता था परन्तु उसके पास घोङा नहीं था। वह अपने मौसा के पास उसके गधे को किराये पर लाने गया। मौसा ने कहा- ’’मेरा गधा तो भाग गया है। हम उसे अभी तक भी नहीं ढूंढ़ पाए हैं।’’

बौकी ने कहा- ’’अब मैं अपना अन्न बाजार में कैसे ले जाऊँ?’’ मौसा ने उत्तर दिया- ’’टाउसेंट का घोङा किराये पर ले आ।’’ बौकी ने कहा- ’’ वह वृद्ध बहुत कंजूस है, घोङे का अधिक किराया माँगेगा। वह लोभी तो बात-चीत करने के भी पैसे माँगना चाहता है।’’ नहीं चाहते हुआ भी वह घोङा लेने को चल पङा। टाउसेंट ने अपने घोङे की प्रशंसा करते हुए कहा- ’’इस घोङे का भाङा केवल 15 सिक्के हैं परन्तु इसकी पीठ पर उतना ही बोझा रखना जितना आदमी के सिर पर रखा जाता है।’’

बौकी ने कहा- ’’मेरे पास तो केवल 5 सिक्के हैं।’’ 5 सिक्के छीन कर टाउसेंट ने कहा- ’’10 सिक्के कल दे देना।’’ नहीं चाहते हुए भी बौकी ने घोङे को किराये पर ले लिया।

प्रातःकाल जब वह बाजार जाने को तैयार हुआ तब उसने गधे की पीठ पर बैठकर आते हुए मौसा को देखा। मौसा ने कहा- ’’कल आधी रात में गधा लौट आया है। तुम्हारा काम इस गधे से चल जायेगा। टाउसेंट के घोङे को लौटा दो।’’ बौकी ने कहा- ’’यह बुड्ढा मेरे 5 सिक्के नहीं लौटायेगा।’’ जब बौकी और मौसा इस प्रकार बात-चीत कर रहे थे तब मैलिस भी वहाँ आकर कहने लगा- ’’आप मुझे वहाँ ले चलो, मैं टाउसेंट से तुम्हारे सिक्के लौटवा दूंगा।’’ यह सुनकर बौकी प्रसन्न हो गया। बौकी और मैलिस मिलकर टाउसेंट के घर पहुँचे। वहाँ पहुँच कर मौलिस ने कहा- ’’हम घोङा लेने आये हैं।’’ टाउसेंट ने कहा- ’’घोङा आम के पेङ के नीचे बंधा है लेकिन बकाया धन तो आप मुझे दें।’’

मैलिस ने कहा- ’’आप थोङा ठहरिये, मैं देखता हूँ कि यह घोङा कैसा है?’’ टाउसेंट ने कहा- ’’घोङे के बारे में सब कुछ पहले ही तय हो चुका है।’’ मैलिस फिर कहने लगा- ’’थोङा ठहरो!’’ यह कहकर उसने अपनी जेब से फीता निकाला और घोङे की पीठ को नापने लग गया। फिर बौकी से कहने लगा- ’’घोङे की पीठ पर तुम्हारे लिए 18 इंच स्थान है, मेरे लिए 15 इंच स्थान है। पीछे की और मैलिस की पत्नी और आगे की और बौकी की पत्नी बैठेगी।’’ टाउसेंट बोला- ’’तुम चारों मेरे घोङे की पीठ पर नहीं बैठ सकते।’’

बीच में ही मैलिस बोल उठा- ’’हमारे बालक कहाँ बैठेंगे? अरे मैं समझ गया, जोन बौकी घोङे की गर्दन पर बैठ जायेगे।’’ यह सुनकर टाउसेंट बङा दुःखी हुआ और कहने लगा- ’’तुम सब मूर्ख हो, क्या यह घोङा सभी को ले जा सकता है।’’
मैलिस ने कहा- ’’मैं कुछ नहीं जानता, हम मेले में कैसे जायेंगे? जब घोङे के बारे में सब कुछ पहले ही तय हो चुका है तो हम घोङे को ले जायेंगे, नहीं तो हम न्यायालय में जायेंगे।’’

यह सुनकर टाउसेंट बौकी से कहने लगा- ’’कृपा करके तुम्हारे 5 सिक्के ले लो और मेरा इससे पीछा छुङाओ।’’ यह सुनकर मैलिस जोर से बोला- ’’क्या घोङे की बातचीत 15 सिक्कों में नहीं हुई थी?’’ हम मुकदमे के लिए न्यायालय जायेंगे।’’ घोङे को देखकर बौकी अचानक बोल उठा- ’’अरे! मेरी दादी कहाँ पर बैठेगी? मैं तो उसे भूल ही गया।’’
टाउसेंट ने उनकी धूर्तता देख ली। लम्बी साँस लेकर 15 सिक्के देता हुआ कहने लगा- ’’आप लोग इस घोङे से दूर रहिये।’’ यह कहकर टाउसेंट घोङे की पीठ पर बैठकर तेजी से दौङता हुआ वहाँ से भाग गया।

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पहले किसी गाँव में एक मनुष्य रहता था। उसकी पत्नी मर गई थी। उसी गाँव में एक नारी रहती थी जिसका पति मर चुका था। उन दोनों के एक-एक बालिका थी, वे मित्रता से रहती थी। एक दिन जब मनुष्य की कन्या महिला के घर आई तब महिला ने कहा- ’’तुम घर जाकर अपने पिता को कहो कि मैं उनके साथ विवाह करना चाहती हूँ। यदि मेरा विवाह उसके साथ हो जायेगा तब मैं तुमसे अधिक प्यार करूँगी।’’

जब बालिका अपने घर आई तो उसने सारी बात पिता को कह सुनाई। पिता ने कहा- ’’क्या करूँ? विवाह से सन्तुष्टि भी होती है, दुःख भी।’’ उसने अपनी पुत्री को कहा- ’’बालिके! मेरे जादू वाले जूते को लाओ, उसमें जल भरो। यदि जल उसमें नहीं ठहरेगा तो मैं विवाह करूँगा।’’ उस जूते में एक छेद था। डालते ही सारा जल नीचे गिर गया। शीघ्र ही शुभवेला में उनका विवाह हो गया। पहले तो नारी ने उस बालिका का आदर किया किन्तु बाद में उसे दुःख देने लगी तथा अपनी पुत्री का पोषण अच्छी तरह करती थी, फिर भी दिनों-दिन उसकी कन्या कुरूप एवं कमजोर होती जाती थी।

एक बार सर्दी में जब बर्फ गिर रही थी तब उसने (उस सौतेली माँ ने) कागज का चोगा देकर कन्या को कहा- ’’जंगल में जाकर बेर ले आओ।’’ कन्या ने कहा- ’’इस भयंकर सर्दी में बेर कहाँ मिलेंगे?’’ उसे फटकारती हुई सौतेली माँ यों कहने लगी- ’’हे निर्लज्जे! जब तक तुम बेर नहीं ले आओगी तब तक इस घर के दरवाजे तेरे लिए बन्द रहेंगे।’’ रोती हुई बालिका वन की ओर चल पङी। वन में घूमते हुए उसने एक झोंपङी देखी। वहाँ तीन बौने सिगङी ताप रहे थे। जब वहाँ बैठकर वह कन्या भोजन करने लगी थी तब सफेद मूँछों वाले बौने ने कहा- ’’हमारे लिए भी कुछ भोजन दो।’’ उन चारांे ने अच्छी प्रकार बाँटकर भोजन किया।

सफेद मूँछों वाले बौने ने कहा- ’’तुम इस भयंकर शीत में कैसे आई?’’ उसने सारा वृत्तान्त सुनाया। बौने ने कहा- ’’तुम झाडू लेकर झोंपङी को साफ करो, हम तुम्हारे लिए बेर लायेंगे।’’ बालिका की विनम्रता एवं परिश्रमशीलता को देखकर बौनों ने उसे वरदान दिये। एक ने कहा- ’’यह कन्या दिन-प्रतिदिन सुन्दर हो।’’ दूसरे ने कहा- ’’जब यह बोलगी तब इसके मुंह से सोने के टुकङे गिरेंगे।’’ तीसरे ने कहा- ’’यह कन्या किसी राजकुमार की महारानी बनेगी।’’ बेर के फल लेकर वह घर पहुँची! बेर के फल देखकर माता चकित हो गई।

जब कन्या बोलने लगी तब वहाँ सोने के टुकड़ों का ढेर लग गया। लङकी की इस अमानुषी शक्ति को देखकर सौतली माँ सोेने के टुकङे लेकर चुप हो गई। यह सुनकर सौतेली मां की पुत्री ने कहा- ’’माँ! मैं भी वन में जाकर बेर के फल लाऊँगी।’’ वन में घूमती हुई वह भी वहाँ पहुँची, जहाँ बौने रहते थे। वह इच्छानुसार झोंपङी में जाकर मक्खन खाने लगी।
सफेद मूँछों वाले बौने ने मक्खन माँगा। उसने कहा- ’’मेरे पास मक्खन नहीं है।’’ बौने ने कहा- ’’झाडू लेकर इस झोंपङी को साफ करो।’’ लङकी बोली- ’’क्या मैं तुम्हारी नौकर हूं?’’ ऐसा कहकर बेर लेने के लिए वन में घूमने लगी। उन तीनों बौनों ने उसे शाप दिया। एक बौने ने कहा- ’’यह दिन-प्रतिदिन कुरूप होती जायेगी।’’ दूसरे बौने ने कहा- ’’जब यह बोलगी तो इसके मुंह से मेढ़क निकलेंगे।’’ तीसरे बौने ने कहा- ’’यह दुखित होकर मरेगी।’’ कहीं भी उसे बेर नहीं मिले और वह घर पहुँची। जब वह बोलने लगी तब उसके मुंह से मेंढ़क निकले।

पुत्री की यह स्थिति देखकर माता बहुत दुःखी हुई। एक दिन सौतेली माँ ने पुत्री को कहा- ’’इस जाल को लेकर बर्फ में गाङ दो।’’ वह वैसा ही करने लगी। उसी मार्ग से एक राजा जा रहा था। सुन्दर बालिका को देखकर उसने कहा- ’’सुन्दरी बालिके! क्या तू मेरे साथ विवाह करेगी?’’ बालिका ने कहा- ’’यह मेरा महान् सौभाग्य होगा।’’ राजा बालिका को राजमहल में ले आया और उन दोनों का विवाह हो गया।

एक वर्ष बाद उसने एक पुत्री को जन्म दिया। जब सौतेली माँ ने सुना कि वह कन्या महारानी बन चुकी है, तब ईष्र्या से अपनी लङकी के साथ राजभवन गई तथा कहने लगी- ’’हे पुत्री! तुम मुझसे सलाह लिये बिना ही यहाँ आ गई।’’

बालिका ने सौतेली माता का सत्कार किया परन्तु दूसरे दिन, जब राजा नगर के बाहर गया हुआ था तब उन दोनों ने उस लङकी को पकङा और राजमहल के समीप ही नदी में डाल दिया तथा अपनी लङकी को उसके स्थान पर सुला दिया।

राजा अपने महल में लौटा तब सौतेली माँ ने कहा- ’’मेरी महारानी बेटी सोई हुई है, आप विश्राम कीजिये।’’ राजा लेट गया। इधर महारानी नदी को पार कर निकल आई। उसने सारी कहानी राजा को सुनाई। क्रुद्ध होकर राजा ने सौतेली माँ को तथा कुरूप बालिका को पेटी में बन्द करके पहाङ की चोटी से उन्हें गिराने का आदेश दिया। इसीलिए किसी ने कहा है- ’’मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है।’’

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किसी स्थान पर तीन भाई साथ ही रहते थे। उनके घर में एक फलवाला वृक्ष था। उन भाइयों में से एक भाई उस वृक्ष की रखवाली के लिए हमेशा वहीं रहता था। एक बार स्वर्ग के एक देवदूत ने भिक्षुक के रूप में उनकी परीक्षा करने के लिए पूछा- ’’मुझे एक फल दो।’’ ज्येष्ठ भ्राता ने अपने हिस्से का फल उसे दे दिया। देवदूत वहाँ से चला गया। दूसरे दिन वह देवदूत फिर आया और भिक्षुक के रूप में फल माँगने लगा। दूसरे भाई ने भी अपने हिस्से का फल दे दिया। तीसरे दिन प्रातःकाल वह देवदूत साधु के रूप में आया।

उस समय सभी भाई वहीं थे। साधु ने कहा- ’’ मेरे साथ चलो।’’ तीनों भाई उसके साथ चलते हुए नदी के पास पहुंचे। साधु ने कहा- ’’ माँगो, क्या चाहते हो।’’ ज्येष्ठ भ्राता ने कहा- ’’कितना अच्छा होता यदि इस नदी का जल शराब के रूप में बदल जाता। उसी समय नदी का जल शराब के रूप में बदल गया। साधु ने कहा- ’’तेरी इच्छा पूर्ण हो गई, परन्तु गरीबों को मत भूलना।’’
साधु दोनों भाइयों के साथ आगे चला और एक विशाल मैदान में पहुँचा जहाँ कबूतर दाना चुग रहे थे। साधु ने कहा- ’’मांगो क्या चाहता हो?’’ दूसरे भाई ने कहा- ’’ये कबूतर यदि भेङों के रूप में बदल जाते तो क्या ही अच्छा होता।’’ उसी समय विशाल मैदान भेङों से भर गया। साधु ने कहा- ’’तेरी इच्छा पूर्ण हो गई, परन्तु गरीबों को मत भूलना।’’
तदनन्तर आगे चलते हुए साधु ने छोटे भाई को कहा- ’’माँगो, क्या चाहते हो?’’ उसने कहा- ’’मैं धर्मपरायण स्त्री को चाहता हूँ।’’

साधु ने कहा- ’’इस संसार में केवल तीन धर्मपरायण स्त्रियां है, उनमें से दो का विवाह हो चुका है और तीसरी राजपुत्री है जिसके साथ दो राजकुमार विवाह करना चाहते हैं।’’ छोटे भाई ने फिर भी अपनी इच्छा वही बताई। तब साधु राजा के पास गया और उसने राजा को अपने मन की इच्छा बतलाई। राजा सोच में पङ गया कि अब मैं क्या करूँ। साधु ने कहा- ’’अंगूर की तीन डालियाँ लाओ उन तीनों में इनके अलग-अलग नाम लिखो और रात्रि में बगीचे में गाङ दो। प्रातःकाल जिस डाली में अंगूर लगेंगे उसके साथ इस राजपुत्री का विवाह होगा।’’ राजा ने यह स्वीकार कर लिया। सुबह छोटे भाई के नाम की डाली में अंगूर लगे हुए थे।

अतः उस छोटे भाई के साथ राजकुमारी का विवाह हो गया। वे अपने देश की ओर लौट आये। एक वर्ष बाद देवदूत ने विचार किया- ’पृथ्वी पर जाकर देखूँगा कि वे भाई क्या कर रहे हैं? भिक्षुक के रूप में बङे भाई के पास आया। साधु ने कहा- ’’एक प्याला शराब दो।’’ क्रोध से वह कहने लगा- ’’बेवकूफ! शीघ्र यहाँ से चले जाओ, मैं बिना मूल्य के शराब नहीं देता।’’ देवदूत ने क्रुद्ध होकर कहा- ’’तू गरीबों को भूल गया है। पहले की तरह अपने पेङ की रक्षा करो।’’ उसी समय उस जगह शराब पानी में बदल गई।

देवदूत अब गङेरिये की परीक्षा करने निकला। भिक्षुक वहाँ जाकर कहने लगा- ’’पीने के लिए दूध दो।’’ उसने कहा- ’’मैं आलसी को दूध नहीं देता हूँ।’’ क्रुद्ध होकर देवदूत ने कहा- ’’तू भी निर्धनों को भूल गया है। पहले की तरह ही पेङ की रक्षा कर।’’ देवदूत शीघ्र ही छोटे भाई की परीक्षा के लिए निकल पङा जो जंगल में झोंपङी में रहता था। भिक्षुक ने कहा- ’’मुझे कुछ भोजन दो।’’
छोटे भाई ने कहा- ’’यद्यपि हम निर्धन हैं, फिर भी आप सुखपूर्वक रहिये।’’ उसकी गरीबी को देखकर देवदूत ने कहा- ’’तू गरीबों को नहीं भूला है, तेरा कल्याण होगा।’’ देवदूत की कृपा से झोंपङी की जगह विशाल महल बन गया। अनेक नौकर इधर-उधर घूम रहे थे। वृद्ध भिक्षुक उन्हें आशीर्वाद देता हुआ कहने लगा- ’’तुझे ईश्वर ने सम्पत्ति दी है जब तक तू निर्धनों की सहायता करेगा तब तक यह सम्पत्ति तेरे पास रहेगी।’’ देवदूत की कृपा से इसके बाद भी वह सुखपूर्वक रहा।

hindi moral stories

एक बार कैलासवासी शिव माता पार्वती के साथ समुद्र यात्रा करते हुए लोमोलोमो द्वीप में पहुँचे। वे दोनों द्वीप के किनारे घूम रहे थे। इस द्वीप में तिमोदी नामक एक अनाथ युवक रहता था। वह बहुत ही निर्धन था। समुद्र से मछलियाँ पकङकर तथा पर्वतों से कन्द-मूल-फल लाकर वह अपना पेट भरता था। तिमोदी गहरे समुद्र में बङी कुशलता से अपनी नाव चलाता था। फिजी द्वीप का एक भी नाविक उसके समान नाव नहीं चला सकता था। एक बार किसी धनी नाविक के साथ उसका परिचय हुआ।

अभिमानी धनी नाविक तिमोदी को पराजित करना चाहता था। उसने कहा- ’’अपनी नाव के साथ, इस द्वीप से वीतीलेबू द्वीप तक जो पहले पहुँच जायेगा उसे विजेता गिना जाएगा। जो हारेगा उसे अपने हाथ जीतने वाले के पास अमानत के रूप में रखने होंगे और दस नावें देनी होंगी।’’ उन दोनों ने इसके लिए दिन तथा समय भी निश्चित कर लिया।
निश्चित दिन आने पर दोनों नाविकों ने अपनी-अपनी नाव के साथ विजय यात्रा आरम्भ कर दी। कुछ समय बाद समुद्र में शीघ्र ही आँधी आ गई। बुरे भाग्य के कारण तिमोदी की नाव समुद्र के जल में डूब गई। जब तक वह नाव को पुनः जोङता है तब तक धनी नाविक बहुत दूर निकल जाता है और विजयी हो जाता है। हार कर तिमोदी ने पहले की सभी शर्तें स्वीकार कर लीं। चिन्ता में डूबा हुआ तिमोदी घर से निकल पङा।

अब वह हाथों के बिना मछलियाँ भी नहीं पकङ सकता था और कन्द-मूल-फल भी नहीं ला सकता था। भूख से तङपते हुए उसे चार दिन हो गये। पाँचवें दिन भी वह अरण्यरोदन-सा करता हुआ इधर-उधर घूम रहा था। अब वह चल भी नहीं सकता था। वह किसी वृक्ष के नीचे बैठ कर ऊँचे स्वर में रो रहा था।

इधर द्वीप के किनारे घूमते हुए शिव-पार्वती भी उस वन में पहुँचे। किसी के रोने की आवाज सुनकर पार्वती ने शिव को वहाँ चलने के लिए कहा किन्तु भगवान शिव अनाथ के करुण-रोदन से भी द्रवित नहीं हुए। बार-बार रोने की आवाज सुनकर पार्वती द्रवित हुई और आग्रहपूर्वक शिव को वहाँ ले गई जहाँ तिमोदी रो रहा था। तिमोदी की हालत देखकर शिव ने कहा- ’’वत्स! तुम्हारे हाथ कहाँ गये और तुम क्यों विलाप कर रहे हो?’’

तिमोदी ने सारी घटना शिव को सुनाई।
सारा वृत्तान्त सुनकर शिव की करुणावश काँप उठे। शिव ने अपनी माया से आँधी चलाकर वहाँ बहुत-से फल प्रकट कर दिये, जमीन से पैर मारकर जलधारा उत्पन्न कर दी। ’निर्मल, शीतल जलधारा तथा अनेक प्रकार के फलों को देखकर तिमोदी हर्ष से नाच उठा। शिव के प्रति उसने भावभक्ति प्रदर्शित की।

शिव-पार्वती वहाँ से निकल पङे परन्तु तिमोदी उस वृक्ष के नीचे शिव की भक्ति करता हुआ समाधिस्थ हो गया। कुछ समय बाद पार्वती के साथ शिव भी उस जंगल में पहुँचे और उन्होंने वृक्ष के नीचे ध्यान-मग्न तिमोदी को देखा। शिव ने दर्शन देकर भक्त तिमोदी को कृतार्थ कर दिया। शिव ने अपने भक्त तिमोदी को आदेश दिया कि तुम ऐसे फलों की खेती करो जिनमें जल तथा फल साथ ही उत्पन्न हों। आश्चर्य में पङे हुए तिमोदी ने भगवान को पूछा- ’’भगवन्! उस वृक्ष का नाम क्या है? हाथ और बैलों के बिना मैं उन वृक्षों की खेती कैसे कर सकता हूँ?’’

आशुतोष शिव ने कहा- ’’वत्स! चिन्ता मत करो, सब ठीक हो जायेगा।’’ ऐसा कहकर शिव-पार्वती अन्तध्र्यान हो गए। शिव ने कैलास पहुँचकर अपने पुत्र गणेश को आदेश दिया ’’पुत्र! केरल प्रदेश में जाओ, वहाँ से नारियल का फल लेकर, फिजी द्वीप में रहने वाले भक्त-प्रवर तिमोदी को नारियल की कृषि के विषय में निर्देश देकर शीघ्र यहाँ आ जाओ।’’

’’आपकी आज्ञा शिरोधार्य है’’ ऐसा कहकर पिता को प्रणाम करके गणेश उस दिशा की ओर चल पङे जहाँ तिमोदी तपस्या कर रहा था। नम्रता से युक्त तिमोदी ने गणेशजी को बार-बार नमस्कार किया। शिव के पुत्र गणेश ने तिमोदी को नारियल बोने की विधि बतलाई और कैलास की ओर लौट पङे। तिमोदी ने एक नारियल के फल से अनेक नारियल के फल पैदा किये। धीरे-धीरे प्रशान्त महासागर के सभी द्वीपों में इस फल की खेती का विस्तार किया। तिमोदी ने नारियल के फल बेचकर बहुत धन भी कमाया। उस धन से उसने धनी नाविक की नावें भी ले लीं। अपना विवाह भी किया तथा सुखपूर्वक रहने लगा।

यह कहा जाता है कि शिव के तीन नेत्र हैं, इसीलिए तो नारियल के भी तीन नेत्र होते हैं तथा शिव के सिर की जटाओं की तरह नारियल में भी जटाएं होती हैं। गणेशजी केकङे पर बैठकर तिमोदी के पास गये थे इसी कारण सभी केकङों की पीठ पर गणेशजी की पूर्ति विराजमान है-फीजी द्वीप वालों का ऐसा विश्वास है।

motivational story in hindi

किसी राजा ने घोषणा करवायी कि वनों में जो हरिण हैं वे राजा के हैं। उनको जो मारेगा उसे दण्ड मिलेगा। एक बालक जो धीर और वीर था, बाण चलाने में भी निपुण था तथा वनों में पशु-पक्षियों का वध करता था, उसका नाम था रोबिनहुड। एक बार राजा के मंत्री के साथ उसकी मित्रता हो गई। सचिव भी बन्दूक चलाने में निपुण था परन्तु रोबिन के समान नहीं था।

यह बालक मुझसे भी निपुण है यह देखकर मन में दुःखी होता हुआ भी वह उसकी प्रशंसा किया करता था। उसी समय, अचानक आवाज सुनाई दी। सचिव ने कहा- ’’यदि तू इस हरिण को मार देगा तो मैं तुझे इनाम दूँगा।’’ राबिनहुड ने कहा- ’’मैं राजा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूँगा।’’ सचिव ने कहा- ’’मैं किसी से भी कुछ नहीं कहूँगा। राजा मेरे वश में है।’’
रोबिन को उस पर विश्वास हो गया और उसने शीघ्र ही बाण चलाया, हरिण को मार दिया। सचिव ने कहा- ’’हरिण का वध करने के कारण तुम्हें दण्ड भोगना पङेगा।’’ इस प्रकार उन दोनों में झगङा हो गया। रोबिन धनुष चढ़ाकर गरजने लगा। सचिव डर के मारे भाग गया। रोबिन ने विचार किया- ’’नगर में जाने पर मेरा बुरा ही होगा अतः जंगलों में जाकर जीवनयापन करूँगा।’’ उसके साथ बहुत-से लोग चलने लगे। वे सभी दल-बल के साथ जहाँ कहीं रहते। उसके दल की सब जगह चर्चा होने लगी।
एक दिन प्रातःकाल जब वे घूम रहे थे तब उन्होंने सङक पर रोती हुए एक वृद्धा को देखा। उन्होंने पूछा- ’’क्यों रो रही हो?’’ वृद्धा ने उत्तर दिया- ’’हरिण को मारने के कारण मेरे लङकों को फाँसी लग रही है। मेरा पति पहले ही मर चुका है। मैं निर्धन हूँ, पुत्रों के बिना अपना जीवन कैसे बिताऊँगी? यह सुनकर रोबिन को दया आ गई और वह बोला- ’’चिन्ता मत करो। तुम्हारे पुत्रों को फाँसी नहीं लगेगी, उनके स्थान पर मैं अपनी बलि दे दूंगा।’’ वृद्धा प्रसन्न होती हुई अपने घर लौट गई।
रोबिन ने शीघ्र ही अपने सहयोगियों को बुलाया और कहा- ’’सभी फाँसी घर के पास तैयार रहो, जब मैं बिगुल बजाऊँ तब सभी निकल कर हमला कर देना।’’ रोबिन सङक की ओर चल पङा। वहाँ उसने एक भिक्षुक को देखा। भिक्षुक को देखकर रोबिन ने कहा- अपने वस्त्र उतार कर मुझे दो, मेरे वस्त्र तुम पहनो।’’ उन दोनों ने अपने वस्त्र बदल लिये। भिक्षुक नये वस्त्र पहन कर प्रसन्न हो गया। भिक्षुक का वेश धारण करके रोबिन चल पङा। रास्ते में सचिव आ रहा था। भिक्षुक ने सचिव को देखकर उससे भिक्षा माँगी।
घोङे से उतरकर, भिक्षुक को घृणापूर्वक देखकर सचिव ने कहा- ’’क्या चाहते हो? मैं प्रातःकाल से ही उस आदमी को ढूँढ़ रहा हूँ जो फाँसी लगाने का कार्य कर सके। क्या तू यह कार्य कर सकता है?’’ भिक्षुक ने कहा- ’’क्यों नहीं करूँगा?’’ सचिव ने प्रसन्न होते हुए कहा- ’’मेरे साथ चल!’’ वह भिक्षुक को फाँसी घर की ओर ले गया। रोबिन ने जब उस फाँसी घर में उस वृद्धा के पुत्रों की और लोगों की भीङ देखी तो उसे आश्चर्य हुआ।

सचिव ने कहा- ’’अरे भिक्षुक! जल्दी करो, समय बीत रहा है।’’ भिक्षुक ने कहा- ’’ क्या मृत्युदण्ड से पहले ईश्वर की प्रार्थना नहीं करते हो? क्या यहाँ कोई उपदेशक भी नहीं है? नहीं, प्रार्थना तो करनी ही चाहिये। मैं उपदेशक को बुलाता हूँ।’’ भिक्षुक ने शीघ्र ही बिगुल बजाया। धनुष लेकर रोबिन के सभी सहयोगी चारों ओर फैल गये। अत्याचारी उस सचिव को भयभीत देखकर सभी हँसने लगे।

रोबिन ने वृद्धा के पुत्रों को बन्धक-मुक्त करके कहा- सुखपूर्वक अपने घर जाओ!’’
रोबिन सचिव को खींचकर फाँसी घर के पास ले जाकर कहने लगा- ’’अब मैं तुम्हारा वध करूँगा।’’ सचिव ने बार-बार प्रणाम करते हुए कहा- ’’हे अनाथों के नाथ! मुझे छोङो।’’ रोबिन ने कहा- ’’यदि तेरा राजा भविष्य में हरिणों के मारने पर फाँसी की सजा नहीं देगा तो मैं तुझे बन्धन-मुक्त करता हूँ।’’ सचिव ने कहा- ’’हां ऐसा ही होगा।’’ वह रोबिन के पैरों में गिर पङा। रोबिन अपने लोगों के साथ फिर जंगल में चला गया।

लोगों ने अत्याचारी राजा को सिंहासन से उतार दिया और अमात्य को भी। उस स्थान पर सुयोग्य, प्रजाहित चिन्तक राजा का वरण किया। रोबिन ने उसी तरह अपना जंगली जीवन बिताया। जंगल में भी न्यायप्रिय राजा की कीर्ति फैल गई। एक बार रोबिन शिकार खेलने गया। उसने देखा कि एक सुन्दर युवक घोङे पर बैठ कर आ रहा है। धनुष निकाल कर रोबिन ने कहा- ’’जो कुछ तुम्हारे पास है, वह हमें दे दो।’’ राजा ने सब धन निकाल कर उसे दे दिया। रोबिन ने निश्चय किया कि यह तो राजा है। सारा धन लौटा कर रोबिन ने क्षमा माँगते हुए कहा- ’’आप जैसे राजा को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ।’’

इस समय भी कुछ लोग अत्याचारी हैं उनका नियमन करके आप सुखपूर्वक राज्य कीजिये। राजा ने कहा- ’’आप लोग वनवासी हो, शूर हो, धनुष-बाण चलाने में कुशल हो। आपके सहयोग के बिना राज्य कैसे सुराज्य हो सकता है?’’ रोबिन राजा को अपने निवास स्थान पर लाया और विधिपूर्वक उसका स्वागत किया, प्रीतिभोज देकर अपनी जाति का धनुष कौशल दिखाया।

उनका सत्कार स्वीकार करके राजा ने कहा- ’’आप लोग मेरे नगर की ओर चलिये, अपनी योग्यता के अनुसार कार्य कीजिये ताकि राज्य की उन्नति हो सके।’’ रोबिन और उसके सहयोगियों ने राजा के साथ नगर में प्रवेश किया और सुखपूर्वक जीवन बिताया।

सच्ची मित्रता

एक समय बंगाल प्रान्त में, वर्धमान के एक विद्यालय की दसवीं कक्षा में एक बालक पढ़ता था। बालक कुशाग्रबुद्धि साहसी, निर्भीक एवं सेवाभावी था। बालक खेल-कूद में भी भाग लेता था, परन्तु परीक्षा के दिनों में वह खेल-कूद में भाग लेना बन्द कर दिया करता था।
मिलनसार बालक होने की वजह से, उसका खेलने नहीं आना साथियों को बहुत अखराता। वे उसकी तलाश करते उसके घर जा पहुँचे। बालकों की बात सुनकर माँ अचम्भे में पङ गई और बोली-वह तो तुम लोगों के साथ खेलने रोज जाया करता है, बल्कि आज-कल तो कुछ देरी से लौटता है। बालकों ने माताजी को बताया कि वह तो करीब एक महीने से खेलने नहीं आ रहा है। माँ अचम्भे और चिन्ता में पङ गई।

रात्रि को जब बालक घर लौटा तो माँ ने पूछा- ’’बेटा तू शाम को खेलने नहीं जाता, फिर कहाँ इतनी देर तक रहता है।’’ बालक ने निर्भीकता से उत्तर दिया- ’’माँ मेरा एक साथी बहुत गरीब है और परीक्षा की फीस तक नहीं दे सकता। उसी की सहायता करने के लिए मैंने दो बच्चों की ट्यूशन कर रखी है।’’ माँ ने बालक से कहा, मित्र की सहायता के लिए मुझसे पैसा माँग लेता-कोई बुरी बात नहीं थी।

बालक ने दृढ़ता से उत्तर-दिया ’’माँ मित्र की सहायता के लिए मैंने आपसे पैसा मांगना उचित नहीं समझा। जो स्वयं को मेहनत से मिलेगा, उसी पैसे से मित्र की मदद करूंगा।’’ बालक के परिश्रम एवं परोपकार की बात सुनकर माँ को बहुत ही प्रसन्नता हुई। वह परोपकारी एवं परिश्रमी बालक सुभाषचन्द्र बोस था।

समय की कीमत

सर बेंजामिन फ्रेंकलिन संसार के महान व्यक्तियों में से एक हुए हैं। वे समय की कीमत भली भांति समझते थे। एक बार कोई व्यक्ति उनकी दुकान पर कोई पुस्तक खरीदने आया। दुकान के नौकर ने ग्राहक के पूछने पर पुस्तक का मूल्य एक डालर बतला दिया। ग्राहक को कीमत कुछ अधिक लगी, अतः उसने नौकर से पूछा कि क्या कीमत इससे कम नहीं होगी। नौकर के मना करने पर ग्राहक ने स्वयं बेंजामिन से उस पुस्तक का मूल्य पूछा।

बेंजामिन ने कहा- ’सवा डालर’ ग्राहक आश्चर्य चकित होकर बोला- ’सर आपके नौकर ने तो इसका मूल्य एक डालर ही बताया था।’ बेंजामिन ने उत्तर दिया- काम छोङकर मेरे आने से समय का हर्जा भी तो पुस्तक के मूल्य में ही जुङेगा। ग्राहक के सर बेंजामिन की बात को हँसी समझकर पुनः पुस्तक के मूल्य का पुष्टीकरण करना चाहा, तो सर बेंजामिन ने इस बार पुस्तक का मूल्रू डेढ़ डालर बताया। अब ग्राहक सही बात एवं समय की कीमत समझ चुका था।

शिक्षा कैसी

’मेरे पुत्र को शिक्षा ग्रहण करनी है, मैं जानता हूँ, प्रत्येक व्यक्ति सही नागरिक नहीं होता और न ही सब छोटे से बङे होकर सत्य के पुजारी होते हैं, किन्तु कृपया मेरे बच्चे को ऐसी शिक्षा दीजिएगा, कि वह प्रत्येक दुष्ट व्यक्ति के लिए एक आदर्श नायक और प्रत्येक स्वार्थी राजनीतिज्ञ के लिए एक निष्ठावान संघर्षवादी नायक बने। मेरे बच्चे को यह भी बतलाइएगा कि जहाँ शत्रु होते हैं, वहाँ मित्र भी है।

मैं जानता हूँ कि उसे इस तरह की शिक्षा प्राप्त करने में समय लगेगा। मेहनत से कमाया हुआ एक डालर पाँच पौंड से अधिक होता है। उसे जीवन में हारने और जीतने के गौरव को सहर्ष स्वीकार करने की भी शिक्षा दीजिएगा।

उसे ईष्र्या से दूर रखने का प्रयास कीजिएगा। कृपया उसे मौन होकर हँसने के रहस्य को सीखाइएगा……… उसे किताबों के आश्चर्यमय जगत से परिचित कराइएगा और पहाङों पर खिले हुए फूल के चिरन्तन रहस्य को भी बतलाइएगा। उसे यह सिखाइएगा कि नकल करने से सम्मानपूर्वक असफल होना अधिक गरिमामय है। उसे बतलाइएगा कि असफलता के कारण जो आँसू टपके उसमें कोई लज्जा नहीं है…… उसे यह भी बतलाइएगा कि चाहे दुनियाँ उसे गलत समझे, फिर भी अपने ऊपर भरोसा रखे। उसे भद्र लोगों के साथ भद्रता और दुष्टों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए।

मेरे पुत्र को बराबर बताते रहिएगा कि वह भीङ का एक आदमी न बनें। उसे बतलाइएगा कि वह सबकी तो सुने लेकिन सत्य की चलनी से छानकर उसे सुने और देखें और फिर ऐसे सत्य में जो भलाई हो, उसे ग्रहण करे।

यदि आपके लिए सम्भव हो तो उसे दुःख के समय हँसना और सुख-दुःख बोध से ऊपर उठने की सीख दीजिएगा। कृपया उसे अधिक मधुरता से बचने को कहिएगा। उसे यह भी बताइएगा कि अपनी बुद्धि एवं अपना पसीना बेचते समय सबसे अधिक कीमत लगाने वाले को ही बेचे, किन्तु अपने हृदय और आत्मा के मूल्य को भी समझे।

लोहा आग में जलाने से मजबूत होता है, इसलिए उसे स्नेह का ताप दीजिए, केवल लाङ नहीं। उसे धैर्यवान होने का साहस दीजिए और शौर्य के लिए धैर्य की शिक्षा दीजिए। उसे अपने कृत्यों में गरिमामय आस्था बोध का पाठ पढ़ाइएगा, तभी वह मानवता की गरिमा में विश्वास करेगा।

अन्न दोष

एक महात्मा राजगुरु थे। समय-समय पर वे राजा को उपदेश देने राजमहल में जाया करते थे। एक दिन वे राजा को उपदेश देकर, भोजन करने के बाद, महल के एक कक्ष में अकेले ही लेटे हुए थे। उसी कक्ष में खूँटी पर राजा का मोतियों का हार टंगा हुआ था। महात्माजी के मन में अचानक ही लोभ आ गया और उन्होंने उस को खूँटी से उतारकर अपनी झोली में डाल दिया और अपनी कुटिया की ओर रवाना हो गए। कुछ समय पश्चात् हार न दिखाई देने पर, उसकी खोज प्रारम्भ हुई महात्माजी पर तो शक का कोई प्रश्न ही नहीं था।

लेकिन महल के नौकर-चाकर परेशान थे। कुछ दिवस व्यतीत हो जाने पर, जब महात्माजी के मन का मैल दूर हुआ तो उन्हें अपने किए पर घोर पश्चाताप हुआ और स्वयं ही हार को लेकर राजा के सामने रख कर बोले- ’’बुद्धि खराब होने के कारण मैं इस हार को चुराकर ले गया था और अपनी भूल का अहसास होने पर, मैं इसे वापिस करने आया हूं, मुझे अधिक दुःख इस बात का है कि मेरे कारण महल के नौकर चाकरों पर कितना अत्याचार हुआ होगा।’’

राजा को राजगुरु की बात पर विश्वास नहीं हुआ। राजा बोले, ऐसा लगता है, हार चुराने वाला आपके पास पहुँचा होगा और उसे बचाने हेतु यह अपराध आपने अपने ऊपर ले लिया है। महात्माजी ने पुनः राजा को विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि वास्तविक चोर वे स्वयं ही हैं। पर वे यह निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि, उनकी निर्लोभ वृत्ति में इस पाप ने कैसे प्रवेश किया। महात्माजी पुनः बोले कि- ’’आज प्रातः से ही हमें अतिसार हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जो भोजन आपके यहाँ किया था, उससे मेरे निर्मल मन पर बुरा प्रभाव पङा है। अब दस्त हो जाने से उस अन्न का अधिकांश भाग बाहर निकल जाने पर मेरे मन का पाप दूर हो गया है।’’

राजा ने पता लगाया तो मालूम हुआ कि उस दिन का भोजन एक चोर द्वारा चुराए गए गेहूँ से बनाया गया था। यह सुनकर महात्माजी ने कहा, शास्त्रों में लिखा है कि राज्य का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। जैसे शारीरिक रोगों के सूक्ष्म कीटाणु फैलकर रोग का विस्तार करते हैं। ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म मानसिक परमाणु भी अपना प्रभाव फैलाते हैं।’’
कहावत प्रसिद्ध है – ’’जैसा अन्न वैसी बुद्धि।’’

जीवन की नश्वरता

एक दिन प्रजापति को बहुत उदास देख कर, इन्द्र ने पूछा-भगवन्, आज इतने परेशान क्यों दिखलाई दे रहे हैं? प्रजापति ने कहा- ’’मैंने मनुष्य को बुद्धि का उपहार और कर्म की घूंट, यह सोच कर दी थी कि वह इनका सदुपयोग करेगा। परन्तु वह तो इनका सही उपयोग नहीं कर रहा है। यही सोचकर मन दुःखी है। यमराज पास ही विराजे हुए थे।

उन्होंने प्रजापति की बात काटकर कहा- ’’परन्तु मेरे पास तो जब भी मनुष्य आता है बहुत ही विनम्र और दीन भाव से आता है।’’ इन्द्र भगवान तुरन्त ही यमराज से बोले – ’आपका तो मनुष्य से मृत्यु के क्षणों में पाला पङता है। मनुष्य के सामान्य जीवन के व्यवहार को देखकर आप भी भौचक्के रह जायेंगे।

प्रजापति पहले ही व्यथित थे। अब उन्हें एक और नई जानकारी प्राप्त हुई। उन्होंने तुरन्त ही नारदजी को बुलाकर कहा- ’मृत्युलोक में जाकर, मनुष्य को जीवन को नश्वरता का बोध कराओ जिससे वह मृत्यु के डर से हमेशा विनम्र और सज्जन बना रहे।

सोने की ऊन

बहुत पहले यूनान में समुद्र के पास आइलोकस नामक स्थान पर एसन नाम का राजा रहता था। यह राजा वृद्ध तथा सज्जन था। किन्तु उसका छोटा भाई पेलियस दुष्ट था। जो अपने भाई को सिंहासन से उतार कर स्वयं राजा बन बैठा था। एसन ने राज सिंहासन छोङकर ऐसा प्रबन्ध किया कि उसका लङका जेसन भविष्य में सुखी हो जाये। उसको पहाङ की घाटी में केन्टोरास ने युद्ध कला का प्रशिक्षण दिया।

कुछ समय बाद जेसन जवान हुआ। उसने विचार किया कि मैं पिता के अपमान का बदला लूँगा। वह वहाँ से चल पङा। रास्ते में जब वह नदी पार कर रहा था तब उसके पैर से एक जूता बह गया। एक ही जूते से वह आइलोकस पहुँचा। उसे एक जूता वाला देख कर नागरिक आश्चर्य में पङ गए। जेसन ने कहा- ’’आप मुझे देख कर आश्चर्य क्यों कर रहे हैं?’’ उनमें से एक वृद्ध बोला- ’’भाई! आपको देख कर पेलियस भयभीत हो जायेगा। क्योंकि किसी ज्योतिषी ने उससे पहले कहा था कि यदि कोई एक जूता पहना हुआ व्यक्ति तेरे राज्य में आयेगा तब तेरा सर्वनाश होगा।’’

यह सुनकर जेसन प्रसन्न हुआ और शीघ्र ही राजमहल में पहुँच कर पेलियस को युद्ध के लिए ललकारने लगा। भयभीत पेलियस ने कहा- ’’अरे युवक! तुम कौन हो?’’ उसने उत्तर दिया- ’’मैं तुम्हारे बङे भाई का पुत्र जेसन हूँ। पिता की हार का बदला लेने के लिए आया हूँ।’’ सब कुछ जानते हुए भी धूर्त पेलियस ने कहा- ’’पुत्र जेसन! तुमसे मिलकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अपनी पुत्री का विवाह तुझसे करके तुम्हें ही सिंहासन पर बिठाऊँगा।’’ राजमहल में जाकर उसका आदर-सत्कार किया। सरल स्वभाव वाले जेसन को उसने ठग लिया।

एक बार पेलियस ने कहा- ’’हे पुत्र! पश्चिम दिशा में कोलाचिस नामक एक राज्य है। उस राजा के पास सोने की ऊन है। जो उस ऊन को लायेगा, वही वीर कहलायेगा।’’ पेलियस ने विचार किया, यह कार्य सरल नहीं है, ऊन लाने में उसकी मृत्यु हो जायेगी। परन्तु जेसन तो वीर युवक था। जेसन की यात्रा के लिए 50 योद्धा तैयार किये गये तथा एक पानी का जहाज। यह देखकर कोलाचिस नगर के राजा ने आकर कहा- ’’आप लोग यहाँ क्यों आये हैं?’’ उन्होंने कहा- ’’सोने की ऊन लेने के लिए हम यहाँ आये हैं।’’ कोलाचिस ने कहा- ’’यह कार्य बहुत कठिन है। पहले तुम किसी खेत में आग उगलने वाले बैलों को जोतकर खेती करो उसमें अजगर के दाँत बोओ।’’ वीर जेसन ने कहा, ’’राजन्! यह सब कुछ मैं करूँगा।’’

उस युवक की सारी बात सुनकर, पास में खङी राजकुमारी मीडिया उसमें अनुरक्त हो गई। उसने मन में निश्चय किया कि मैं इस युवक की सहायता करूँगी। वह जादू जानती थी। उसने उसे एक पुष्प तथा एक औषधि दी, तथा उनका प्रयोग भी बता दिया।

दूसरे दिन जेसन अपने शरीर पर औषधि मलकर आग उगलने वाले बैलों को हल में जोतकर खेत बोने का कार्य आरम्भ करने लगा। यह सब देखकर राजा तथा पुरवासी आश्चर्य में पङ गये। जब वह अजगर के दाँतों को बोता है। तब उन बीजों में से हथियार बंद सैनिक निकलकर उस पर आक्रमण करने लगे।

जेसन ने एक पत्थर से एक सैनिक को मार डाला। सैनिक ने विचार किया कि मेेरे पीछे के सहयोगी ने पत्थर फंेका है। इस प्रकार वे लौटकर एक दूसरे को मारने लगे। राजा यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया। तदनन्तर जेसन ओक वृक्ष के पास गया जिसमें ऊन लटक रही थी। भयंकर अजगर उसकी रक्षा कर रहा था।

अजगर ने जब उसे देखा तब भीषण आकृति वाले सर्प ने उसे फूँक कर मारना चाहा तब जेसन ने वह पुष्प निकाल कर दिखाया। पुष्प को सूँघकर साँप गहरी नींद में सो गया। जेसन शीघ्र ही ऊन निकालकर लौट पङा। उस समय मीडिया भी वहाँ पर थी। जेसन और मीडिया पानी के जहाज में बैठकर सैनिकों के साथ नगर की ओर चल पङे। यह देखकर कोलाचिस ने अपने सैनिकों को इसे पकङने को भेजा परन्तु वे इसे नहीं पकङ सके। मीडिया के साथ जेसन ने विवाह कर लिया तथा पेलियस को मार डाला तदनन्तर अनेक वर्षों तक उसने आइलोकस का सुखपूर्वक राज्य किया।

शिक्षा- अच्छे व्यक्ति की हर कोई सहायता करता है।

काली चिङिया की जय हो

एक बार पशुओं ने मिलकर एक सभा की। सभा में बाज पक्षी ने कहा- ’’मैं पक्षियों का राजा हूँ क्योंकि मैं सबसे अधिक उङ सकता हूँ।’’ इसके बाद काली चिङिया ने कहा- ’’सबसे अधिक मैं उङ सकती हूँ न कि कोई दूसरा।’’ पक्षियों ने निश्चय किया कि दोनों पक्षी सिर पर कुछ रखकर उङेंगे।

बाज चतुर था वह सिर पर रूई रखकर उङने लगा और काली चिङिया सिर पर नमक। वे दोनों उङने लगे। पक्षियों ने विचार किया कि कुछ समय बाद काली चिङिया हार जायेगी, जीत की माला बाज के गले में पङेगी।

उसी समय वर्षा आरम्भ हो गई, बाज के सिर पर जो रूई थी वह जल की बून्दों से भीगकर भारी हो गई, काली चिङिया के सिर पर जो नमक की डली थी वह गल कर हल्की हो गई। अब काली चिङिया जल्दी उङने लगी, वह बाज के पास पहुँच गई। जमीन पर खङे पक्षियों ने तालियाँ बजा कर उनका अभिनन्दन किया।

उन्होंने एक दूसरे को हराने का प्रयत्न किया परन्तु काली चिङिया अब बाज को हराने को तैयार थी। अन्त में बाज ने अपनी हार स्वीकार कर ली। काली चिङिया का सभी ने स्वागत किया, उसके गले में विजय माला डाल दी गई परन्तु नमक के कारण, काली चिङिया के सिर के बाल उङ गये। फिलीपिन द्वीप के लोगों का यह विश्वास है कि उसी दिन से काली चिङिया की सन्तानें गंजी होती हैं।

शिक्षा- किसी कार्य का कभी घमंड नहीं करना चाहिए तथा हमेशा बुद्धि से काम लेना चाहिए।

मुर्ख तामाद

बहुत दिनों पहले की बात है, एक गाँव में एक बूढ़ी औरत रहती थी। हुवन-तामाद नामक उसका पुत्र उसके साथ रहता था। वह आलसी और मूर्ख था। बूढ़ी माँ उसकी मूर्खता से दुःखी थी। वह पुत्र किसी भी काम में उसकी सहायता नहीं करता था। इसी कारण वह बूढ़ी औरत कष्टमय जीवन बिता रही थी।

एक बार वह बूढ़ी औरत बीमार हो गई। वैद्य ने उसे पलंग से न उतरने का आदेश दिया। अब घर का प्रबन्ध कौन करता, बाजार से चीजें कौन लाता? दो-तीन बाद उसने फिर घर का काम करना आरम्भ किया। किन्तु जब वह भोजन बना रही थी तब घर में शाक आदि नहीं था। उसने पुत्र से कहा- ’’बाजार से शाक के लिए केकङा ले आओ। एक रुपये में दस केकङे आते हैं।’’

तामाद बाजार की ओर चल दिया। चलता हुआ वह बाजार पहुँचा। प्रातःकाल का समय था। उसने बाजार में ताजी सब्जियाँ देखीं। मछली बेचने वाले से दस केकङे खरीदे। कुछ समय बाद वह घर की ओर चल पङा। रास्ते में एक नदी पङती थी। थका हुआ तामाद नदी के किनारे विश्राम करना चाहता था। उसने विचार किया कि घर में मेरी माता मेरा इंतजार कर रही होगी। उसके मन में एक विचार आया।

एक-एक केकङे को निकाल कर वह कहने लगा, ’’अरे केकङो! आप नदी पार करके इस मार्ग से मेरे घर की ओर चलो। मेरी माता इंतजार कर रही है।’’ अपने घर की पहचान भी उसने बतलाई। इसके बाद तामाद पीपल की छाया में सो गया।

केकङे प्रसन्न होते हुए नदी के पास आए। वे उछल-उछल के नदी के पानी में प्रवेश कर गये। केकङे तामाद की तरह मूर्ख नहीं थे। घर में दरवाजे पर उसकी माता उसका इंतजार कर रही थी। कुछ समय बाद जब तामाद की नींद टूटी तब दोपहर ढल चुकी थी। वह नदी पार कर तेजी से अपने घर पहुँचा और माँ को कहने लगा- ’’मैं भूखा हूँ, मुझे भोजन दो।’’
माता ने कहा, ’’इतने समय तक तू कहाँ रहा? केकङे कहाँ हैं?’’ तामाद सहज भाव से बोला- ’’मैंने दस केकङे प्रातःकाल ही अपने घर की ओर भेज दिये थे। क्या वे अभी तक नहीं आये।’’ माता ने अपने हाथों से अपना मस्तक पकङ कर कहा- ’’अरे मूर्ख! तू नहीं जानता कि केकङे नदी में रहते हैं। इस समय भी वे सूर्खपूर्वक नदी में कूद रहे हैं। तेरे जैसे मुर्ख पुत्र को धिक्कार है। यहाँ से चला जा, मैने भोजन नहीं बनाया है।’’

शिक्षा – मुर्ख व्यक्ति मुर्खों वाले ही कार्य करता है। हमें हमेशा समझदारी वाले कार्य करने चाहिए।

दो ठग

पहले एक राजा रहता था। नये कपङे पहनने की उसकी इच्छा थी। राज्य के खजाने का धन वह वस्त्र बनाने में खर्च करता था। उसकी इच्छा थी कि लोग उसके वस्त्रों को देखें। उसने अपने जीवन का अधिकांश समय कपङे पहनने में व्यतीत किया, जिस नगर में राजा की राजधानी थी वहाँ हमेशा भीङ, दिखाई देती थी। एक दिन दो ठग उस नगर में आये। उन्होंने घोषणा कि ’’हम दोनों बुनकर हैं। संसार में हमारे समान कोई बुनकर नहीं हैं। हमारे वस्त्रों में एक विशेषता यह है कि अयोग्य तथा मूर्ख व्यक्ति उन वस्त्रों को नहीं देख सकता है।’’

राजा ने मन में विचार किया कि ऐसे वस्त्र पहनकर मैं क्षणभर में ही पता लगा लूँगा कि कौन आदमी अयोग्य है? जो आदमी मूर्ख होंगे वे बुद्धिमानों से अलग दिखाई देंगे। राजा ने उन ठगों को बुलाकर वस्त्र-निर्माण का आदेश दिया, धन भी दिया कि वह अपना कार्य आरम्भ करें।

उन धूर्तों ने केवल वस्त्र-निर्माण का अभिनय किया। वे व्यर्थ ही रात-दिन वस्त्र बुनने की मशीन पर हाथ-पैर चलाते थे। राजा के द्वारा दिये गये रेशमी तथा सोने के सूत भी उन्होंने बेच डाले। एक बार राजा ने विचार किा कि जाकर देखता हूँ वे अच्छी तरह कार्य कर रहे हैं कि नहीं, परन्तु मूर्ख तथा अयोग्य व्यक्ति उन वस्त्रों को नहीं देख सकता, यह देखकर राजा ने पहले एक आदमी भेजा। यह मंत्री योग्य तथा बुद्धिमान् था।

वृद्ध मंत्री ने उस कमरे में प्रवेश किया जहाँ दो ठग वस्त्र बुनने में लगे थे। उसने देखा कि यहाँ वस्त्र नहीं बुने जा रहे हैं केवल वे ठग हाथ पैर चला रहे थे। ठगों ने प्रार्थना की आस-पास में आकर आप देखे जब वह देखता है कि वहाँ कुछ नहीं था। मंत्री ने विचार किया कि मैं न तो मूर्ख हूँ, न अयोग्य हूँ। वास्तविक स्थिति के मूल्यांकन का यह उचित समय नहीं है, यह विचार कर उसने कहा कि, ’’आप लोग बहुत अच्छे बुन रहे हैं। वस्तु का रंग बहुत ही आकर्षक है। मैं ये सभी बातें राजा को बताऊँगा।’’ ठगों ने कहा, ’’यह जानकर हमें प्रसन्नता हो रही है।’’ मंत्री वहाँ से निकला और राजा को सब कुछ बता दिया। ठग और अधिक रेशम और सोने के तार लेकर वस़्त्र बनाने में लग गये। राजा ने फिर दूसरे मंत्री को भेजा। उसके साथ भी वही घटना घटी। उसने भी राजा के पास आकर कहा, ’’सुन्दर वस्त्र बुने जा रहे हैं।’’ नगर के सभी लोग भी वस्त्रों की प्रशंसा कर रहे थे। राजा स्वयं भी मंत्रियों के साथ देखने वहाँ गया। वे ठग-बुनकर अपना कार्य कर रहे थे। वहाँ कपङे का एक सूत भी नहीं बुना गया था। कुछ समय पहले भेजे गये मंत्री भी वस्त्रों की प्रशंसा करने में लगे थे।
राजा ने विचार किया, ’यहाँ कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है, क्या मैं अयोग्य एवं मूर्ख तो नहीं हूँ? जिस कारण मैं नहीं देख पा रहा हूँ। इससे तो मेरा अपयश ही फैलेगा। यह सोचकर राजा ने कहा- ’’वास्तव में सुन्दर वस्त्र बनाये जा रहे हैं।’’ सभी नगर वासियों ने झूठी प्रशंसा से राजा को प्रसन्न किया। राजा ने शीघ्र ही उन्हें ’राजकीय-बुनकर’ की उपाधि प्रदान की। सभा में उपस्थित लोगों ने राजा को कहा कि आप महासम्मेलन के अवसर पर इनको पहनें। राजा ने अपनी स्वीकृति दे दी।

महासम्मेलन का दिन भी आया। नगर की गलियों में भीङ एकत्रित हुई। ठग वस्त्र बुनने में लग गये, उनके अभिनय से ऐसा लगता था कि वे वास्तव में वस्त्र बुनकर आये हों। सन्देश वाहक ने राजा को सूचित किया, उसने कहा, ’’राजन्! वस्त्र बहुत ही सुन्दर हैं मैंने अपनी आँखों से देखा है।’’

बुनकरों ने कहा- ’’आप पहने हुए वस्त्र उतारिये और नये वस्त्र पहनिये।’’ राजा ने ऐसा ही किया ठग फिर वस्त्र पहनाने का नाटक करने लगे। सभी लोगों ने वस्त्रों की प्रशंसा की। राजा, छत्र-चँवरयुक्त-सिंहासन पर बैठकर गलियों में निकला। जिस मार्ग से राजा निकलता है वहीं भीङ नंगे राजा के वस्त्रों की प्रशंसा करती है। क्योंकि कोई मूर्ख अथवा अयोग्य नहीं होना चाहता। अन्त में भीङ में से निकलकर किसी बालक ने चिल्लाकर कहा- देखो! नंगा राजा जा रहा है।’’ कुछ दूसरे लोग भी कहने लगे, ’’वास्तव में राजा नंगा है।’’

राजा ने विचार किया, लोग ठीक ही कह रहे हैं। परन्तु जो कार्य आरम्भ कर दिया उसे अब पूरा करना होगा। ऐसा निश्चय करके वह भीङ में चलता रहा।

शिक्षा – व्यक्ति स्वयं की बुराई नहीं देखता बल्कि दूसरे की बुराई हमेशा देखता है।

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मूर्ख की दुर्दशा

किसी गाँव में रामदास नाम का एक महामूर्ख रहता था। उसका पिता वस्तुएँ नाव में रखकर बाजार में बेचता था। पिता के मरने पर सारा कामकाज रामदास के सिर पर आ पङा। एक बार वृद्ध माता ने कहा, ’’हे पुत्र! तेरे पिता की वस्तुएँ हैं, इन्हें नाव पर रखकर वस्तुएँ बेचकर गृहस्थ का पालन करो। रामदास नहीं चाहता हुआ भी नाव के पास पहुँचा। नाव बाँधने की रस्सी खोले बिना ही वह नाव चलाने लगा, किन्तु प्रातःकाल उसने देखा कि नाव वहीं पर है।

रामदास ने विचार किया कि मैं रातभर चला किन्तु गाँव के दृश्य नहीं बदले, मैं समझता हूँ कि गाँव नाव के पीछे मेरे साथ चल रहा है। शीघ्र ही वह घर आया। माता ने पूछा- ’’क्या तू अभी भी नहीं गया?’’ रामदास ने कहा, ’’मैं रातभर चला, हम पाँच कोस मार्ग पारकर आगे निकल गये हैं। यह गाँव प्रेम से मेरे पीछे चल रहा है।’’ माता ने वहाँ जाकर देखा कि रस्सी पहले की तरह नाव में बँधी है। उसने पुत्र की मूर्खता जान ली कि यह मूर्ख व्यापार न कर सकेगा।

माता ने विचार किया, व्यापारियों के साथ पुत्र को विदेश भेजती हूँ। यह ग्यारहवाँ व्यक्ति उन दसों के साथ चल पङा। जब वे दूर आ गये तब रामदास ने कहा, ’’ठहरो, भाइयो, ठहरो।’’ रामदास ने उनकी गणना की। सबको गिन कर भी उसने अपने-आपको नहीं गिना। वह मार्ग में बैठ गया और बोला, गाँव से हम ग्यारह आदमी चले थे किन्तु अब दस शेष रह गये हैं। मैं आगे नहीं जाऊँगा। उन दस आदमियों के आग्रह को उसने अस्वीकार कर दिया। शीघ्र ही माता के पास जाकर उसने कहा, ’’माँ मार्ग में प्रेत रहते हैं। उसने हममें से एक को खा लिया है। मैं अब गाँव छोङकर कहीं नहीं जाऊँगा।’’

माता ने अपने पुत्र को एक मन्दिर का पुजारी बनाकर कहा, यहाँ बैठकर भजन कर। रामदास भी शरीर में भस्म लगाकर साधु बन गया। धीरे-धीरे वह उपदेशक बन गया। उसका ज्ञान मूर्ख शिष्यों को प्रसन्न करने के लिए काफी था। एक बार रात्रि में रामदास ने महादेव का ध्यान किया। आधी रात में रामदास ने अपने शिष्यों को उठाकर कहा, अरे मूर्खो! उठो-उठो, मैं अभी शिवलोक से लौटा हूँ। मैंने विश्वनाथ का ध्यान किया तभी बैल पर बैठकर शिव आये और कहने लगे, ’भक्तप्रवर! वर माँगो।’ मैंने कहा- ’महाराज! मैं भूखा हूँ, लड्डू खाना चाहता हूँ। भगवान् ने कहा, ’बैल की पूछ पकङ कर शिवपुरी चल, वहाँ इच्छानुसार लड्डू खा’ मैं वहाँ इच्छानुसार खाकर महादेव की कृपा से यहाँ आ गया हूँ।’’

शिष्यों ने कहा, ’’आप अकेले खाकर क्यों आये? हम भी वहाँ चलेंगे।’’ रामदास ने कहा, ’’महाराज शिव के पास एक ही बैल है। मैं उसकी पूँछ पकङूँगा। आप मेरे पैर पकङ कर चलिये।’’ दूसरे दिन सभी शिष्य भूखे-प्यासे, शिव के आगमन की प्रतीक्षा में थे। रामदास ध्यानमग्न हो गया। शिष्य आकाश की ओर टकटकी लगाए शिव के आने की प्रतीक्षा करने लगे। रामदास ने कहा, ’’मुझे लग रहा है कि शिव तुम्हारे सामने मुझसे नहीं मिलना चाहते। मैं रात्रि में ध्यान करूँगा, तब तुम्हें बुला लूँगा।’’

शिष्य अपने घर चले गये। रामदास रात्रि में सो गया। आधी रात में शिव आये। रामदास ने बैल की पूँछ पकङ ली और उनके शिष्यों ने उसके चरणों को पकङ लिया, वे शिवपुरी की ओर चल पङे। शिष्यों ने अपने गुरु रामदास को कहा- ’’आपने जो लड्डू खाया वह कैसा था?’’ रामदास ने कहा, ’’वह मोदक इतना बङा था, ’’ऐसा कहकर हाथों से मोदक का आकार दिखाते हुए, रामदास अपने शिष्यों के साथ पृथ्वी पर गिरे और चिल्लाने लगे।

चीत्कार सुनकर उसके शिष्य क्रोधित होकर उस पर टूट पङे। शिष्यों ने अपने गुरु से कहा, ’’तू धूर्त है, प्रतिदिन स्वयं ही मोदक खाता है, हम भूखे हैं।’’

रामदास ने कहा, ’’आपके अविवेक से विघ्न हो गया। फिर हम शिवपुरी जायेंगे।’’ शिष्यों ने गुरु की धूर्तता जान ली और गुरु को मारना प्रारम्भ किया।

रामदास दौङता हुआ माता के पास पहुँचा और बोला- ’’मैं शिवपुरी से गिरकर मर रहा हूँ। शिष्य मुझे मारने लग गये हैं। माता ने अपना सिर पीटते हुए कहा, ’’पुत्र तू जहाँ कहीं भी जायेगा वहीं कष्ट पायेगा। तेरे दिमाग में मूर्खता कूट-कूट कर भरी हुई है। अपनी मूर्खता का दण्ड भोग।’ आगे भी रामदास दुःख ही भोगेगा।

शिक्षा – मनुष्य अपनी मूर्खता का दण्ड अनुभव करता ही है।

लोकसेवा से प्रसिद्धि

बहुत पहले संजय नाम का एक नवयुवक था। वह हमेशा साधु-महात्माओं का दर्शन किया करता था। उसके लिए वह मठों में तथा तीर्थों में भ्रमण करता था। एक बार वह किसी योगी के साथ रहा। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर योगी ने कहा- ’’हे वत्स! यदि तुम्हारी कोई इच्छा हो तो मैं उसे पूरी कर सकता हूँ।’’ संजय ने हाथ जोङकर कहा, ’’मैं योग का रहस्य जानना चाहता हूँ, इस चमत्कार से ख्याति प्राप्त करना चाहता हूँ।’’

योगी ने उसे योगाभ्यास कराया। उससे संजय ने अपने में विचित्र शक्ति का अनुभव किया। कुछ समय बाद संजय अकेला घूमने निकला। मार्ग में उसने देखा कि कुछ शिकारी लोहे के पिंजरे में सिंह को डाल कर ले जा रहे थे। संजय न अपना योगबल दिखाने के लिए मन्त्रपाठ किया। मन्त्र पढ़ने के साथ ही भयंकर सिंह पिंजरे से निकला। सिंह ने निकल कर शिकारी को मार दिया। अन्य शिकारियों ने पुनःसिंह को पकङ लिया। इस प्रकार उसे देखकर संजय ने हँसते हुए कहा, ’’क्या फिर सिंह को भगा दूँ?’’

शिकारी संजय को जादूगर जान कर मारने दौङा। संजय बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पङा। वह किसी तरह आगे चला। एक पर्वतीय गाँव में, उसने देखा कि लोग पहाङों की अधिकता से खेती करने में असमर्थ हैं। यदि मैं पर्वतों को हटा दूँ तो लोग मेरा सत्कार करेंगे। उसने मन्त्र पाठ किया। धीरे-धीरे पर्वत निकल-निकल कर टूटने आरम्भ हुए। गाँव के घर नष्ट होने लगे। लोग संजय की शरण में गये। संजय पर्वतों को चलाना तो जानता था किन्तु उन्हें रोक नहीं सकता था। इसलिए वह उनका उद्धार न सकता था। लोग संजय को मारने लगे। संजय किसी तरह भाग छूटा और मछुओं के गाँव में पहुँचा जहाँ मछलियों का अभाव था। संजय ने मछुओं को बुलाकर कहा, ’’आज मैं योग का चमत्कार दिखाता हूँ, आप लोग ठहरिये।’’ उसने मन्त्र बल से तालाबों में मछलियाँ भर दीं। मछुओं ने जाल बाँध दिये। घर-घर लोग मछलियाँ पकाने लगे। संजय की महिमाा सर्वत्र फैल गई।

यह एक विचित्र संयोग रहा कि वे मछलियाँ जहरीली थीं। जिन लोगों ने मछलियाँ खाई थीं वे पहले ही मरणासन्न हो गये, कुछ मर गये। बचे हुए लोगों ने लाठियों से संजय को मारना शुरू किया। उनकी चोट से वह पृथ्वी पर गिर पङा। ग्रामीणों ने उसको मरा हुआ मान कर जंगल में गिरा दिया।

आधी रात में जब संजय को होश आया तो वह चिल्लाया। वह स्वयं उठकर नहीं चल सकता। उस जंगल में एक साधु रहता था। जब उसकी चीत्कार सुनी तो साधु ने संजय को उठाया और अपने आश्रम में ले गया। औषधियांे से उसकी पीङा को शान्त किया। प्रातःकाल संजय ने सारी कहानी महात्मा को सुनाई। संजय ने कहा, ’’मैं अलौकिक शक्ति वाला हूँ किन्तु न मेरी प्रतिष्ठा है न मुझे शान्ति है, मैं नहीं जानता कि इसका क्या कारण है?’’

महात्मा ने कहा- ’’हे संजय! इसमें तुम्हारा ही दोष है, तू अपनी शक्ति का सदुपयोग करना नहीं जानता। अहंकार युक्त होकर व्यर्थ ही मिथ्या विज्ञापन और कौतुक प्रदर्शित करते हो। शक्ति का उपयोग तो अहंकार त्याग कर दीनों की सेवा करना है। इसी से यश और सुख प्राप्त होता है। कौतुक तो जादूगर करते हैं।’’ संजय का अज्ञान नष्ट हुआ। महात्मा से लोकशिक्षण की शिक्षा पाकर संजय समाज सेवा में लग गया। उसने अपनी शक्ति का सदुपयोग किया। उसके प्रभाव से कुछ समय बाद उसने संसार में कीर्ति प्राप्त की।

शिक्षा – हमें अहंकार को त्याग देना चाहिए तथा परोपकारी कार्य करने चाहिए।

लोकसेवक

बहुत पहले की बात है। हमारे देश में एक महान् परोपकारी साधु रहता था। वह साधु जगत् को भगवान् मान कर पूजता था। दुःखियों की सहायता करना, पथभ्रष्टों को मार्ग बतलाना, अपकारियों का भी उपकार करना, उसका दैनिक कार्य था। वह पुण्य के लोभ से नहीं बल्कि स्वभाव से ही अच्छे कार्य करता था। जिस प्रकार सूर्य स्वाभाविक गति से प्रकाश फैलाता है उसी प्रकार वह भी मानवता का प्रकाश फैला रहा था।

स्वर्ग में रहने वाले देवता भी उसे दूर से ही देखकर आश्चर्यचकित थे कि इस शरीरधारी ने मृत्युलोक में ही देवत्व कैसे प्राप्त कर लिया? वे इस महापुरुष को पुरस्कृत करना चाहते थे। देवता रूप बदलकर उसके पास आये और कहने लगे, ’’आप कहिए, क्या चाहते हैं? वरदान माँगिये, आपके स्पर्श से ही रोगी स्वस्थ हो जायेंगे।’’ साधु अपनी सेवा का पुरस्कार प्राप्त नहीं करना चाहता था। स्वयं में तृप्त होकर केवल अपना कत्र्तव्य पालन कर रहा था। उसने कहा, ’’देवताओं! मैं दैवी शक्ति नहीं चाहता हूँ। उसका अधिकारी तो केवल परमात्मा है। मैं अनधिकार चेष्टा नहीं करता हूँ।’’

देवता निराश हो गये, फिर उससे प्रार्थना करने लगे, ’’वर माँगो, जो कुछ आप चाहते हैं।’’ साधु ने कहा, ’’ईश्वर ने मुझे सब कुछ दिया है। इससे अधिक किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं है।’’ देवताओं ने फिर कहा, ’’हम तो वरदान देने के लिए आपके पास आये हैं। अपनी इच्छा से वरदान देकर ही जायेंगे।’’

साधु थोङी देर चुप रहा और कहने लगा, ’’हे देवताओ! मैंने तो निष्कामभाव से सेवाव्रत ग्रहण किया है। कार्य करने पर मैं फल की इच्छा नहीं करता हूँ। मैं उपकार कर रहा हूँ, इस प्रकार की भावना मुझे छू भी नहीं सकती। आप मुझे शक्तिशाली बनाकर पतन की ओर मत ले जाइये।’’ देवताओं ने कहा, ’’जिससे तुम्हारी प्रयोजन-सिद्धि हो वह वस्तु माँगिये।’’ साधु ने कहा- ’’सबका कल्याण हो, आप केवल यह वरदान दीजिये। मैं परोपकार के फल का भागी नहीं होना चाहता हूँ।’’ देवताओं ने कहा, ’’ऐसा ही हो! जहाँ तुम्हारे शरीर की छाया भी पङेगी वहाँ जीवन का संचार होगा। तुम्हें उस छाया का प्रभाव भी मालूम न होगा।’’

वरदान के बाद देवता दुन्दुभि बजाते हुए वहाँ से चले गये। साधु को इस दिव्य शक्ति का कुछ भी अभिमान नहीं हुआ। वह लोकसेवा में लग गया। दैवी शक्ति ने अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया। जहाँ-जहाँ साधु की छाया पङती थी वहाँ-वहाँ नवजीवन का संचार होने लगा। सूखे पेङों के पत्ते हरे हो गये। सूखे तालाब जल से भर गये। पीङित प्राणी प्रसन्न हो गये। साधु नहीं जान पाता है कि यह किसके प्रभाव से हो रहा है।

इसलिए उसके मन में अहंकार की भावना भी प्रकट न हो रही थी। उसने विनम्र भावना से सबकी सेवा की। लोगों ने उसे सिद्धपुरुष माना। ’अलौकिक शक्तिवाला यह साधु निरभिमानी है।’ यह सोच कर सभी चकित रह गये और सभी उसके भक्त हो गये। साधु फिर भी स्वयं को सेवक ही मान रहा था।

वास्तव में लोक सेवक वे ही हैं जो निष्कामभाव से दूसरों की सेवा करते हैं। सत्पुरुषों के शरीर से नहीं बल्कि उनके प्रभाव से दूसरों का हित होता है। ऐसे लोगसेवक, जो सबके लिए प्रिय होते हैं, धन्य हैं।

शिक्षा – जो लोकसेवक होता है, वह स्वयं के कार्य की प्रशंसा नहीं करता।

ईश्वर का भक्त

एक बार एक महापुरुष ने स्वप्न में एक महापुरुष को देखा। महापुरुष ने स्वप्न में उसे पूछा, ’’हे देव, आप इस ग्रन्थ में क्या लिख रहे हैं? देवदूत ने कहा, मैं भगवान् के भक्तों की सूची लिख रहा हूँ जो भगवान् की उपासना करते हैं, जो परमेश्वर के प्रिय हैं, वे ही भगवान् के पास रहने योग्य हैं।’’

महापुरुष लम्बी श्वास लेते हुए कहने लगे, ’’दुःख की बात है कि मैं कभी भी ईश्वर की उपासना नहीं करता हूँ, न व्रत रखता हूँ, न मन्दिर जाता हूँ, इस प्रकार का मैं स्वर्ग में कैसे स्थान प्राप्त करूँगा?’’

देवदूत ने कहा, ’’इस सम्बन्ध में मैं क्या कर सकता हूँ। सभी लोग अपने कर्मों का फल प्राप्त करते हैं।’’ महापुरुष ने कहा, ’’हे देवदूत! क्या आप कभी ऐसे मनुष्यों की भी सूची बनायेंगे जो मनुष्यमात्र से प्रेम करते हैं, स्वार्थ त्याग कर अपना समय लोकसेवा में लगाते हैं। यदि ऐसी सूची आप बनावें तो आप मेरा भी नाम उस सूची में लिखने की कृपा करें।’’

देवदूत वहाँ से चला गया। महापुरुष की नींद खुली। कुछ समय बाद उसने दूसरा स्वप्न देखा। उस स्वप्न में भी उसने देवदूत को कुछ लिखते हुए देखा। महापुरुष ने कहा, ’’मित्र! आप क्या कर रहे हैं?’’ देवदूत ने कहा, ’’ईश्वर की आज्ञा से उस सूची में संशोधन कर रहा हूँ।’’

महापुरुष ने कहा, ’’क्या मैं उस सूची को देख सकता हूँ?’’ देवदूत ने उसके हाथ में पुस्तक दे दी। महापुरुष ने आश्चर्य से देखा कि उसका नाम ईश्वर के प्रिय भक्तों में सबसे ऊपर है। महापुरुष ने चकित होकर कहा- ’’आपने मेरा नाम सबसे ऊपर लिखा। मुझे लोकसेवा के कार्यों से अवकाश ही नहीं मिलता कि माला लेकर भगवान का भजन करूँ।’’

देवदूत ने कहा, भगवान उसी को सर्वश्रेष्ठ भक्त मानते हैं जो सबमें ईश्वर को व्याप्त मानकर उसकी सेवा करता है। तू मनुष्य में देवत्व मानकर उसकी उपासना करता है, यही ईश्वर की उपासना है। पत्थर में देवत्व के वास की अपेक्षा जीवित मनुष्य में देवत्व भावना रखना उचित है। हे महापुरुष! आप वास्तव में ईश्वर भक्त हैं, जो चेतन में ईश्वर को ढूँढ़ते हैं। प्राण तो जीवित शरीर में रहते हैं मृत शरीर में नहीं। जो केवल एकान्त में बैठकर भगवान् को पुकारते हैं ईश्वर उनसे दूर भागता है।’’

इस महापुरुष को अधिक आत्मसंतोष प्राप्त हुआ। ईश्वर की दृष्टि में उसकी लोकसेवा निष्फल नहीं हुई। उसने इसी लोक में स्वर्गीय सुख प्राप्त कर लिया।

शिक्षा – जो लोग स्वार्थ त्याग कर अपना समय लोकसेवा में लगाते है उसी से ईश्वर की प्राप्त होती है, न कि पूजा-पाठ का ढोंग करने से।

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ईश्वर का परिचय

एक बादशाह काजीजी को बहुत आदर देते थे। काजीजी ने भी अपने प्रभाव से उन्हें वश में कर रखा था। काजी बादशाह के प्रश्नों का उत्तर अच्छी तरह देते थे और काजीजी देवदूतों के विचित्र संवाद सुनाकर बादशाह को प्रतिदिन प्रसन्न रखते थे। यद्यपि काजीजी उद्भट विद्वान नहीं थे किन्तु दूसरे के मन की बात जानने में कुशल थे। बादशाह की सभा में विद्वान् तो अनेक थे किन्तु वे काजीजी से नाराज थे। एक बार एक विद्वान् ने बादशाह से कहा, ’’राजन्? यह काजी कुछ नहीं जानता।’’ बादशाह ने कहा, ’’चुप रहो, तुम उसके ज्ञान की गम्भीरता को नहीं जानते।’’
विद्वान् ने कहा, ’’तो मेरे बताये तरीके से उसकी परीक्षा करें।’’ बादशाह ने कहा, ’’किस प्रकार?’’ विद्वान् ने कहा, ’’आप उनको पूछिए…….. ’ईश्वर कहाँ रहता है? किस दिशा में उनका मुख है? वह क्या करता है?’ इन प्रश्नों से उनकी परीक्षा हो जायेगी।’’

दूसरे दिन बादशाह ने सभा में काजीजी से प्रश्न पूछे, किन्तु काजीजी हक्के-बक्के रह गये तथा इस समय सप्रमाण उत्तर देने में असमर्थ थे। उन्होंने आठ दिन का समय माँगा। बादशाह ने कहा, ’’मैं सप्रमाण उत्तर चाहता हूँ इस बात का ध्यान रखना।’’

काजीजी अपने घर जाकर विचार करने लगे किन्तु अकाट्य उत्तर का आठवें दिन भी निर्णय न कर पाये। नवें दिन बीमारी का बहाना बना कर घर पर ही रहे। उन्होंने सोचा, सभा में अपमानित होने से क्या लाभ? स्वामी की उदासीन देखकर नौकर ने पूछा तो काजीजी ने सारी बात बता दी। बुद्धिमान नौकर ने कहा, ’’इस प्रश्न का उत्तर तो सरल ही है, आप बादशाह को लिखें कि मैं रोगग्रस्त हूँ और सभा में आने में असमर्थ हूँ, मेरे नौकर को भेज रहा हूँ, वह ठीक उत्तर दे देगा।’’

उसी समय अचानक काजीजी को बुलाने के लिए राजा का नौकर आ गया। काजीजी ने पत्र लिखा। नौकर पुराने वस्त्र पहन कर सभा में गया, पत्र दे दिया। राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, ’’क्या तुम प्रश्नों का उत्तर दे सकोगे? नौकर ने कहा, क्यों नहीं? परन्तु ’धर्मानुसार तथा नियमानुसार पूछने वाला ’शिष्य’ कहलाता है, उत्तर देने वाला ’गुरु’। मैं ऊंचे स्थान पर बैठता हूँ, आप शिष्य के स्थान पर।’’ राजा ने सब कुछ स्वीकार किया और कहा, ’’यदि सप्रमाण उत्तर नहीं दोगे तो मृत्युदण्ड पाओगे।’’

बादशाह ने कहा, ’’मेरा प्रथम प्रश्न है, कि ईश्वर का निवास स्थान कहाँ है?’’ नौकर ने कहा, ’’इस प्रश्न का उत्तर सरल है, आप एक गाय यहाँ मँगवाइये। बादशाह ने गाय मँगा दी। नौकर ने बादशाह से कहा, ’’यह गाय दूध देती है किन्तु वह दूध कहाँ रहता है?’’ बादशाह ने कहा, ’’गाय के स्तनों में।’’ नौकर ने कहा, ’’आप झूठ बोल रहे हैं, दूध तो गाय के शरीर में व्याप्त है, स्तन तो केवल दूध के निकलने के स्थान हैं। अच्छा दूध मँगवाइये।’’ राजा की आज्ञा से दूध लाया गया। नौकर से कहा, ’’क्या इस दूध में मक्खन है?’’ कहाँ है? बादशाह उत्तर न दे सका। नौकर ने कहा, ’’आप जानते हैं कि दूध में मक्खन है किन्तु कहाँ है, यह नहीं जानते। जैसे दूध में सब जगह मक्खन है उसी प्रकार ईश्वर भी सब जगह है। दूध पीने के लिए लोग गाय को दुहते हैं उसी प्रकार ईश्वर को पाने के लिए हृदय को दुहा जाता है। मथने से दूध से मक्खन निकलता है उसी प्रकार चिन्तन से ईश्वर मिलता है। जो लोग ईश्वर को स्वर्ग में रहने वाला मानते हैं वे आँख वाले होने पर भी अन्धे हैं।’’ राजा ने दूसरा प्रश्न पूछा, ’’ईश्वर का मुख किस दिशा में है?’’ नौकर ने जलता हुआ दीपक मँगवाया और बादशाह से पूछा, ’’यह दीपक की लौ कहाँ मुख करके जल रही है?’’ बादशाह ने कहा, ’’इस दीपक का मुख तो सब ओर है।’’ नौकर ने कहा, ’’दीपक की तरह ईश्वर का मुँह भी सब ओर है।’’

बादशाह ने तीसरा प्रश्न किया, ’’ईश्वर क्या करता है?’’ तब नौकर ने काजीजी को बुलवाया। काँपते हुए काजीजी शीघ्र ही आ गये। उन्होंने नौकर को ऊँचे आसन पर और राजा को भूमि पर बैठे हुए देखा। नौकर ने काजी को ऊँचे स्थान पर बिठाया और स्वयं सिंहासन पर बैठ कर बादशाह को काजीजी के आसन पर बैठने को आदेश दिया। नौकर ने फिर कहा, ’’ईश्वर इसी प्रकार सबको अपने अधिकार में लगाकर संसार में निरन्तर परिवर्तन करता है। यह संसारचक्र को चलाता है। ईश्वर योग्यतानुसार सबको कार्य में लगाता है।’’

बादशाह अपने प्रश्नों के उत्तर पाकर बहुत प्रसन्न हुए। उसने बुद्धिमान नौकर को उच्चपद पर नियुक्त किया। नौकर के प्रभाव से काजी महोदय की प्रतिष्ठा भी बची रही।

शिक्षा – ईश्वर सब जगह होता है उसकी तलाश मन्दिर-मस्जिदों में नहीं करनी चाहिए, ईश्वर सर्वव्याप्त है। ईश्वर संसार में निरन्तर परिवर्तन करता है।

देवदूत का वरदान

बहुत दिनों की बात है। उस समय न तुम पैदा हुए थे न तुम्हारे पूर्वज, न उनके भी पूर्वज। उस समय मानव बहुत कमजोर था। उसका पूरा शरीर भी बना हुआ नहीं था। न वह स्वयं खा सकता था, न स्नान कर सकता था, न जल पी सकता था, न कुछ कर सकता था। मानव उस समय न पत्र लिख सकता था न चित्र बना सकता था, न खेती कर सकता था, न सितार बजा सकता था।

ईश्वर ने उनकी सहायता के लिए एक देवदूत रख रखा था। यह दूत इन असहाय बालकों का लालन-पालन करता था। वह प्रतिदिन उनके मुखों में मिठाई डालता था, स्नान कराता था, दूध पिलाता था। उस समय नदियों में दूध बहता था। इस प्रकार हजारों वर्ष बीत गये। एक बार उस देवदूत को बुलाने ईश्वर के नौकर आ गये। यह देखकर बालक विलाप करने लगे ’’तुम्हारे चले जाने पर हमारा पालन कौन करेगा?’’ बालिकाएँ भी रोने लग गईं। विलाप करते हुए बालकों को देखकर देवदूत भी बहुत लज्जित हुआ।

दयालु देवदूत ने विचार किया कि इन असहायों को छोङकर मैं कैसे जा सकता हूँ। नौकर कह रहे थे- ’’आप शीघ्र चलिये।’’ रोते हुए बालक अश्रुवर्षा करने लगे, तब देवदूत उन बालकों से कहने लगा- ’’मेरे प्रिय पुत्रो! इस प्रकार विलाप करने से समस्या का समाधान नहीं होगा। मैं आपके कल्याण के लिए वरदान देता हूँ कि दो नौकर सर्वदा आपकी मदद करेंगे। वे आपको स्नान करायेंगे, दूध पिलायंेगे, खेती करेंगे, भोजन पकायेंगे, केशों पर कंघी करेंगे। अधिक क्या रेगिस्तान में गंगा बहा देंगे, आकाश में फूल उगा देंगे।’’

यह सुनकर बालक आश्चर्य में पङ गये और देवदूत के चारों ओर खङे हो गये। देवदूत के वरदान से सभी बालकों के शरीर में दो हाथ उग आये जो हमेशा उनकी सहायता करने वाले थे। देवदूत ने उन्हें कहा- ’’ये हाथ आपके सहायक हैं। आप परस्पर सहयोग करो। आप लोग मिलकर इन हाथों से कठिन काम भी कर सकते हो। यदि आप इन हाथों को विनाशकारी कार्यों में लगाएँगे तो आप स्वयं भी नष्ट हो जायेंगे।’’ सभी बालक खुश हो गये और उन्होंने अपने-अपने हाथ चूमे।

आकाश में उङते हुए देवदूत ने कहा, ’’मैं प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्य की खिङकी से देखूँगा कि आप लोग हाथों से क्या काम कर रहे हैं? परस्पर एक-दूसरे की सहायता कर रहे हैं अथवा विघ्न उत्पन्न कर रहे हैं।’’ बालकों ने अपने-अपने हाथों से देवदूत को प्रणाम किया। इसीलिए प्रतिदिन प्रातःकाल लोग सूर्य को प्रणाम करते हैं। देवदूत भी सूर्य की खिङकी से हमारे कार्यों को देखता रहता है- ऐसा लोगों का विश्वास है।

शिक्षा – हमारे दोनों हाथ ही हमारे साथी है, जो हमारा हर कार्य करते है।

जीत-हार का रहस्य

एक बार चार पुरुष पैदल ही विदेशयात्रा के लिए निकले। उनमें एक ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा व्यापारी और चैथा नाई था। वे चारों घूमते-घूमते बहुत दूर निकल गये। मध्याह्न में भूख लगने पर उन्होंने विचार किया- हम लोग भोजन भी नहीं लाये हैं। कुछ समय बाद वे चलते हुए चने के खेत के पास आ पहुँचे। खेत का मालिक उस समय वहाँ नहीं था। वे बन्दरों की तरह उन चनों को खाने लगे। कुछ समय बाद किसान खेत को देखने के लिए आया किसान को देखकर उन्होंने विचार किया- यह बेचारा हमारा क्या कर सकेगा?

किसान पहले तो कुछ नहीं बोला, कुछ समय बाद कहने लगा, ’’सज्जनो! आप कौन हैं?’’ पण्डित ने अभिमानपूर्वक कहा, ’’मेरा नाम ब्रह्मदत पाण्डे है।’’ क्षत्रिय ने कहा, ’’मैं विक्रमसिंह हूँ’’। व्यापारी ने कहा- ’’मैं लाला धनिकमल हूँ।’’ नाई ने कहा, ’’मेरा नाम रामदास।’’ चने के चोरों का परिचय पाकर किसान ने सर्वप्रथम पण्डित के चरण स्पर्श करके कहा, ’’हमारे पूर्वजों के पुण्य से आज आप यहाँ आये हैं। आप छाया में बैठकर इच्छानुसार चने खाइये।’’ पण्डित ने ऐसा ही किया। बाद में किसान क्षत्रिय के पास आकर कहने लगा, ’’हे राजन्! यह पृथ्वी आपकी ही है, आप भी वृक्ष की छाया में बैठकर इच्छानुसार चने खाइये।’’ किसान की भक्ति से क्षत्रिय भी प्रसन्न होकर, वृक्ष की छाया में बैठकर चने खाने लगा।

इसके बाद किसान व्यापारी के पास आया और कहने लगा, ’’हे व्यापारी! आप भी वृक्ष की छाया में बैठ जाइये। मैं आपके लिए चने लाऊँगा।’’ अपनी प्रशंसा से प्रसन्न होकर व्यापारी भी वहाँ बैठकर चने खाने लगा। अब नाई विचार कर रहा था, यह किसान मेरा भी आदर-सत्कार करेगा, किन्तु किसान नाई के पास आया और नाई के केशों को पकङकर कहने लगा, ’’अरे नीच! तू कौन है? मेरे खेत में कैसे घुस गया?’’ ऐसा कहकर उसे मारने लगा। एक भी व्यक्ति उसकी सहायता के लिए नहीं आया। इसके बाद किसान व्यापारी के पास आया और उसे भी यह कहते हुए मारने लगा। ’’क्यों रे व्यापारी! तू कैसे चने खाने लग गया। तू पैसे लेकर हमें चीजें देता है।’’ ऐसा कहकर किसान ने उसको भी मारा-पीटा।

तत्पश्चात् किसान ने क्षत्रिय को पकङकर कहा, ’’अरे नीच क्षत्रिय! विधाता ने तुझे दूसरों की रक्षा के लिए रचा है, तू तो स्वयं ही चोरी करता है। ब्राह्मण तो हमारे लिए पूज्य हैं। उनकी कृपा से ही यह भूमि धन-धान्य से पूर्ण है।’’ ऐसा कहकर किसान उसे भी मारने लगा। गिरता-पङता वह जिस किसी तरह भाग छूटा। नाई और व्यापारी भी भाग छूटे।
पण्डित आपने-आपको अकेला मानकर फूट-फूटकर रोने लगा और बोला, ’’हे कृषक! मैं कुलीन ब्राह्मण हूँ, मेरी रक्षा कर। पण्डितों के पुण्य से ही तेरे यहाँ समृद्धि है।’’ क्रोध में आकर पण्डित को भी फटकारते हुए किसान ने कहा, ’’हे पाखिण्डिन्? तू ब्राह्माण नहीं है, चनों का चोर है।’’ किसान ने पण्डित की भी अच्छी प्रकार पूजा की। पण्डित भी जिस किसी तरह वहाँ से भाग छूटा और वहाँ पहुँचा जहाँ वे तीनों बैठे हुए थे। वे चारों वहाँ आपस में झगङने लगे। उनके झगङे को देखकर कोई बुद्धिमान वहाँ आया और सारी बातें सुनकर हँसकर बोला।

आप चारों ही मूर्ख हैं। सबसे पहले तो आप किसान के खेत में बिना आज्ञा के घुस गये। बुरे कर्म करने से आप लोग स्वयं ही निर्बल हो गये। संकट आने पर भी आप संगठित नहीं हुए। चतुर किसान ने भेदनीति का आपके ऊपर प्रयोग किया और एक-एक पर प्रहार किया। चारों ही बुरे कर्म का फल पाकर अपने घर लौटे। यह सत्य है कि सदाचारी किसान ने विजय प्राप्त की।

शिक्षा – हमें चोरी जैसे बुरे कर्म नहीं करने चाहिए क्योंकि बुरे कर्म करने से बुरा ही फल मिलता है तथा हमें मुसीबत आने पर एक-दूसरे का साथ देना चाहिए, क्योंकि संगठन में ही शक्ति होती है।

नहीं बदलने वाली भाग्य रेखा

एक बार किसी राजा की ज्योतिष विद्या पढ़ने की प्रबल इच्छा हुई। उसने बाजार से ज्योतिष की मुख्य-मुख्य पुस्तकें खरीद लीं। ज्योतिष विद्या के प्रकाण्ड पण्डितों को भी अपनी सभा में बुलाया ताकि वह उनसे ज्योतिष सीख सके। कुछ समय बाद वह स्वयं को ज्योतिष का विद्वान् मानने लगा। एक बार राजा अपने कमरे में पुस्तक पढ़ रहा था। सिपाही दरवाजे पर नंगी तलवार लेकर इधर-उधर घूम रहा था, यह सिपाही लंगङा था।

राजा ने सिपाही के पैरों की आवाज सुनी। राजा ने मन में विचार किया क्यों न इस बेचारे का हाथ देख लूँ? राजा ने शीघ्र ही अपने कमरे में बुलाया। ’महाराज की जय हो!’ यह कहते हुए सिपाही ने कमरे में प्रवेश किया। राजा ने कहा, ’’तुम्हारा क्या नाम है?’’ सिपाही ने कहा, ’’मेरा नाम बलवन्तसिंह है।’’

’’मैं तुम्हारा हाथ देखना चाहता हूँ, हाथ दिखाओ!’’ ऐसा आदेश मिलने पर बलवन्तसिंह ने अपने हाथ फैला दिये। राजा ने अच्छी तरह उसका हाथ देखकर मन में विचार किया, ’यह कभी धनवान नहीं हो सकता, इसके हाथ में धन की रेखा नहीं है। मैं इसको धनवान् क्यों न बना दूँ? राजा चाहे तो निर्धन के भाग्य को भी बदल सकता है।’ ऐसा सोचकर उसने बलवन्तसिंह के हाथ में एक पत्र देकर कहा, ’’इस पत्र को रामपुरा महाराज के पास पहुँचाओ।’’

यह सुनकर बलवन्तसिंह, सीलबंद पत्र को लेकर अपने घर आया और उदास होकर विचार करने लगा- राजा के पास अनेक सिपाही हैं, वह मुझ जैसे लंगङे को वहाँ क्यों भेज रहा है? वहाँ उसके बचपन का मित्र रामू भी बैठा था, उसने कहा, ’’तुम उदास क्यों हो?’’ बलवन्तसिंह ने सम्पूर्ण वृत्तान्त उसे सुनाया। रामू ने कहा, ’’ठहरों, मैं इस पत्र को राजा के पास पहुँचाऊँगा।’’

रामू ने शीघ्र ही हाथ-पैर धोये, वस्त्र पहिने और पत्र को लेकर रामपुर की ओर चल पङा। पत्र पढ़कर राजा ने सिर से पैर तक नौकर को देखा तथा आदरपूर्वक, प्रेम से पकवान खिलाये। मन में शंकित होकर रामू ने बङी मुश्किल से राजा से पूछा- ’’इस पत्र में क्या लिखा हुआ है, जिससे आप मेरा सत्कार कर रहे हैं?’’ राजा ने कहा, ’’आप स्वयं पत्र को पढ़िये।’’ रामू ने पत्र पढ़ा, पत्र में लिखा था- ’अपनी कन्या से इसका विवाह कर देना, मैं इसे अपने राज्य का चैथ हिस्सा दूँगा।’ राजा ने प्रसन्न होकर विवाह का प्रबन्ध किया।

एक दिन राजा ने बलवन्तसिंह को बुलाकर पूछा, ’’क्या तुमने मेरा पत्र दे दिया था?’’ नौकर ने कहा, ’’लंगङा होने से मैं स्वयं शीघ्रता से चलने में असमर्थ था अतः मैंने मेरे मित्र रामू को भेजकर पत्र वहाँ पहुँचा दिया है।’’ राजा को क्रोध आया किन्तु वह कुछ न बोला। दूसरे दिन राजा ने तरबूज के अन्दर रत्न-आभूषण डालकर बलवन्तसिंह को दिये। जब यह रास्ते में जा रहा था तो किसी ने पूछा, ’’क्या आप इस तरबूज को दो रुपयों में बेचना चाहते हैं?’’ वह लोभ में आ गया और फल बेचकर अपने घर चला गया।

दो दिन बाद रामू अपनी पत्नी को लेकर राजभवन आया। राजा ने उसे राज्य का चैथा भाग दिया। जिसके हाथ उसने तरबूज बेचा था, उसने भी विशाल भवन बना लिया था। बलवन्तसिंह ने विचार किया, यह सब मेरी मूर्खता का फल है, क्योंकि मैंने राजा की भावना को नहीं समझा, यदि राजा मुझे फिर अवसर देगा तो इसका पूरा-पूरा लाभ उठाऊँगा। कुछ दिनों बाद राजा ने बलवन्तसिंह को बुलाकर कहा, ’’यह पत्र सेनापति को दे आओ।’’ बलवन्तसिंह प्रसन्न होता हुआ सेनापति के पास आया। उसने विचार किया कि इस पत्र में कोई लाभदायक सन्देश होगा। किन्तु उसका अनुमान झूठा निकला। पत्र पढ़ते ही सेनापति ने बलवन्तसिंह को जेल में डाल दिया जाय और इसकी सम्पत्ति भी जब्त कर ली जाए।

शिक्षा – उस दिन राजा ने निश्चय किया कि मनुष्य की भाग्य की रेखा नहीं बदली जा सकती है, जो कुछ भी परिवर्तन है वह ईश्वर के आधीन है न कि मनुष्य के।

 

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