हिन्दी साहित्य के आदिकाल में रचित जैन ‘रास काव्य’ वीरगाथाओं के रूप में लिखित रासो काव्य(Raso kavya) से भिन्न है। जैन रासों काव्यों धार्मिक दृष्टि से प्रधान होने के कारण ‘वर्णन की वह पद्धति प्रयुक्त नहीं हुई, जो वीरपरक रासो ग्रन्थों में मिलती है। रासो काव्य की विषयवस्तु का संबंध राजाओं के चरित तथा प्रशंसा से है, इसे ही रासो काव्य कहते है।
यह काव्यधारा उस समय के सामंती राजसी परिवेश का स्वाभाविक प्रतिनिधित्व करती है। वीर और शृंगार रसों की प्रधानता इस काव्य की विशेषता है हालांकि व्यापक रूप से इसमें अन्य रस भी शामिल हुए हैं। रासो काव्य में मुख्यतः तीन प्रकार की रचनाएं शामिल हैं-
- वीरतापरक (पृथ्वीराज रासो)
- शृंगारपरक (संदेशरासक और वीसलदेव रासो)
- उपदेशात्मक काव्य ( उपदेशरसायन रास, चन्दनबाला रास)
अब हम आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत रासो काव्य (Raso sahitya) को पढेंगे , इस टॉपिक में हम रासो का अर्थ ,प्रमुख रासो काव्य ग्रन्थ और रासो काव्य की विशेषताएँ पढेंगे।
रासो काव्य – Raso Kavya
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हिन्दी साहित्य के आदिकाल में रचित जैन ‘रास काव्य’ वीरगाथाओं के रूप में लिखित रासो काव्यों से भिन्न है। जैन रासों काव्यों धार्मिक दृष्टि से प्रधान होने के कारण ‘वर्णन की वह पद्धति प्रयुक्त नहीं हुई, जो वीरपरक रासो ग्रन्थों में मिलती है। रासो काव्यों की विषयवस्तु का संबंध राजाओं के चरित तथा प्रशंसा से है, इसे ही रासो काव्य कहते है।
यह काव्यधारा उस समय के सामंती राजसी परिवेश का स्वाभाविक प्रतिनिधित्व करती है। वीर और शृंगार रसों की प्रधानता इस काव्य की विशेषता है हालांकि व्यापक रूप से इसमें अन्य रस भी शामिल हुए हैं। इस काव्य में मुख्यतः तीन प्रकार की रचनाएं शामिल हैं- वीरतापरक (पृथ्वीराज रासो), शृंगारपरक (संदेशरासक और वीसलदेव रासो) तथा उपदेशात्मक काव्य ( उपदेशरसायन रास, चन्दनबाला रास) मिलते है।
रासो काव्य में वीरता और शृंगार की प्रमुखता है, चूंकि यह काव्यधारा सामंती तथा दरबारी माहौल में विकसित हुई, इसलिए इसमें ऐसी प्रवृत्तियां प्रमुखता पा सकी। इन काव्यो मे मिलने वाला शृंगार दायित्वमूलक या प्रतिबद्धता मूलक नहीं बल्कि भोगमूलक है। राजस्थान के कतिपय वृत्त संग्रहकर्ताओं ने अधिकांश रासों काव्यों को अप्रामाणिक माना है।
रासो शब्द की उत्पत्ति – रासो काव्य
- आचार्य शुक्ल ने रासो शब्द की उत्पत्ति बीसलदेव रासो रचना के आधार पर ‘रसायण’ शब्द से मानी है।
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रासो शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘रासक’ शब्द से मानी हैं।
रासक – रासअ -रासा – रासो - पंडित नरोत्तम स्वामी और चंद्रबली पाण्डेय ने ‘रसिक’ से रासो शब्द की उत्त्पत्ति मानी है।
- दशरथ शर्मा व माता प्रसाद गुप्त ने रासो शब्द की उत्त्पत्ति ‘रासक’ से मानी है।
- नंद दुलारे वाजपेयी ने ‘रास’ शब्द से उत्त्पत्ति मानी है।
- कविराज श्यामलदास तथा काशी प्रसाद जायसवाल– ‘रहस्य’ शब्द से
- हरप्रसाद शास्त्री ने अपनी रचना में – ‘राजयश’ शब्द से रासो शब्द की उत्पत्ति मानी।
- गार्सा द तासी ने ‘राजसूय’ से रासो शब्द की उत्पत्ति मानी।
सर्वमान्य मत – रासो शब्द की उत्पत्ति ‘रासक’ शब्द से हुई
रासो काव्य की विशेषताएं – Raso kavya ki visheshta
- यह साहित्य मुख्यत: चारण कवियों के द्वारा रचा गया।
- इन रचनाओं में चारण कवियों के द्वारा अपने आश्रय दाता के शौर्य और ऐश्वर्य का वर्णन किया गया।
- चारण कवियों की संकुचित मानसिकता देखने को मिलती है।
- इनमें डिंगल और पिंगल शैली का प्रयोग हुआ है।
- युद्ध व प्रेम का अधिक वर्णन होने के कारण इसमें शृंगार और वीर रस की प्रधानता है।
- इनकी प्रमाणिकता संदिग्ध व अर्द्धप्रमाणिक मानी जाती है।
प्रमुख रासो ग्रंथ – रासो काव्य
पृथ्वीराज रासो :-
- लेखक – चंदबरदाई
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि चंदबरदाई हिंदी के प्रथम महाकवि है, और पृथ्वीराज रासो हिंदी का प्रथम महाकाव्य।
- मिश्र बंधुओं के अनुसार हिंदी का वास्तविक प्रथम महाकवि चंद्रवरदाई को ही कहा जा सकता है।
- नरोत्तम स्वामी के अनुसार यह मुक्तक रचना मानी जाती है।
- इसका प्रधान रस वीर है।
- पृथ्वीराज रासो में 69समय (खंड)का प्रयोग हुआ है।
- इसमें 68 छंदो का प्रयोग हुआ है।
- इसकी रचना शैली पिंगल भाषा है। जिसमें राजस्थानी और ब्रजभाषा को सम्मिलित किया गया है।
- कयमास वध प्रसंग इसी ग्रंथ मे है।
- हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे शुक – शुकी संवाद कहां है।
- डॉ वूलर ने 1875 ई. मे जयानक के पृथ्वीराज विजय के आधार पर इसे अप्रमाणिक घोषित किया।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार यह पूरा ग्रंथ जाली है।
- डॉ नगेंद्र ने इस रचना को घटना कोश कहकर पुकारा है।
- डॉ नामवर सिंह ने चंदबरदाई को छंदों का राजा कहा है।
- कर्नल जेम्स टॉड ने इस रचना को ऐतिहासिक ग्रंथ माना है
- बाबू गुलाब राय ने इस रचना को स्वभाविक विकासशील महाकाव्य कहां है।
- बाबू श्यामसुंदर दास और उदय नारायण तिवारी ने इसे विशाल वीर काव्य कहा है।
- डॉक्टर बच्चन सिंह के अनुसार यह एक राजनीतिक महाकाव्य है, दूसरे शब्दों में राजनीति के महाकाव्यात्मक त्रासदी है।
पृथ्वीराज रासो को अप्रमाणिक मानने वाले विद्वान
- गौरीशंकर हीराचंद ओझा
- कविराज मुरारी दान एवं श्यामल दान
- मुंशी देवी प्रसाद
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- डॉ वूलर
- मोती लाल मेनारिया
अर्द्धप्रमाणिक मानने वाले विद्वान
- हजारी प्रसाद द्विवेदी
- अगर चंद नाहटा
- मुनिजिन विजय
- सुनीतिकुमार चटर्जी
प्रमाणिक मानने वाले इतिहासकार
- डॉ श्याम सुंदर दास
- मोहनलाल विष्णु लाल पंड्या
- मथुरा प्रसाद दीक्षित
- डॉ दशरथ शर्मा
- अयोध्या सिंह उपाध्याय
- डॉ नगेंद्र
- जॉर्ज ग्रियर्सन
पृथ्वीराज रासो रचना की हस्तलिखित कृतियों के निम्न चार रूपांतरण प्राप्त होते हैं
वृहद रूपांतरण : इसमें 69 समय और 16306 छंद है।इसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा काशी मे हुआ इसकी हस्तलिखित प्रति उदयपुर मे है।
मध्यम रूपांतरण : इसमें 7000छंद है। इसकी प्रतिया अबोहर और बीकानेर मे सुरक्षित है
लघु रूपांतरण :इसमें 3500 छंद है। यह बीकानेर मे सुरक्षित है।
लघुतम रूपांतरण : इसमें 1300छंद है। डॉ दशरथ शर्मा ने इसे ही मूल संस्करण माना है।
प्रमुख पंक्तियाँ : रासो काव्य
बज्जिय घोर निसांन रान चौहान चहूं दिसि ।
सकल सूर सामंत समर बल जंत्र मंत्र तिसि॥ चन्दबरदाई(पृथ्वीराज रासो)
मनहुं कला ससि भान कला सोलह सो बन्निय ।
बाल बैस सासि ता समीप अमृत रस पिन्निय’॥ चन्दबरदाई(पृथ्वीराज रासो)
राजनीति पाइयै । ग्यान पाइयै सु जानिय ।
उकृति जगति पाइयै। अरथ घटि बढ़ि उनमानिया॥ चन्दबरदाई(पृथ्वीराज रासो)
उक्ति धर्म विशालस्य राजनीति नवरसं ।
षट भाषा पुराणं च कुरानं कथितं मया॥ चन्दबरदाई(पृथ्वीराज रासो)
बीसलदेव रासो – रासो काव्य
- लेखक नरपति नाल्ह
- रचना समय –1212 विक्रम संवत(शुक्ल और HPD के अनुसार)
- इसका प्रधान रस शृंगार है
- इसका काव्य स्वरूप मुक्तक है
- इसमें कुल छंद 128 है
- माता प्रसाद गुप्त ने इसकी 128 छंदों की एक प्रति का संपादन किया है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार वीर गीत परंपरा का प्राचीनतम ग्रंथ बीसलदेव रासो है।
- इसकी नायिका राजमती है
- इसका नायक बीसलदेव तृतीय है।
- इसका विभाजन चार खंडों में किया गया है
- प्रथम खंड में राजमती और बीसलदेव के विवाह का वर्णन है
- इसके दूसरे खंड में बीसलदेव के उड़ीसा चले जाने का वर्णन है
- तीसरा खंड में राजमती के विरह वर्णन को दर्शाया गया है
- चतुर्थ खंड में बीसलदेव और राजमती का पुनर्मिलन है , इसमें राजस्थानी ब्रज और मध्य देश की भाषा का प्रयोग हुआ है
- इस की रचना शैली पिंगल मानी जाती है।
- हिंदी में बारहमासा का सर्वप्रथम वर्णन इसी ग्रंथ में हुआ
- बीसलदेव रासो एक विरह गीत काव्य है ।
- हिंदी का प्रथम बारहमासा वर्णन बीसलदेव रासो में मिलता है, जिसका ‘प्रारंभ‘ आषाढ़ मास’ से होता है ।
- बीसलदेव रासो में छन्द वैविध्य के साथ-साथ विभिन्न राग-रागनियों (विशेषत: राग केदार) का प्रयोग भी मिलता है ।
- इसमें मेघदूत एवं संदेश रासक की परम्परा भी विद्यमान है ।
- बीसलदेव रासो पर जिनदत्त सूरि के उपदेश रसायन का भी प्रभाव दिखाई देता है ।
- इस ग्रंथ का मूल संदेश यह है कि कोई स्त्री लाख गुणवती हो, यदि वह पति से कोई बात बिना सोचे-समझे करती है, तो सबकुछ बिगड़ सकता है । इसीलिए इस ग्रंथ को शृंगारपरक होते हुए भी नीतिपरक माना जाता है
प्रसिद्ध पंक्ति –
दव का दाधा कुपली मेल्हइ ।
जीभ का दाधा नु पाँगुरइ।
अस्त्रीय जनम काइ दीधउ महेस
अवर जनम थारइ घणा रे नरेश – बीसलदेव रासो
परमाल रासो – रासो काव्य
- लेखक : जगनिक
- रचनाकाल 1230 विक्रम संवत
- जगनिक कालिंजर के राजा परमर्दीदेव का दरबारी भाट कवि था। जिसने महोबे के 2 प्रसिद्ध वीरों आल्हा और उदल का वर्णन किया है।
- 1865 मे फर्रुखाबाद के तत्कालीन जिलाधीश चार्ल्स इलियट के द्वारा ‘आल्हाखंड’ नाम से प्रकाशन करवाया गया।
- श्यामसुंदर दास ने इसका परमालरासो के नाम से प्रकाशन करवाया।
- वाटर फील्ड ने इसका प्रकाशन अंग्रेजी मे किया।
- ’आल्हा खंड’ लोकगीत के रूप में बैसवाड़ा, पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड में गाया जाता है ।
- आल्हा गीत वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला लोकगीत है ।
- इस रचना के गीतों की गेय परम्परा का प्रमुख केंद्र बैंसवाड़ा, महोबा, बुंदेलखंड माने जाते है।
- परमाल रासो को आषाढ़, श्रावण मास मे गाया जाता है।
रामचंद्र शुक्ल के अनुसार,
बारह बरस लौ कूकर जीवै, अरू तेरह लौ जियै सियार।
बरस अठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवन को धिक्कार ॥ –जगनिक (परमाल रासो)
खुमान रासो – रासो काव्य
- लेखक :-दलपत विजय
- इनका रचनाकाल 9वीं शताब्दी माना जाता है
- इस रचना में कुल 5000 छंद है जिसमें वीर रस की प्रधानता है
- इस ग्रंथ की प्रमाणिक हस्तलिखित प्रति पुणे संग्रहालय में सुरक्षित है
- इस ग्रंथ में चित्तौड़ के रावल खुमान के साथ बगदाद के खलीफा अल मामू के युद्धों का वर्णन है।
- आचार्य शुक्ल के अनुसार 710 ईसवी से 1000 के बीच चित्तौड़ के रावल कुमाण नाम के तीन राजा हुए कर्नल टॉड ने इनको एक मानकर उनके युद्धो का विस्तार से वर्णन किया है।
- द्वितीय खुमाण के नाम पर खुमाण रासो की रचना हुई जिसका काल 870 -900विक्रम संवत है।
- खुमाण रासो की भाषा राजस्थानी है।
पिउ चित्तौड़ न आविऊ, सावण पहिली तीज ।
जौवै बाट बिराहिणी खिण-खिण अणवै खीज॥ – दलपति विजय (खुमाण रासो)
हम्मीर रासो
- शारंगधर द्वारा रचित
- इस रचना की मूल प्रति प्राप्त नहीं हुई है।
- प्राकृत पेंगलम मे कुछ पदों से इस रचना का पता चलता है।
- आचार्य शुक्ल ने इस ग्रंथ से अपभ्रंश रचनाओं की समाप्ति हुई मानी जाती है।
- रामचंद्र शुक्ल के अनुसार यह पुस्तक साहित्यिक पुस्तक के अंतर्गत आती है।
- राजा हमीर व अलाउदीन खिलज़ी के बीच युद्धों का वर्णन।
शुक्ल जी के अनुसार, “यह अपभ्रंश की अंतिम रचना है। अपभ्रंश लेखन की परंपरा यहीं से समाप्त होती है।”
विजयपाल रासो
- नल्ह सिंह द्वारा रचित।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार यह पुस्तक साहित्यिक पुस्तक के अंतर्गत आती है।
- यह अपभ्रंश भाषा की रचना है।
निष्कर्ष : रासो काव्य
आज के आर्टिकल में हमने हिंदी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत रासो काव्य (Raso Kavya) को पढ़ा ,अगर इस आर्टिकल में कोई भी त्रुटी हो तो नीचे कमेंट बॉक्स में जरुर लिखें ,आर्टिकल को समय -समय पर अपडेट किया जाएगा।
FAQ’S – रासो काव्य
1. रासो काव्य की दो विशेषताएँ लिखो
- यह साहित्य मुख्यत: चारण कवियों के द्वारा रचा गया।
- इनमें डिंगल और पिंगल शैली का प्रयोग हुआ है।
- युद्ध व प्रेम का अधिक वर्णन होने के कारण इसमें शृंगार और वीर रस की प्रधानता है।
2. रासो काव्य में बीसलदेव रासो ग्रंथ में कितने छंद है?
उत्तर – बीसलदेव रासो ग्रंथ में 128 छंद है।
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