आज के आर्टिकल में हम चंदबरदाई द्वारा रचित पृथ्वीराज रासो के अंश रेवा तट (Rewa Tat Prithviraj Raso) को व्याख्या सहित पढेंगे ,इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण तथ्य भी पढेंगे।
पृथ्वीराज रासो (रेवा तट समय)
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यह पृथ्वीराज रासो का अंश है जिसकी रचना चंदबरदाई ने की थी। कहा जाता है कि चन्दबरदाई पृथ्वीराज का सखा, सामंत, राजमंत्री था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अर्द्ध प्रामाणिक मानते हुए इसके उसी अंश को प्रामाणिक माना है जिसका प्रारम्भ शुक-शुकी संवाद से हुआ है। उनका प्रमुख तर्क यह है कि आदिकाल में प्रचलित संवाद शैली में ही पृथ्वीराज रासो की रचना हुई है। इस आधार पर वे केवल 7 सर्गों को ही प्रामाणिक मानते है जिसमें रेवातट समय नहीं है।
इस सम्बन्ध में उनका मत है कि सभी ऐतिहासिक कहे जाने वाले काव्यों के समान इसमें भी फैक्ट और फिक्शन का मिश्रण है इसके कथानक में भी रूढियों का सहारा लिया गया है इसमें भी रस सृष्टि की ओर ध्यान दिया गया है। कवि की कल्पना का समावेश भी है।
रेवातट समय में पृथ्वीराज ने रेवा नदी के तट पर जो भयानक युद्ध मोहम्मद गोरी से किया उसका वर्णन है।
’पृथ्वीराज रासो’ में 69 समय (सर्ग) हैं। ’रेवा तट’ समय पृथ्वीराज रासो का सत्ताइसवाँ समय (सर्ग) है। इसमें दिल्लीे के महान राजा पृथ्वीराज चौहान तथा शहाबुद्दीन गोरी के रेवा तट पर होने वाले संघर्ष का वर्णन है। जब शहबुद्दीन को अपने गुप्तचरों द्वारा ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज चौहान रेवा (नर्मदा) तट के समीप वन आखेट में रत हैं, तो वह अपनी सेना सहित पृथ्वीराज पर आक्रमण कर देता है, परन्तु पृथ्वीराज चौहान शीघ्र ही मोर्चा सँभाल लेते हैं और उसकी सेना को छिन्न-भिन्न करके उसे बन्दी बना लेते है।
अतः स्पष्ट है कि प्रस्तुत सर्ग में युद्ध का वर्णन है, इसलिए कुछ विद्वान् इस अंश के नामकरण ’रेवा तट’ पर आपत्ति उठाते है, लेकिन इस सर्ग में वर्णित पृथ्वीराज चौहान का रेवा तट के समीप किसी वन में आखेटरत होना तथा शहाबुद्दीन के आक्रमण करने पर उत्साह के साथ उस पर पलटवार करना आदि घटनाएँ इस शंका का निराकरण कर देती है।
’रेवा तट’ सर्ग की कथा –
पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामण्ड राय देवगिरि को जीतने के बाद कवियों ने पृथ्वीराज चौहान की कीर्तिक का बखान किया। एक दिन चामण्ड राय ने पृथ्वीराज से कहा कि रेवा (नर्मदा) नदी के तट पर ऐरावत हाथी के समा बहुत से हाथी पाऐ जाते है। अतः आप रेवा तट पर शिकार खेलने चलें, तभी पृथ्वीराज चौहान ने कवि चन्द से पूछा कि ये देवताओं के वाहन पृथ्वी पर कैसे आ गए।
कवि चन्दबरदाई ने उत्तर दिया कि हे महाराज! हिमालय के पास एक बहुत बङा वट वृक्ष था, जोकि सौ योजन तक फैला था
एक दिन हाथियों ने विचरण करते हुए उस वृक्ष की शाखाएँ तोङी और ऋषि दीर्घतपा का आश्रम उजाङ डाला। इस बात से क्रोधित होकर ऋषि ने मदान्ध हाथियों को श्राप दे दिया। इस कारण हाथी तब से गतिविहीन हो गए। तब मनुष्यों ने उन्हें अपनी सवारी बना लिया। कवि चन्द ने आगे बताा कि अंगदेश के एक वन में लोहिताक्ष सरोवर पर उन श्रापित हाथियों का झुण्ड क्रीङा करता था।
उसी वन में पालकाव्य ऋषि रहते थे, जिनकी हाथियों से अत्यन्त प्रीति थी। राजा पृथ्वीराज ने पूछा कि हे कविराज! उन ऋषि की हाथियों से इतनी प्रीति का कारण क्या था ? कवि ने बताया कि एक बार ब्रह्मर्षि को घोर तपस्या में रत देखकर देवराज इन्द्र डर गए और उनकी तपस्या को भंग करने के उद्देश्य से उन्होंने रम्भा (अप्सरा) को ऋषि के पास भेजा। ऋषि ने क्रोधित होकर रम्भा को हथिनी होने का श्राप दे दिया। एक दिन सोते हुए एक मुनि का वीर्यपात हो गया, जिसे हथिनी ने खा लिया और पालकाव्य मुनि का जन्म हुआ। पालकाव्य मुनी इसी कारण हाथियों से प्रीति रखते थे।
पालकाव्य ऋषि और वे श्रापित हाथी एक-दूसरे से बङी प्रीति रखते थे। एक दिन उस वन में राजा रोमपाद शिकार खेलने आया और हाथियों को पकङकर चम्पापुरी ले गया। हाथी पालकाव्य से बिछुङने के कारण दुर्बल होते चले गए, उनके दीर्घकाय शरीर कृशकाय हो गए फिर पालकाव्य ऋषि वहाँ आए और उनकी काफी सेवा-सुश्रूषा की। कोंपल, पराग, पत्ते, छाल, शाखाएँ आदि खिलाकर ऋषि ने उन्हे स्वस्थ कर दिया, जिससे सभी हाथी पुनः हृष्ट-पुष्ट हो गए।
कवि चन्द का हाथियो के विषय में यह वृतान्त सुनकर राजा पृथ्वीराज को बङा हर्ष हुआ, तभी चामण्ड राय ने पृथ्वीराज से कहा कि हे राजन्! रेवा तट पर बङे दाँतों वाले हाथियों के साथ-साथ मार्ग में सिंह भी मिलेंगे। आप उनका भी शिकार कर सकते हैं। चामण्ड राय ने आगे कहा कि वहाँ पहाङो और जलाशयों पर कस्तूरी मृग, कबतूर व अन्य पक्षी भी रहते हैं और दक्षिण दिशा का सौन्दर्य तो और भी अवर्णनीय है। यह सुनकर पृथ्वीराज ने सोचा कि मेरे वहाँ जाने से जयचन्द को तो ईष्र्या होगी, साथ ही स्थान भी रमणीक है। अतः चौहान ने रेवा तट की ओर प्रस्थान कर दिया।
वहाँ के सभी राजाओं ने पृथ्वीराज का स्वागत किया और पृथ्वीराज ने भी वहाँ खूब शिकार का आनंद लिया। उसी समय लाहौर के शास चन्द पुण्डीर दाहिम का पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि शहबुद्दीन गोरी ने चौहान पर आक्रमण करने के लिए एक बङी सेना तैयार की है। चन्द पुण्डीर के पत्र को पढ़कर चौहान लाहौर की ओर चल दिए।
पृथ्वीराज ने सभी सामन्तों से मन्त्रणा करके गोरी से युद्ध की घोषणा कर दी।
चन्द पुण्डीर ने अपनी सेना को लाहौर में गोरी की सेना को रोकने के लिए सावधान कर दिया। गोरी ने चिनाब नदी को पर किया, जहाँ उसका मुकाबला चन्द पुण्डीर से हुआ। चन्द पुण्डीर ने अपने पाँच वीरों के मरते ही गोरी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, तभी चौहान के दूतों ने उसे बताया कि तातार मारूफ खाँ (गोरी का प्रधान सेनापति) लाहौर से केवल पाँच कोस दूरिी पर ही है। यह सुनकर पृथ्वीराज ने गोरी की सेना पर आक्रमण कर दिया।
नगाङों के बजते ही हाथियों के घण्टे घनघना गए। चौहान की सेना के लोहे के बाणों को देखकर गोरी की सेना घबरा गई। दोनों ओर की सेनाएँ भिङ गई। चौहान पक्ष के साथ-साथ गोरी पक्ष के भी अनेक वीर योद्धा मारे गए। रावर, सँभरसिंह, सोलंकी माधवराय, गरुअ गोइंद, पंतग-जयसिंह, चन्द पुण्डीर, कूरम्भ, आहुट्ठ, लखन, लोहाना आदि बहुत से वीर मारे गए। चार दिन तक युद्ध निरन्तर चलता रहा। चौथे दिन चौहान के एक योद्धा गुज्जर ने गोरी को पकङ लिया। सुल्तान गोरी को हाथी पर बाँधकर दिल्ली ले गया।
वह एक माह और तीन दिन पृथ्वीराज की कैद में रहा। शहाबुद्दीन के अमीरों ने पृथ्वीराज से गोरी को छोङने की विनती की और दण्डस्वरूप नौ हजार घोङे, सात सौ ऐराकी घोङे, आठ सफेद हाथी, बीस ढली हुई ढालें, गजमुक्ता और अनेक माणिक्य दिए। तत्पश्चात् पृथ्वीराज चौहान ने गोरी से सन्धि कर ली और पहिना-ओढ़कर उसे उसके घर भेज दिया। यही ’रेवा तट’ सर्ग की कथा समाप्त हो जाती है।
’रेवा तट’ की काव्यगत विशेषताएँ
भाव पक्ष
’रेवा तट’ का प्रधान विषय पृथ्वीराज और गोरी का युद्ध है। स्पष्टतः इसका प्रधान रस वीर रस हैं। सर्ग के आरम्भ में चौहान को रेवा तट पर शिकार करने के लिए प्रेरित करते समय कुछ समय के लिए सौन्दर्य प्रधान छन्द मिलते हैं। तत्पश्चात् सम्पूर्ण सर्ग में युद्ध वर्णन, सैनिक व्यूह रचना, युद्ध साज-सज्जा आदि का ही वर्णन मिलता है। अतः कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण सर्ग में वीर रस का ही परिपाक हुआ है। चन्द पुण्डीर के दूत द्वारा लाए गए पत्र में गोरी की सेना के प्रति चौहान को सचेत किया गया है, जिसके द्वारा हमें गोरी की विशाल सेना का पता चलता है
श्रोतं भ्पय गोरियं बर भरं, बज्जाइ सज्जाइने।
सा सेना चतुरंग बंधि उलझ, तत्तार मारूफयं।।
तुज्झी सार स उप्परा वर रसी, पल्लानर्य षानयं।
एकं जीव सहाब साहि न नयं, बीयं स्वयं सेनयं।।
युद्ध में आमने-सामने डटी सेनाओं का उत्साह और शत्रुओं के प्रति मन में उत्पन्न होने वाले क्रोध का वर्णन करके कवि चन्द ने एक ही छन्द में वीर व रौद्र रस का मानो समागम ही कर दिया है, जोकि अन्य काव्यांे में मिलना असम्भव है यथा-
लटक्कै जुरनं उङै हंस हल्लै।
रसं भीजि सूरं चवग्गांन षिल्लै।।
लगे सीस नेजा भ्रमैं मेज तथ्यं।
भषै बाइसं भाट दीपत्ति सथ्यं।।
गोरी की सेना नजदीक आ गई है, यह समाचार सुनकर पृथ्वीराज के क्रोध और ओज को दृश्य अद्भूत बन पङा है।
वीर रस बर बैर बर, झुकि लग्गौ असमांन।
तौ नन्दन सोमेस को, फिर बंधौ सुरतांन।।
वीर रस व रौद्र रस की पुष्टि करने वाला यह छन्द दृष्टव्य है
भय प्रात रत्तिय जु रत्त दीसय, चन्द मन्दय चंदयौ।
भर तमस तामस सूर बन भरि, रास तामस छंदयौ।।
बर बज्जियं नीसांन धुनि घन, बीर बरनि अकूरयं।
धर धरकि धाइर करषि काइर, रसमि सूरस कूरयं।।
कला पक्ष
कला पक्ष की दृष्टि से ’रेवा तट’ स्पष्ट और प्रभावशाली है। वीर रस से पुष्ट होने के कारण इस सर्ग की भाषा ओजपूर्ण हैं। कवि ने अपभ्रंश भाषा का प्रयोग करते हुए अरबी, फारसी, तत्सम आदि शब्दों का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया है। ओजपूर्ण भाषा का एक उदाहरण यहाँ दृष्टव्य है
रे गुज्जर गांवार राज लै मंट न होई।
अप्प मरै छिज्जै नृपति कौन कारज यह जोई।
कवि चन्दबरदाई ने अपने रासो ग्रन्थ में छन्द योजना के अन्तर्गत छंदों की बाढ़ ही ला दी है। कवि ने दूहा (दोहा), छप्पय, भुजंगी, साटक, कुण्डलिया, कण्ठ शोभा, मोतीदाम, रसवला आदि प्राचीन छंदों के प्रयोग से काव्य में विशिष्टता लाने का सफल प्रयास किया है। निम्न उदाहरण हैं-
अहि बेली फल हथ्य लै, तौ ऊपर तत्तार।
मेच्छ मसरति सत्ति कै, बंच कुरानी बार।।
बर मुसाफ तत्तार षाँ, मस कित्ति तन बांन।
में भंजे लाहौर धर, लेहूँ सुनि सु विहान।
लेहूँ सु निसु विहान, सुनै ढिल्ली सरतांनं।
लुथ्थि पार पुण्डीर, भीर परिहै चैहांन।
दचित चित्त जिन करहु, राज आखेट उथापं।
गज्जनेस आयस्स, चले सब छूयं मुसाफं।
मिले सब्ब सामंत, मत्त मंडयौं सु नरेसुर।
दह गुना दल साहि, सज्जि चतुरंग समिय उर।।
मवन मंत चुम्कौ न, सोइ वर मंत विचारौ।
बल घट्यौ अप्पनौ सोच, पच्छिलौ निहारौ।।
पृथ्वीराज रासो में कवि चन्दबरदाई के प्रिय अलंकार उत्प्रेक्षा के चहुँओर दर्शन होते है; यथा-
लोह अंच उड्डंत, पत्त तरवर जिमि डोलै।
अनुप्रास अलंकार का भी प्रयोग कहीं-कहीं प्रभावशाली जान पङा है-
धन रहै ध्रम्म जस जागे है दीप दीपति दिवलोक पति।
वीप्सा अलंकार का यह उदाहरण भी प्रभावपूर्ण है-
बह बह कहि रघबंस रांम हक्कारि स उठ्यौ।
उत्प्रेक्षा अलंकार की तरह ही कवि नेन उपमा अलंकार का भी प्रमुखतः प्रयोग किया है-
बर बीर धार जुगिंद पंत्तिय, कब्बि ओपम पाइयं।
इस प्रस्तुत सर्ग ’रेवा तट’ कला पक्ष की दृष्टि से वैभवपूर्ण है। कवि ने प्रसंगानुकूल विविध छन्दों, रसों, अलंकारों आदि का प्रयोग कर ’पृथ्वीराज रासो’ को श्रेष्ठ काव्य बनाने में सफलतम प्रयास किया है।
रेवा तट के परीक्षापयोगी पदों की व्याख्याएँ
बिन्द ललाट प्रसेद, कर्यौ संकर गजरांज।
अैरा पति धरि नाम, दियौ चढ़नै सुरराजं।।
दानव दल तेहिं गंजि रंजि उमया उर अन्दर।
होई क्रपाल हस्तिनी संग बगसी रचि सुन्दर।।
औलादि तासु तन आय कै, रेवा तट वन बिछरिय।
सामन्तनाथ सों मिलत इष, दाहिम्मै कथ उच्चरिय।।
सन्दर्भ- उपर्युक्त तीनों दोहे चन्दबरदाई कृत ’पृथ्वीराज रासो’ के सर्ग ’रेवा तट’ से लिए गए हैं।
प्रसंग- यहाँ पर चामण्ड राय ने पृथ्वीराज को हाथियों की उत्पत्ति के विषय में बताया है।
व्याख्या :
शंकर ने अपने माथे के पसीने की बूँद से तिलक करके सामान्य गज को गजराज बना दिया (या शंकर ने अपने माथे के पसीने की बूँद से गजराज को उत्पन्न किया) और उसका नाम ऐरावत रखकर देवराज इन्द्र को सवारी करने के लिए दे दिया। उसने राक्षसों का नाश किया और उमा (माता पार्वती) के हृदय को प्रसन्न किया। उन्होंने कृपा करके उसे (ऐरावत को) एक सुन्दर हथिनी प्रदान की। इन्हीं के मिलन से (शरीर से) उत्पन्न इनकी सन्तानें रेवा तट के पास के वनों में फैल गई। दाहिम (चामण्ड राय) ने पृथ्वीराज से मिलकर इस कथा का वर्णन किया।
विशेष :
⇒ ऐरावत (हाथी), समुद्र-मन्थन की कथानुसार समुद्र से चौदह रत्नों के साथ निकला था।
⇒ यहाँ पर चन्दबरदाई ने अपने ग्रन्थ ’पृथ्वीराज रासो’ में अपने छन्द को ’कवित्त’ का नाम दिया है, परन्तु ये कवित्त नहीं है। वस्तुतः इसके लक्ष्मण ’छप्पय’ छन्द से मिलते है। ’छप्पय’ छः चरण वाला विषम मात्रिक छन्द होता है। इसके प्रथम चार चरण ’रोला’ के तथा अन्तिम दो चरण ’उल्लाला’ छन्द के होते हैं।
⇒ पिंगल भाषा का प्रयोग किया गया है तथा बगसी, फारसी और औलादि अरबी शब्द है।
⇒ ’शंकर के माथे के पसीने से गजराज के उत्पन्न’ होने के सन्दर्भ में यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है। अन्त्यानुप्रास अलंकार का प्रयोग भी दृष्टव्य है। ’गंजि रंजि’ में छेकानुप्रास अलंकार है।
हेमाचल उपकंठ एक वट वृष्ष उतंगं।
सौ जोजन परिमांन साष तस भंजि मतंगं।।
बहुुरि दुरद मद अंध ढाहि मुनिवर आरामं।
दर्घतपा री देषि श्राम दीनो कुपि तामं।।
अंबर विहार गति मंद हुअ र आरूढ़न संग्रहिय।
संभरि नरिंद कवि चंद कह सुर गइंद इम भुवि रहिय।।
सन्दर्भ- उपर्युक्त तीनों दोहे चन्दबरदाई कृत ’पृथ्वीराज रासोे’ के सर्ग ’रेवा तट’ के लिए गए हैं।
प्रसंग- पृथ्वीराज द्वारा यह पूछने पर कि देवताओं का वाहन पृथ्वी पर कैसे आया, तो कवि चन्द राजा के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि
व्याख्या :
हे राजन्! हिमालय पर्वत के निकट एक बङा ऊँचा वट (बरगद) का वृक्ष था। वह सौ योजन तक फैला हुआ था। पहले तो इन हाथियों ने उस वृक्ष की शाखाएँ तोङी और फिर मद से अन्धे इन द्विरदों (हाथियों) ने दीर्घतपा ऋषि का बगीचा उजाङ डाला, जिस कारण मुनिवर ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया। श्राप के कारण उनकी आकाशगामी चाल मन्द हो गई और मनुष्यांे ने अपनी सवारी के लिए उनका संग्रह कर लिया। कवि चन्द कहते है कि हे संभल के राजा (पृथ्वीराज) इस तरह देवताओं के वाहन (ये हाथी) पृथ्वी पर रह गए।
विशेष :
⇒ पौराणिक आख्यान दिया गया है। ’दीर्घतपा री’ से तात्पर्य यहाँ दीर्घतमस ऋषि से है। विष्णु पुराण के अनुसार, ’’दीर्घतपा या दीर्घतमस ऋषि चन्द्रवंशी पुरुरवा के वंशज काशिराज के पुत्र थे और धन्वन्तरि वैद्य के पिता थे।
⇒ अपभ्रंश तथा पिंगल भाषा का पुट है।
⇒ ’’सौ जोजन परिमांन’’ में अतिशयोक्ति अलंकार है। अन्त्यानुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।
श्रोतं भ्पय गोरियं बर भरं, बज्जाइ सज्जाइने।
सा सेना चतुरंग बंधि उलझ, तत्तार मारूफयं।।
तुज्झी सार स उप्परा वर रसी, पल्लानर्य षानयं।
एकं जीव सहाब साहि न नयं, बीयं स्वयं सेनयं।।
सन्दर्भ- उपर्युक्त दोनांे दोहे चन्दबरदाई कृत ’पृथ्वीराज रासो’ के सर्ग ’रेवा तट’ से लिए गए है।
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियों में चन्द पुण्डीर का दूत गोरी के श्रेष्ठ सेनापति के द्वारा की गई तैयारी का वर्णन कर रहा है।
व्याख्या :
चन्द पुण्डीर का दूत आगे कहता है कि हे राजन्! सुनिए, गोरी के श्रेष्ठ सेनापति तातार मारूक खाँ ने ढोल बजाकर सारी तैयारियाँ कर ली है और उसकी सेना चतुरंगिणी बनकर ऊपर झपटने या टूट पङने को तैयार हैं। आपके ऊपर आक्रमण करने की इच्छा से उन्हांेने अपने घोङों पर जीने कस ली है या आपकी सत्ता को नष्ट करने के लिए खान घोङे दौङा रहे है। गोरी की सेना ’एक साहब शाह (गोरी) रहे और कोई न रहे’ यह कहरक उसका स्वागत कर रही है।
विशेष :⇒ अपभ्रंश व पिंगल भाषा का प्रयोग।
⇒ ’तुज्झी सार स उप्परा बस रसी, पल्लानयं षानयं’ पंक्ति में श्लेष अलंकार है।
⇒ प्रस्तुत पद का छन्द ’साटक’ गुजराती काव्यों का छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 19-19 वर्ण होते हैं तथा 12वें व 7वें वर्ण पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरण में वर्णांे का क्रम मगण (ऽऽऽ), सगण (।।ऽ), जगण (।ऽ।), दो तगण (ऽऽ।) तथा एक गुरु (ऽ) के रूप में होता है।
⇒ ’रूपदीप पिंगल’ में साटक छन्द का विवरण इस प्रकार मिलता है-
कर्मे द्वादस अंक आद संग्या, मात्रा सिवो सागरे।
दुज्जी वी करिके कलाष्ट दसवी, अर्को विरामाधिकं।।
अंते गुर्व निहार धार सबके, औरों कछु भेदना।
तीसो मत्त उनीस अंक चने, से सो भणै साटके।।
तब कहै जैट पंवार सुनहु प्रिथिराज राजमत।
जुद्ध साहि गोरी नरिन्द लाहौर कोट गत।।
सबै सेन अप्पनौ राज एकट्ठ सु किज्जै।
इष्ट भ्रत्य सगपन सुहित (बीर) कागज लिषि दिज्जै।।
सामंत सामि इह मंत है अरुजु मंत चिंतै नृपति।
धन रहै ध्रम्म जस जोग है, दीप दिपति दिवलोकपति।।
सन्दर्भ- उपर्युक्त तीनों दोहे चन्दबरदाई कृत ’पृथ्वीराज रासो’ के सर्ग ’रेवा तट’ से लिए गए है।
प्रसंग- पृथ्वीराज शहाबुद्दी के आक्रमण के बारे में सुनकर अपने मंत्रियों से मन्त्रणा कर रहे हैं।
व्याख्या :
तब जैत प्रभार बोले, हे पृथ्वीराज! राजमत ऐसा हो क नरेन्द्र (पृथ्वीराज) को लाहौर के दुर्ग में जाकर शाह गोरी से युद्ध करना चाहिए। अपने राज्य की सम्पूर्ण सेना को इकट्ठा करके अपने इष्टों, भृत्यों, सगों, सुहितों को पत्र लिखना चाहिए। हे सामन्तों के स्वामी! यह राजमत है और जो कुछ आपको अच्छा लगता हो वह कीजिए (या जो आपका मत है, उसके अनुसार कीजिए)। धर्म और यश का योग ही आपका धन होना चाहिए, क्योंकि आपका तेज इन्द्र के समान दीप्तिमान है।
विशेष :
⇒ जैत प्रभार की पु़त्री इच्छिनी से पृथ्वीराज का विवाह हुआ था
⇒ छप्पय छंद का प्रयोग।
⇒ अन्तयानुप्रास अलंकार का प्रयोग तथा ’दीप दीपति दिवलोकपति’ में छेकानुप्रास है।
फिरे हय बष्षर पष्षर से। मनों फिरि इंदुज पंष कसे।
सोइ उपमा कवि चन्द कथे। सजे मनांे पोन पवग रथे।।
उर पुट्ठिय सुट्ठिय दिट्ठिियता। विपरीत पलंग तताधरिता।
लगैं उङि छित्तिय चैन लयं। सुने खुर केह अबत्तनयं।।
अग बंधिसु हेम हमेल घनं। तव चमर जोति पवंन रुनं।
ग्रह अट्ठ सतारक पीत पगे। मनो सुत क उर भांज उगे।।
पय मंडिहि अंसु धरै उलटा। मनो विट देषि चली कुलटा।
मुष कट्ठिन घूंघट अस्सु बली। मनो घूघंट दै कुल बद्धु चली
तिनं उपमा बरनं न घनं। पुजै नन बग्ग पवंन मनं।।
सन्दर्भ- उपर्युक्त चारों दोहे चन्दबरदाई कृत ’पृथ्वीराज रासो’ के सर्ग ’रेवा तट’ से लिए गए हैं।
प्रसंग- गोरी से युद्ध की निश्चितता जानकर युद्ध की तैयारियाँ होने लगी। अतः प्रस्तुत पद्यांश में घोङों की शोभा का वर्णन किया गया हैं।
व्याख्या :
घोङे अपने बाखर-पाखर (जिरह बख्तर) सहित ऐसे फेरे गए मानों गरुङ अपने पंखों को समेटकर उङ रहे हों। कवि चन्द उसकी उपमा करते हुए कहते है कि वे (घोङे) सूर्य के सारथी (प्लवंग) के घोङों की तरह सरपट दौङते प्रतीत होते हैं। उनकी छाती और पुट्ठे इतने सुन्दर दिखते है, मानों पलंग उलटकर रखे हों। जब ये चौकड़ी भरकर पृथ्वी पर चलते है, तो उनके सोने के खुर दिखाई देते है। उनके आगे सोने की हमेलें बँधी है, जो उनके चमकते हुए चँचर (कलगी) के साथ हवा में हिलते हैं, उनकी छाती पर हमेंले ऐसे लगते है, मानो आठ ग्रह पीली पग बाँधे तारामण्डल सहित चमक रहे हों।
घोङे चलते हुए अपने पैर ऐसे बनाते है, जैसे कोई व्याभिचारिणी स्त्री (कुलटा) अपने नायक को देखकर चलती हैं। घोङों के मुख पर पङी झालरे ऐसी प्रतीत होती है कि मानों घूँघर डालकर कुलवधुएँ चल रही हों। उनकी उपमाओं का वर्णन नहीं किया जा सकता। घोङों की सरपट चाल की तलना कैसे की जाए, यह मन में नही आता।
विशेष :
⇒ यहाँ कवि की लाक्षणिक शैली का ज्ञान होता है।
⇒ हमेल, अरबी का शब्द है। बष्षर-पष्षर देशज शब्द है।
⇒ कवि ने उपमानों की छटा ही बिखेर दी है।
⇒उपमा, उत्पे्रक्षा, यमक, अनुप्रास आदि विविध अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
⇒ प्रस्तुत कण्ठ शोभा छन्द के विषय में स्वयं कवि चन्द्र ने इसी सर्ग के 31वें छन्द में बताया गया है-
ग्यारह अष्षर पंच षट, लघु गुरु होइ समांन।
कंठ सोभ बर छंद कौ, नाम कह्यौ परवांन।।
भय प्रात रत्तिय जु रत्त दीसय, चंद मंदय चंदयौ।
भर तमस सूर बर भरि, रास तामस छंदयौ।।
बर बज्जियं नीसांन धुनि घन, बीर बरनि अकूरियं।
धर धरकि धाइर करषि काइर, रसमि सूरस कूरयं।।
गज घंट घन किय रुद्र भनकिय, षनकि संकर उद्दयौ।
रन नंकि भेरिय कन्ह हेरिय, दंति दांन धनं दयौ।।
सुनि वीर सद्दद सबद पढ्ढइ, सद्द सद्दइ छंडयौ।
तिह ठौर अद्भूत होत त्रप दल, बंधि दुज्जन षंडयौ।।
सत्राह सूरज सज्जि घाटं, चंद ओपम राजई।
मुकुर में प्रतिब्यंब राजय, सत्त धन ससि साजई।।
बर फल्लि बंबर टोप औपत, रीस सीसत आइये।
नष्षित्र हस्त कि भांन चंपक, कमल सूरहि साइये।।
बर बीर धार जुगिंद पंतिय, कब्बि ओपम पाइयं।
तजि मोहमाया छोह कल बर, धार तिथ्थ्य धाइयं।।
संसार संकर बंधि गज जिमि, अप्प बंधन हथ्थ्यं।
उनमत्त गज जिमि नंषि दीनी, मोहमाया सथ्थ्यं।।
सो प्रबल महजुग बंधि जोगी, मूनि आरम देवयो।
सामंत धनि जिति षित्ति कीनी, पत्त तरु जिमि भेवयो।।
सन्दर्भ- उपर्युक्त दोहे चन्दबरदाई कृत ’पृथ्वीराज रासो’ के सर्ग ’रेवा तट’ से लिए गए है।
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश मेंं युद्ध के मैदान का दृश्य वर्णित किया गया है।
व्याख्या :
जैसे ही प्रातःकाल हुआ और रात रक्तमय (उषा काल) दिखने लगी अर्थात् धीरे-धीरे रात का समय खत्म होने लगा तो तामसिक वृत्ति वाले योद्धा क्रोध से भर गए। नगाङों के बजने की ध्वनि सुनते ही वीरों में वीर रस का संचार हो गया। पृथ्वी काँपने लगी और करखा (चारणों द्वारा) गाते ही कायरों की दृष्टि भी वीर व रौद्र रस से परिपूर्ण हो गई। हथियों के घण्टे बजने लगे और उनकी जंजीरें खनखनाने लगीं। युद्ध के नगाङे बज उठे जैसे ही कन्ह (पृथ्वीराज के चाचा) धन व हाथियों का दान करने लगे। नगाङों का शोर सुनते ही वीरों ने गरजना और ब्राह्मणों ने मन्त्रोच्चार करना प्रारम्भ कर दिया।
राजा पृथ्वीराज की सेना उस स्थान पर दुर्जनों का नाश करने के लिए अद्भूत रूप से सुसज्जित होने लगी। वीरों के कवच इस तरह चमक रहे थे, जिस प्रकार सूरज के निकलते ही घाट सुशोभित होते हैं। कवि चन्द को ऐसी उपमा सुन्दर लगी। वीरों के शिरस्त्राणांे पर लगे हुए उङतें तुर्रे उनके सिर पर इस प्रकार गिरते थे, मानों सूर्य के हस्त नक्षत्र में स्थित होने से चम्पा व कमल के फूल बिखरे हों।
वीरों की पंक्तियाँ योगियों की पंक्तियों के समान दिखाई पङती थी। कवि को ऐसी उपमा जान पङी कि मानो वे योगी (योद्धा) माया-मोह को त्यागकर तलवार की धार रूपी तीर्थ पर जा रहे हों। संसार की शृंखलाओं में स्वयं को हाथी की तरह जंजीरों से बँधा पाकर अपनी प्रबल तपस्या से मोह रूपी जंजीरों को तोङकर, जिस पर योगी देवतुल्य आनन्द को प्राप्त करता है। उसी तरह सामन्तों का स्वामी अर्थात् वीर राजा वृक्ष के पत्तों के समान पृथ्वी को कुचलकर विजय प्राप्त करता हैं।
विशेष :
⇒ भाषा के लाक्षणिकता है।
⇒ वीर रस का ओजपूर्ण प्रवाह है।
⇒ अतिशयोक्ति, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, उपमा आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
⇒ आधुनिक छन्द ग्रंथों में दण्डमाली छन्द का उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन लक्षणों में यह छन्द हरिगीतिका के समतुल्य है। हरिगीतिका सममात्रिक छन्द होता है। इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ तथा 16वीं व 12वीं मात्रा पर यति होती है। अन्त में लघु गुरु का होना अनिवार्य हैं।
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