सरोज स्मृति – व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | Saroj Smriti

आज की पोस्ट में कवि निराला की चर्चित कविता सरोज स्मृति(Saroj Smriti) को व्याख्या सहित समझाया गया है , साथ में महत्वपूर्ण प्रश्न भी दिए गए है ,जो किसी भी परीक्षा के लिए उपयोगी साबित होंगे

सरोज स्मृति – Saroj Smriti

’सरोज स्मृति’ हिंदी में अपने ढंग का एकमात्र शोक काव्य है। कवि निराला द्वारा अपनी पुत्री की मृत्यु पर लिखी इस कविता में करुणा भाव की प्रधानता है। विराग भाव के बीच नीति, शृंगार और कभी-कभी व्यंग्य और हास्यमूलक प्रसंगों को पिरोना इसकी अनोखी विशिष्टता है। यह अपने ढंग की अकेली कविता है जिसमें निराला का अपना जीवन भी आ गया है।
’सरोज स्मृति’ कवि ने अपनी प्रिय पुत्री सरोज के बाल्यकाल से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं को बङे प्रभावशाली ढंग से अंकित किया है। इसमें कवि ने सरोज की बाल्यावस्था, एवं तरुणाई के बङे ही मार्मिक और पवित्र चित्र अंकित किए हैं। इस कविता में एक भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज से उसके संबंध, पुत्री के प्रति बहुत कुछ न कर पाने का अकर्मण्यता बोध भी प्रकट हुआ है। इस कविता के माध्यम से निराला का जीवन-संघर्ष भी प्रकट हुआ है।

वे कहते हैं –

’दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।’
इन पंक्तियों में कवि की वेदना व जीवन संघर्ष साफ झलकता है।
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पङा कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मंद,
होठों में बिजली फँसी स्पंद
उर में भर झूली छबि सुंदर
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति –

शृंगार, रहा जो निराकार,
रह कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना माही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन,
कोई थे नहीं, न आमंत्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग,
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।

माँ की कुल निराश मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, ’’वह शकुंतला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।’’
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जल्द धरा को ज्यों अपार,
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त,
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूँदे दृग वर महामरण!

मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपाल
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!

भावार्थ: –

कवि ’निराला’ की बेटी का नाम सरोज है जिसकी असामयिक मृत्यु हो गई थी। कवि दुखी होकर उसके विवाह के क्षणों को याद करते हुए कहते हैं कि ’’तेरा विवाह बिल्कुल नए रूप में मैंने देखा था। तुझ पर कलश का शुभ्र जल गिराया जा रहा था, तू उस समय मुझे देखती हुई मंद-मंद हँस रही थी। तेरे होठों पर बिजली जैसा कंपन था। तेरे हृदय में प्रियतम की सुंदर छवि झूल रही थी जिसे अभिव्यक्त करना तेरे लिए संभव नहीं था लेकिन वह तेरे शृंगार के माध्यम से अभिव्यक्त हो रहा था। तेरे झुके हुए नेत्रों से प्रकाश फैल रहा था और तेरे होंठ काँप रहे थे। शायद तू कुछ कहना चाहती थी या माँ का अभाव तुझे दर्द दे रहा होगा। तुझे देखकर मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे जीवन के सुखद क्षणों का प्रथम गीत तो तू ही थी।’’
’निराला’ को पुत्री के विवाह के समय उसका शृंगार उनकी पत्नी के निराकार स्वरूप का स्मरण करा रहा था। पत्नी का वह शृंगार ही कविता में अभिव्यक्त हो रहा है। कविता का यह रस मेरे प्राणों में प्रिया के साथ बिताए गए राग-रंगों को भर रहा है। वह अत्यंत सुन्दर रूप मानों आकाश अर्थात् स्वर्गलोक से उतरकर पुत्री के रूप में पृथ्वी पर उतर आया हो। पुत्री का विवाह सम्पन्न हो गया था। कोई आत्मीयजन भी नहीं था क्योंकि किसी को निमंत्रण ही नहीं दिया गया था।

घर में दिन-रात गाए जाने वाले विवाह के गीत भी नहीं गाए गए थे। पुत्री के विवाह की चहल-पहल में कोई दिन-रात नहीं जागा। अत्यंत साधारण तरीके से उसका विवाह सम्पन्न हो गया। एक प्यारा-सा शांत वातावरण था और इस मौन में ही एक संगीत लहरी थी जो एक नवयुगल के नवजीवन में प्रवेश के लिए आवश्यक थी।
कवि अपनी स्वर्गीय पुत्री सरोज को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि तेरी माँ के अभाव में माता द्वारा दी जाने वाली शिक्षा भी मैंने ही दी थी। विवाहोपरांत तेरी पुष्प शैया भी स्वयं मैंने ही सजाई थी। कवि के मन में ख्याल आया कि जिस प्रकार कण्व ऋषि की पुत्री शंकुतला माँ विहीन थी इसी प्रकार मेरी पुत्री सरोज है।

किन्तु उस घटना और इस घटना की स्थिति में अंतर है। शंकुतला की माता उसे स्वयं छोङकर गई थी किन्तु सरोज की माँ को असमय ही मौत ने अपने आगोश में ले लिया था। विवाह के कुछ दिन बाद ही तू खुशी के साथ नानी की प्रेममयी गोद पाने के लिए ननिहाल चली गई थी। वहाँ पर मामा-मामी ने तुझ पर प्यार रूपी जल की अपार वर्षा की थी। तेरे ननिहाल वाले हमेशा तेरे सुख दुःख में निहित रहे। वे हमेशा तेरे हित साधन में लगे रहे। तू वहीं कली के रूप में खिली, स्नेह से वहाँ पली, वहीं की लता बनी और अंतिम समय में तूने मृत्यु का वरण भी वहीं किया था।

कवि निराला भावुक होकर कहते हैं कि हे पुत्री! तू मेरे जैसे भाग्यहीन पिता का एकमात्र सहारा थी। दुख मेरे जीवन की कथा रही है जिसे मैंने अब तक किसी से नहीं कहा, उसे अब आज क्या कहूँ। मुझ पर कितने ही वज्रपात हो अर्थात् कितनी ही भयानक विपत्तियाँ आए, चाहे मेरे समस्त कर्म उसी प्रकार भ्रष्ट हो जाए जैसे सर्दी की अधिकता के कारण कमल पुष्प नष्ट हो जाते हैं लेकिन यदि धर्म मेरे साथ रहा तो मैं विपदाओं को मस्तकक झुकाकर सहज भाव से स्वीकार कर लूँगा। मैं अपने रास्ते से नहीं हटूँगा। कवि अंत में कहता है कि बेटी मैं अपने बीते हुए समस्त शुभ कर्मों को तूझे अर्पित करते हुए तेरा तर्पण करता हूँ अर्थात् मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे द्वारा किए शुभकर्मों का फल तुझे मिल जाए।

विशेष: –
कविता के माध्यम से निराला का जीवन संघर्ष प्रस्तुत हुआ है।
’’दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।’’
पंक्तियों में कवि की वेदना साफ झलकती है।

’सरोज स्मृति के महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर –

1. ’सरोज-स्मृति’ नामक संस्मरण गीत के रचनाकार है –
(अ) जयशंकर प्रसाद
(ब) सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ Ω
(स) सुमित्रानंदन पंत
(द) रामनरेश त्रिपाठी
2. कवि किसका विवाह देखता है –
(अ) स्वयं का (ब) शंकुतला का
(स) सरोज का Ω (द) पुत्र का
3. कवि के प्रथम बसंत की गीति कौन है –
(अ) सरोज Ω (ब) मनोहरा
(स) स्मृति (द) अतीत गौरव
4. सोचा मन में वह ’शंकुतला’। कवि अपनी बेटी सरोज को शंकुतला नाम ही क्यों देता है, क्योंकि –
(अ) वह अपने मामा के यहाँ पली बढ़ी
(ब) ननिहाल में पोषण हुआ
(स) उसका अंत भी वहीं हुआ
(द) उक्त सभी Ω
5. ’मूँदे दृग वर महामरण’ रेखांकित पद का अर्थ है –
(अ) उत्कृष्ट मौत (ब) निकृष्ट मृत्यु
(स) अन्तिम सत्य Ω (द) जीवन संध्या
6. ’’दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।’’ पंक्तियों में निराला के किस व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं –
(अ) भाग्यहीन (ब) अर्थहीन
(स) जिजीविषा हीन (द) जीवन संघर्ष Ω
7. निराला अपने हाथों से किसका तर्पण करना चाहते हैं –
(अ) अपनी पत्नी का
(ब) अपने माता-पिता का
(स) सरोज का Ω
(द) अपने नाना का
8. ’सरोज स्मृति’ कविता है –
(अ) काव्य गीत (ब) शोक गीत Ω
(स) करुण गीत (द) विरह गीत
9. कवि सरोज की स्मृति को अपने हृदय में किन रूपों में संजोता है –
(अ) उसकी मंद हँसी
(ब) हृदय में झूलती उसकी छवि
(स) एक खुला उच्छ्वास
(द) उक्त सभी Ω
10. ’’देखा मैंने वह मूर्ति-धीति, मेरे वसंत की प्रथम गीति।’’
कवि ने मूर्ति धीति, शब्द किसके लिए प्रयुक्त किया है –
(अ) कवि के जैसी चेहरे वाली के लिए
(ब) प्रतिमूर्ति के लिए
(स) हमारी कल्पना के अनुरूप
(द) सरोज के लिए Ω
11. सरोज का शैशव कहाँ बीता –
(अ) अपने दादा-दादी के पास
(ब) अपने ननिहाल में Ω
(स) अपने पिता के पास
(द) अपनी बुआ के पास
12. कवि निराला स्वयं को भाग्यहीन क्यों कहते हैं –
(अ) अपने पास कुछ नहीं होने से
(ब) सरोज को खो देने से
(स) जिजीविषा के लिए भटकने से
(द) संघर्षमय जीवन होने से Ω
13. ’’वह लता वहाँ की जहाँ कली, तू खिली, स्नेह से हिली पली।’’
कवि ने ऐसा क्यों कहा –
(अ) सरोज के अपने माँ के पास रहने के कारण
(ब) सरोज के अपने ननिहाल में रहने के कारण Ω
(स) सरोज का अपने दादा के पास रहने के कारण
(द) सरोज का अपने गुरु के पास रहने के कारण

निराला जी का जीवन परिचय 

सरोज स्मृति  – सम्पूर्ण कविता

ऊनविंश पर जो प्रथम चरण

तेरा वह जीवन-सिंधु-तरण;

तनय, ली कर दृक्-पात तरुण

जनक से जन्म की विदा अरुण!

गीते मेरी, तज रूप-नाम

वर लिया अमर शाश्वत विराम

पूरे कर शुचितर सपर्याय

जीवन के अष्टादशाध्याय,

चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण

कह—“पितः, पूर्ण आलोक वरण

करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,

‘सरोज’ का ज्योतिःशरण—तरण—

अशब्द अधरों का, सुना, भाष,

मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश

मैंने कुछ अहरह रह निर्भर

ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।

जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर

छोड़कर पिता को पृथ्वी पर

तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार—

“जब पिता करेंगे मार्ग पार

यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,

तारूँगी कर गह दुस्तर तम?”

कहता तेरा प्रयाण सविनय,—

कोई न अन्य था भावोदय।

श्रावण-नभ का स्तब्धांधकार

शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!

धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,

कुछ भी तेरे हित न कर सका।

जाना तो अर्थागमोपाय

पर रहा सदा संकुचित-काय

लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर

हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।

शुचिते, पहनाकर चीनांशुक

रख सका न तुझे अतः दधिमुख।

क्षीण का न छीना कभी अन्न,

मैं लख न सका वे दृग विपन्न;

अपने आँसुओं अतः बिंबित

देखे हैं अपने ही मुख-चित।

सोचा है नत हो बार-बार—

“यह हिंदी का स्नेहोपहार,

यह नहीं हार मेरी, भास्वर

वह रत्नहार—लोकोत्तर वर।

अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध

साहित्य-कला-कौशल-प्रबुद्ध,

हैं दिए हुए मेरे प्रमाण

कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान,—

पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त

गद्य में पद्य में समाभ्यस्त।

देखें वे; हँसते हुए प्रवर

जो रहे देखते सदा समर,

एक साथ जब शत घात घूर्ण

आते थे मुझ पर तुले तूर्ण।

देखता रहा मैं खड़ा अपल

वह शर क्षेप, वह रण-कौशल।

व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल

ऋद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल।

और भी फलित होगी वह छवि,

जागे जीवन जीवन का रवि,

लेकर, कर कल तूलिका कला,

देखो क्या रंग भरती विमला,

वांछित उस किस लांछित छवि पर

फेरती स्नेह की कूची भर।

अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम

कर नहीं सका पोषण उत्तम

कुछ दिन को, जब तू रही साथ,

अपने गौरव से झुका माथ।

पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर,

छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।

आँसुओं सजल दृष्टि की छलक,

पूरी न हुई जो रही कलक

प्राणों की प्राणों में दबकर

कहती लघु-लघु उसाँस में भर;

समझता हुआ मैं रहा देख

हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।

तू सवा साल की जब कोमल;

पहचान रही ज्ञान में चपल,

माँ का मुख, हो चुंबित क्षण-क्षण,

भरती जीवन में नव जीवन,

वह चरित पूर्ण कर गई चली,

तू नानी की गोद जा पली।

सब किए वहीं कौतुक-विनोद

उस घर निशि-वासर भरे मोद;

खाई भाई की मार, विकल

रोई, उत्पल-दल-दृग-छलछल;

चुमकारा सिर उसने निहार,

फिर गंगा-तट-सैकत विहार

करने को लेकर साथ चला,

तू गहकर चली हाथ चपला;

आँसुओं धुला मुख हासोच्छल,

लखती प्रसार वह ऊर्मि-धवल।

तब भी मैं इसी तरह समस्त,

कवि जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त;

लिखता अबाध गति मुक्त छंद,

पर संपादकगण निरानंद

वापस कर देते पढ़ सत्वर

दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर।

लौटी रचना लेकर उदास

ताकता हुआ मैं दिशाकाश

बैठा प्रांतर में दीर्घ प्रहर

व्यतीत करता था गुन-गुन कर

संपादक के गुण; यथाभ्यास

पास की नोचता हुआ घास

अज्ञात फेंकता इधर-उधर

भाव की चढ़ी पूजा उन पर।

याद है दिवस की प्रथम धूप

थी पड़ी हुई तुझ पर सुरूप,

खेलती हुई तू परी चपल,

मैं दूरस्थित प्रवास से चल

दो वर्ष बाद, होकर उत्सुक

देखने के लिए अपने मुख

था गया हुआ, बैठा बाहर

आँगन में फाटक के भीतर

मोढ़े पर, ले कुंडली हाथ

अपने जीवन की दीर्घ गाथ।

पढ़, लिखे हुए शुभ दो विवाह

हँसता था, मन में बढ़ी चाह

खंडित करने को भाग्य-अंक,

देखा भविष्य के प्रति अशंक।

इससे पहले आत्मीय स्वजन

सस्नेह कह चुके थे, जीवन

सुखमय होगा, विवाह कर लो।

जो पढ़ी-लिखी हो—सुंदर हो।

आए ऐसे अनेक परिणय,

पर विदा किया मैंने सविनय

सबको, जो अड़े प्रार्थना भर

नयनों में, पाने को उत्तर

अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर—

“मैं हूँ मंगली”, मुड़े सुनकर।

इस बार एक आया विवाह

जो किसी तरह भी हतोत्साह

होने को न था, पड़ी अड़चन,

आया मन में भर आकर्षण

उन नयनों का; सासु ने कहा—

“वे बड़े भले जन हैं, भय्या,

एन्ट्रेंस पास है लड़की वह,

बोले मुझ से, छब्बिस ही तो

वर की है उम्र, ठीक ही है,

लड़की भी अट्ठारह की है।”

फिर हाथ जोड़ने लगे, कहा—

”वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा!

हैं सुधरे हुए बड़े सज्जन!

अच्छे कवि, अच्छे विद्वज्जन!

हैं बड़े नाम उनके! शिक्षित

लड़की भी रूपवती, समुचित

आपको यही होगा कि कहें

‘हर तरह उन्हें, वर सुखी रहें।’

आएँगे कल।” दृष्टि थी शिथिल,

आई पुतली तू खिल-खिल-खिल

हँसती, मैं हुआ पुनः चेतन,

सोचता हुआ विवाह-बंधन।

कुंडली दिखा बोला—“ए-लो”

आई तू, दिया, कहा “खेलो!”

कर स्नान-शेष, उन्मुक्त-केश

सासुजी रहस्य-स्मित सुवेश

आई करने को बातचीत

जो कल होने वाली, अजीत;

संकेत किया मैंने अखिन्न

जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न,

देखने लगीं वे विस्मय भर

तू बैठी संचित टुकड़ों पर!

धीरे-धीरे फिर बढ़ा चरण,

बाल्य की केलियों का प्रांगण

कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर

आई, लावण्य-भार थर-थर

काँपा कोमलता पर सस्वर

ज्यों मालकौश नव वीणा पर;

नैश स्वप्न ज्यों तू मंद-मंद

फूटी ऊषा—जागरण-छंद;

काँपी भर निज आलोक-भार,

काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार।

परिचय-परिचय पर खिला सकल—

नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय-दल।

क्या दृष्टि! अतल की सिक्त-धार

ज्यों भोगावती उठी अपार,

उमड़ता ऊर्ध्व को कल सलील

जल टलमल करता नील-नील,

पर बँधा देह के दिव्य बाँध,

छलकता दृगों से साध-साध।

फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर

माँ की मधुरिमा व्यंजना भर।

हर पिता-कंठ की दृप्त-धार

उत्कलित रागिनी की बहार!

बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,

मेरे स्वर की रागिनी वह्लि

साकार हुई दृष्टि में सुघर,

समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।

शिक्षा के बिना बना वह स्वर

है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!

जाना बस, पिक-बालिका प्रथम

पल अन्य नीड़ में जब सक्षम

होती उड़ने को, अपना स्वर

भर करती ध्वनित मौन प्रांतर।

तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,

जागा उर में तेरा प्रिय कवि,

उन्मनन-गुंज सज हिला कुंज

तरु-पल्लव कलि-दल पुंज-पुंज,

बह चली एक अज्ञात बात

चूमती केश—मृदु नवल गात,

देखती सकल निष्पलक-नयन

तू, समझा मैं तेरा जीवन।

सासु ने कहा लख एक दिवस—

“भैया अब नहीं हमारा बस,

पालना-पोसना रहा काम,

देना ‘सरोज’ को धन्य-धाम,

शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,

है काम तुम्हारा धर्मोत्तर;

अब कुछ दिन इसे साथ लेकर

अपने घर रहो, ढूँढ़कर वर

जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह

होंगे सहाय हम सहोत्साह।”

सुनकर, गुनकर चुपचाप रहा,

कुछ भी न कहा, न अहो, न अहा,—

ले चला साथ मैं तुझे, कनक

ज्यों भिक्षुक लेकर; स्वर्ण-झनक

अपने जीवन की, प्रभा विमल

ले आया निज गृह-छाया-तल।

सोचा मन में हत बार-बार—

‘ये कान्यकुब्ज-कुल-कुलांगार

खाकर पत्तल में करें छेद,

इनके कर कन्या, अर्थ खेद;

इस विषय-बेलि में विष ही फल,

यह दग्ध मरुस्थल,—नहीं सुजल।’

फिर सोचा—‘मेरे पूर्वजगण

गुजरे जिस राह, वही शोभन

होगा मुझको, यह लोक-रीति

कर दें पूरी, गो नहीं भीति

कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;

पर पूर्ण रूप प्राचीन भार

ढोने में हूँ अक्षम; निश्चय

आएगी मुझमें नहीं विनय

उतनी जो रेखा करे पार

सौहार्द-बंध की, निराधार।

वे जो जमुना के-से कछार

पद, फटे बिवाई के, उधार

खाए के मुख ज्यों, पिए तेल

चमरौधे जूते से सकेल

निकले, जी लेते, घोर-गंध,

उन चरणों को मैं यथा अंध,

कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति

हो पूजूँ, ऐसी नहीं शक्ति।

ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह

करने की मुझको नहीं चाह।’

फिर आई याद—मुझे सज्जन

है मिला प्रथम ही विद्वज्जन

नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,

कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक

होगा कोई इंगित अदृश्य,

मेरे हित है हित यही स्पृश्य

अभिनंदनीय। बंध गया भाव,

खुल गया हृदय का स्नेह-स्राव;

खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,

युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन।

बोला मैं—“मैं हूँ रिक्त हस्त

इस समय, विवेचन में समस्त—

जो कुछ है मेरा अपना धन

पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण

यदि महाजनों को, तो विवाह

कर सकता हूँ; पर नहीं चाह

मेरी ऐसी, दहेज देकर

मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर,

बारात बुलाकर मिथ्या व्यय

मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम

मैं सामाजिक योग के प्रथम,

लग्न के, पढूँगा स्वयं मंत्र

यदि पंडितजी होंगे स्वतंत्र।

जो कुछ मेरा, वह कन्या का,

निश्चय समझो, कुल धन्या का।”

आए पंडितजी, प्रजावर्ग

आमंत्रित साहित्यिक, ससर्ग

देखा विवाह आमूल नवल;

तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।

देखती मुझे तू, हँसी मंद,

होठों में बिजली फँसी, स्पंद

उर में भर झूली छबि सुंदर,

प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर

तू खुली एक उच्छ्वास-संग,

विश्वास-स्तब्ध बंध अंग-अंग,

नत नयनों से आलोक उतर

काँपा अधरों पर थर-थर-थर।

देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति

मेरे वसंत की प्रथम गीति—

शृंगार, रहा जो निराकार

रस कविता में उच्छ्वसित-धार

गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग

भरता प्राणों में राग-रंग

रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,

आकाश बदलकर बना मही।

हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन

कोई थे नहीं, न आमंत्रण

था भेजा गया, विवाह-राग

भर रहा न घर निशि-दिवस-जाग;

प्रिय मौन एक संगीत भरा

नव जीवन के स्वर पर उतरा।

माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,

पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,

सोचा मन में—’वह शकुंतला,

पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।’

कुछ दिन रह गृह, तू फिर समोद,

बैठी नानी की स्नेह-गोद।

मामा-मामी का रहा प्यार,

भर जलद धरा को ज्यों अपार;

वे ही सुख-दु:ख में रहे न्यस्त,

तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;

वह लता वहीं की, जहाँ कली

तू खिली, स्नेह से हिली, पली;

अंत भी उसी गोद में शरण

ली, मूँदे दृग वर महामरण!

मुझ भाग्यहीन की तू संबल

युग वर्ष बाद जब हुई विकल,

दु:ख ही जीवन की कथा रही,

क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!

हो इसी कर्म पर वज्रपात

यदि धर्म, रहे नत सदा माथ

इस पथ पर, मेरे कार्य सकल

हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!

कन्ये, गत कर्मों का अर्पण

कर, करता मैं तेरा तर्पण!

 

3 thoughts on “सरोज स्मृति – व्याख्या | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | Saroj Smriti”

  1. Shalu tripathi

    Such a emotional and meaningful poem proud to nirala ji… Ur so inspiring for the Indians..!

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