दोस्तों आज की पोस्ट में हरिऔध जी की चर्चित रचना प्रियप्रवास(Priyprvaas) के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य जानेंगे।
प्रियप्रवास – Priyprvaas
हरिऔध जी द्विवेदी युग के प्रख्यात कवि होने के साथ-साथ उपन्यासकार आलोचक व इतिहासकार भी थे। पण्डित श्रीधर पाठक के बाद हरिऔध जी हैं जिन्होंने खङी बोली में सरस व मधुर रचनाएँ की।
प्रियप्रवास की रचना हरिऔध जी ने 1914 ई. में की। यह हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। इसकी कथावस्तु में श्रीकृष्ण के मथुरागमन, राधा गोपियों की विरह गाथा, पवनदूती प्रसंग, यशोदा की व्यथा, उद्धव-गोपी संवाद, राधा-उद्धव संवाद आदि का मार्मिक निरूपण हुआ है।
इसमें राधा और कृष्ण को सामान्य नायक-नायिका के स्तर से ऊपर उठाकर विश्वसेवी तथा विश्वप्रेमी के रूप में चित्रित करने में हरिऔध जी ने अपनी मौलिकता का परिचय दिया है।श्रीकृष्ण के जीवन से जुङी अनेक घटनाएँ बकासुर, पूतना वध, शकटासुर, कालीनाग, कंस, जरासन्ध आदि का वर्णन यथास्थान हुआ है। प्रियप्रवास की राधा केवल विरहिणी ही नहीं बल्कि वह लोक व समाज सेविका की भूमिका भी निभाती हैं।
इसी प्रकार कृष्ण भी जननायक की भूमिका निभाते हैं। इस महाकाव्य में आध्यात्मिक एवं लौकिक प्रेम को प्रस्तुत करते हुए लोकपक्ष एवं लोक-कल्याण पर कवि का ध्यान केन्द्रित रहा है।
’प्रियप्रवास’ महाकाव्य कुल 17 सर्गों का वर्णन निम्न प्रकार से है
- प्रथम सर्ग इसमें संध्या वर्णन है।
’दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला।’ (द्रुतविलम्बित छन्द)
- द्वितीय सर्ग इसमें गोकुलवासियों का कृष्ण से विरह होने पर उनका व्यथित होना है।
- तृतीय सर्ग इसमें नन्द की व्याकुलता एवं यशोदा को कृष्ण की कुशलता के लिए की गई मनौतियाँ हैं।
- चतुर्थ सर्ग इसमें राधा के सौन्दर्य का चित्रण है।
- पाँचवाँ सर्ग इस सर्ग में गोकुल के विरह का वर्णन है साथ ही राधा एवं माता यशोदा की व्यथा की मार्मिक
- अभिव्यक्ति का वर्णन है।
- छठा सर्ग कृष्ण-यशोदा वर्णन।
- सातवाँ सर्ग नन्द के मथुरा से लौटने पर माता यशोदा के पुत्र विषयक प्रश्नों पर मार्मिक वर्णन।
- आठवाँ सर्ग इस सर्ग में गोकुलवासियों के कृष्ण के साथ बिताए पलों का वर्णन है।
- नवाँ सर्ग श्रीकृष्ण का गोकुल की यादों में खोए होना दिखाया गया है।
- दसवाँ सर्ग उद्धव प्रसंग
- ग्यारहवाँ सर्ग उद्धव प्रसंग
- बारहवाँ सर्ग श्रीकृष्ण का जननायक के रूप में वर्णन।
- चौदहवाँ सर्ग गोपी-उद्धव संवाद
- पन्द्रहवां सर्ग कृष्ण विरह में गोपियों की व्यथा का वर्णन
- सोलहवाँ सर्ग राधा-उद्धव संवाद
- सत्रहवाँ सर्ग विश्व प्रेम व्यक्तिगत प्रेम से ऊपर है, हरिऔध जी द्वारा वर्णन।
प्रियप्रवास के प्रमुख चरित्र कृष्ण एवं राधा हैं परन्तु कवि ने उसमें युगानुकूल कुछ परिवर्तन किए हैं। इसमें श्रीकृष्ण को भगवान न मानकर एक महापुरुष, एक जननायक के रूप में चित्रित किया गया है। श्रीकृष्ण मानवता के अनन्य पुजारी हैं। वे अन्याय का दमन करने वाले हैं।
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प्रियप्रवास की राधा भी लोकसेविका व समाजसेविका है। वह नवीन गुणों से युक्त है। वह निर्भीक, कर्तव्यपरायण, दूसरे का दुःख दूर करने वाली है। वह जीवनपर्यन्त कौमार्य व्रत का पालन कर लोक सेवा के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर कर देती है। वह श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेमिका है। परन्तु वह ब्रजभूमि की सेवा में ही अपना जीवन लगा देती हैं।
हरिऔध जी ने महाकाव्य में अपने युग का सजीव वर्णन किया है। यह महाकाव्य मूलतः वियोग शृंगार का ग्रन्थ है। वियोग वात्सल्य का भी चित्रण हुआ है। इसमें कई जगहों पर संयोग शृंगार, रौद्र, अद्भुत व भयानक रसों का चित्रण है। राधा एवं कृष्ण के चरित्रों से हम मानव सेवा की प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
प्रियप्रवास की राधा सूर की राधा से अलग है। प्रियप्रवास की राधा सूर की राधा की भांति इधर-उधर नहीं भटकती, परन्तु वह माता यशोदा को धैर्य बँधाती है। दीन-हीन लोगों की सेवा करती है। जब राधा उद्धव के मुख से यह सुनती है कि कृष्ण सर्वजन हिताय के कार्यों में संलग्न हैं तो वह भी विश्व प्रेम की भावना से जनकल्याण में लग जाती है।
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