नाख़ून क्यों बढ़ते है || निबंध || हजारी प्रसाद द्विवेदी || हिंदी साहित्य

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति की मानवातावादी को अखण्ड बनाए रखने का सराहनीय प्रयास किया है।आज हम इनके निबंध नाख़ून क्यों बढ़ते है पर चर्चा करेंगे |

हजारी प्रसाद द्विवेदी  – नाखून क्योें बढते हैं (Nakhun kyu badhte hai)

उन्होंने भारतीय और धर्म का विवेचन किया। रामायण,महाभारत,लौकिक,बौद्ध साहित्य,संत साहित्य की लोकधर्मिता व उनकी जन सम्बद्धता को उजागर किया। इनके निबन्धों में भारत की संस्कृति,परम्परा,जीवन-दर्शन,जीवन मूल्यों,आदर्शवादिता,उदारता,उदात्तता की अद्भुत छटा विद्यमान है।
इन्होंने अपने सांस्कृतिक निबंधों के माध्यम से नव- निर्माण का कार्य किया। इनके निबंधों में भारतीय संस्कृति की देन, कुटज, देवदास, अशोक के फूल, भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या, हमारी संस्कृति और साहित्य का संबंध, शव साधना आदि प्रमुख हैं।
 आचार्य द्विवेदी ने 200 से अधिक निबंधों की रचना की। जो अशोक के फूल, विचार और वितर्क, विचार- प्रवाह, हमारी साहित्यिक समस्याएँ, कल्पलता, साहित्य का अर्थ, गतिशील चिंतन, मध्यकालीन धर्म साधना, कुटज आदि निबंध संग्रहों में संकलित है। 
द्विवेदी के निबंधों को सांस्कृतिक साहित्यिक, शास्त्रीय, भाषा संबंधी, हिन्दी साहित्य ज्योतिष, धर्म- नीति, रवीन्द्र-गाँधी संबंधी, प्रकृति विषय आदि कई विषयों में विभाजित किया जा सकता है।
    आचार्य द्विवेदी के निबंधों से उनका साहित्यिक दृष्टिकोण पता चलता है। वे साहित्य को मानव-सापेक्ष मानते हैं। वे कहते हैं कि हर चीज अशुद्ध है यदि कुछ शुद्ध है तो मानव की जिजाविषा। जो गंगा की अबाधित-अनाहित धारा के समान सब कुछ हजम करने के बाद भी पवित्र है। 
   अपने निबंधों द्वारा वे समाज के पिछङे, हाशिए पर धकेले गए वर्ग की आवाज भी उठाते हैं। ’कुटज’ उनका ऐसा ही निबंध है। 
   द्विवेदी जी कहते हैं कि भारत की किसी भी भाषा के साहित्य का समुचित अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि हमें अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य से भी परिचित होना पङेगा। हिन्दी साहित्य का अध्ययन बिना पाली, प्राकृत और अपभ्रंश के अध्ययन के संभव नहीं ।
उन्होंने सिद्धों, नाथों, तथा वज्रयानियों की साधना पद्धति, उनके परिवेश युग तथा उनकी साहित्यिक विरासत पर खूब लिखा है। 
    भाषा की सहजता, प्रवाह तथा अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से आचार्य द्विवेदी एक आदर्श हैं। वे कहते हैं कि सहज भाषा का अर्थ सहज ही महान् बना देने वाली भाषा है।
द्विवेदी जी कहते हैं कि मैं अन्य भाषाओं से शब्द लेने का बिल्कुल विरोधी नहीं हूँ। उनकी रचनाओं में अरबी,फारसी, अंग्रेजी आदि के शब्दों का बहुत प्रयोग हुआ है। वे भाषा में टीमटाम और आडंबर का विरोध करते हैं। 
   भाषा के समान ही द्विवेदी जी की शैली भी सरल और विविध रूप धारण करने वाली है। उन्होंने व्यास तथा समास दोेनों की शैलियों को अपनाया है। 

निबंध सारांश 

 

अपनी छोटी लङकी के यह पूछने पर कि नाखून क्यों बढते है,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवदी का ललित निबन्धकार की प्रवृति जाग उठती है और वे इसका उत्तर खोजने के लिए मनुष्य के आदिमकाल से अब तक के जीवन पर दृष्टिपात करते है और इस ललित निबन्ध में इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि नाखून पशुता के प्रतीक है और उनका काटना मनुष्यता की निशानी है।
ये अस्त्र-शस्त्रों, अणु परमाणु बम्बो का बनना भी पशुता की प्रवृत्ति है।
नाखून कटने पर भी बार-बार बढकर इस बात को सूचित करते है कि अज्ञान सर्वत्र आदमी को पछाङता है और आदमी सदैव उससे लोहा लेने को कमर कसते है।
मनुष्य को सुख भौतिक सुख समृद्धि से नहीं मिलेगा, अस्त्र-शस्त्र की बाढ से नहीं मिलेगा वरन् सच्चा सुख मिलता है प्रेम से, आत्मदान से। अनावश्यक अंगों के झङने के प्राकृतिक विकास में जिस दिन मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जाऐगा उस दिन मनुष्य की पशुता भी समाप्त हो जाएगे। उस दिन के आने तक मनुष्य नाखून काटता रहेगा, पशुत्व को कुचलता रहेगा। 
  इस ललित निबंध में द्विवेदी जी ने मानवीय संस्कृति के उद्गम से लेकर उसकी आज तक की बहुविध स्थितियों का तर्कसंगत इतिहास प्रस्तुत करते हुए अपने इस ललित निबंध को बातचीत के स्तर से ऊपर उठा कर अपरिमेय क्षितिज प्रदान किया है। 
’नाखून क्यों बढते है’ हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रसिद्ध निबन्ध है।
नाखून मनुष्य आदिम हिंसक मनोवृत्ति का परिचायक है। नाखून बार-बार बढते हैं और मनुष्य उन्हें बार-बार काट देता है तथा हिंसा से मुक्त होने और सभ्य बनने का प्रयत्न करता है।
मानव जीवन में आए दिन अनेक सामाजिक बुराइयों का सामना होता है, सभ्य समाज इसको नियन्त्रित करने का प्रयत्न करता है, साधु-सन्त अपने उपदेशों द्वारा मानव की इन बुराइयों से दूर रहने के लिए सचेत करते रहते है।
 सरकारें भी इन बुराइयों को रोकने के लिए कानून बनाती हैं। उपर्युक्त सभी प्रयत्न एक तरह से नाखून काटने के समान हैं। बुराई को जङ से खत्म करना तो सम्भव नहीं, लेकिन जो इनमें लिप्त रहते है, वे समाज में अपवाद माने जाते हैं। 
 द्विवेदी जी ने इस आलोचनात्मक निबन्ध में स्पष्ट किया है नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अन्ध सहजावृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता(success) ले आना चाहती हैं तथा नाखूनों को काट देना स्व-निर्धारित आत्म बन्धन है, जो उसे चरितार्थ की ओर ले जाती है।
नाखून का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य(human) की अपनी इच्छा है। मनुष्य का अपना आदर्श है।
इस निबंध के माध्यम से द्विवेदी जी यह स्पष्ट कर देना चाहते है कि मानव का अपने जीवन में अस्त्र-शस्त्रों को बढ़ने देना मनुष्य के अन्दर पलने वाली बर्बर पशुवृत्ति की पहचान है तथा अस्त्र-शस्त्रों की बढ़ोतरी को रोक देना मनुष्यत्व का अनुरोध तथा मानवता की पहचान तथा उसकी पहचान तथा उसकी आवश्यकता है।
द्विवेजी जी ने इस निबंध के माध्यम से नाखूनों को प्रतीक बनाकर व्यंग्य के माध्यम से आज के तथाकथित बाहर से सभ्य दिखने वाले, किन्तु अन्दर से बर्बर समाज पर कटाक्ष किया है। 

 विशेष: 

  • यह विचार प्रधान व्यक्तिनिष्ठ निबंध है ।
  • नाखून का बढ़ना पशुता का प्रतीक है, नाखून का काटना मनुष्यता का प्रतीक है।
  • मानवतावादी स्वर प्रमुख। 
  • प्राचीनता और नवीनता का समन्वयता । 
  • यह निबन्ध ‘कल्पलता’ निबन्ध संग्रह में संकलित है।

 

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