आज की पोस्ट में हम बालमुकुन्द गुप्त द्वारा लिखित शिवशम्भु के चिट्ठे निबंध की चर्चा करेंगें और महत्त्वपूर्ण तथ्य को जानेंगे |
बालमुकुन्द गुप्त (1865 – 1907 ई.) हिन्दी के निबन्धकार पत्रकार के रूप में माने जाते है। उनकी प्रसिद्ध एवं चर्चित रचनाएँ ’भारत मित्र’ का सम्पादन करते हुए सामने आई। वे अनन्य राष्ट्रभक्त पत्रकार थे। वे भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक थे तथा विदेशी सरकार पर तीखे व्यंग्य करने वाले लेखक के रूप में प्रसिद्ध थे।
हिन्दी पत्रकारिता के उन्नयन में गुप्तजी ने ’भारत मित्र’ के माध्यम से अनूठी प्रतिभा, तीक्ष्ण दृष्टि का परिचय दिया। ’शिवशम्भु के चिट्ठे और खत’ शीर्षक काॅलम में लिखी उनकी रचनाएं अत्यन्त लोकप्रिय हुई।
’शिवशम्भु के चिट्ठे’ शीर्षक रचना व्यंग्य प्रधान निबन्ध है जिससे अग्रेजी शासन की निरंकुशता और भारतीयों पर किये गये अत्याचार, अंग्रेजों की शोषण नीति पर तीखे प्रहार किये गये है। अंग्रेज वायसराय लाॅर्ड कर्जन पर करारे व्यंग्य लेखक ने यहां किये है। लेखक ने गूंगी जनता का मुखर वकील बनकर उन कठिनाईयों का वर्णन इस रचना में किया है जो अंग्रेजी शासन के दौरान उसे झेलनी पङ रही थी
इस रचना में गुप्तजी की ओजस्विता, निर्भीकता, दृढता तथा विनोदप्रियता देखते ही बनती है। इस निबन्ध में अंग्रेज गवर्नर लाॅर्ड कर्जन को व्यंग्य का निशाना बनाया गया है।
इस निबन्ध का सार निम्न शीर्षकों में प्रस्तुत किया जा सकता है-
(1) बुलबुल का शौक –
Table of Contents
अंग्रेज वायसराय लाॅर्ड कर्जन को सम्बोधित करते हुए लेखक लिखता है कि माई लाॅर्ड बचपन में मुझ भंगङी (भाग का सेवन करने वाला, व्यक्ति को बुलबुल का बङा शौक था। मेरे गाँव के तमाम लोग बुलबुलबाज थे वे बुलबुले पकङते, पालते और लङाते थे पर मैं (शिवशम्भु शर्मा) इससे वंचित था।
मैं तो केवल एक बुलबुल को हाथ पर बिठाकर ही प्रसन्न होना चाहता था पर मैं बाह्मण कुमार था, मुझे बुलबुल कैसे मिलती? पिताजी को यह डर था कि यदि इस बालक को बुलबुल दी तो यह मार देगा और हत्या होगी, या बिल्ली ही झपट्टा मारकर उसके हाथ से बुलबुल छीन ले जायेगी और खा लेगी, तो भी पाप लगेगा।
बहुत अनुरोध के बाद पिताजी ने किसी मित्र की बुलबुल किसी दिन ला दी, तो वह एक घंटे से अधिक मेरे पास नहीं रहने दी गई और वह भी पिता की निगरानी में ही रह सकी।
सराय के भटियारे बुलबुल पकङा करते थे और गाँव के लङके उनसे दो-दो तीन-तीन पैसे में खरीद लेते थे पर बालक शिवशम्भु ऐसा नहीं कर सकता था। मन में अपार इच्छा होते हुए भी पिताजी की आज्ञा के बिना भला वह बुलबुल कैसे लाता और कहाँ रखता ? इसी कारण मन में उधेङबुन चलती। जंगल में उङती बुलबुल को देखकर वह फङक उठता और बोली को सुनकर हृदय नाचने लगता।
मन में अनेक तरह की कल्पनाएं उठती। उन सब बातों से अनुभव भला दूसरों को क्या होगा ? सच तो यह है कि वह अनुभव दूसरों को हो ही नहीं सकता। आज वृद्धावस्था में स्वयं शिवशंभु को बाल्यकाल से उस निर्वचनीय आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता ?
(2) बुलबुल का सपना-
बुलबुल पकङने की नाना प्रकार की कल्पनाएं मन ही मन करता हुआ बालक शिवशम्भू सो गया। सपने में देखा कि सारा संसार बुलबुलमय है तो गांव में बुलबुले उङ रही है। घर के सामने जो खेल का मैदान है, उसमें सैकङों बुलबुलें उङ रही है।
वे सब बहुत ही नीचे उङ रही थी, कभी-कभी उङकर उस बालक के हाथ पर भी आ बैठती थीं, शिवशम्भू आनन्दमग्न होकर इधर-उधर दौङ रहा है। उसके कुछ साथी भी बुलबुलों को हाथ पर बिठाये इधर-उधर दौङते फिर रहे हैं।
आज उसकी मनोकामना पूरी हुई। बुलबुलों की कोई कमी उसे नहीं है। आनन्द का सिलसिला वहीं नहीं थमा अपितु उसने देखा सामने एक सुन्दर बाग है। वहीं से बुलबुलें उङकर आती है। वह दौङकर वहाँ पहुँचा, देखा वहां सोने के पेङ थे और उनके पत्ते और फूल भी सोने के थे।
उन पर सोने की बुलबुलें बैठकर गाती है और उङती-फिरती हैं वही सुनहरे कलशों वाला सोने का एक महल भी है, जिस पर बुलबुलें बैठी है।
बालक दो-तीन साथियों सहित महल पर चढ़ गया और अचानक वह महल, बगीचा बालकों सहित उङ गया। अब बुलबुलें उस बालक के दिमाग से निकल गयीं।
मैं कहाँ उङ रहा हूँ माता-पिता से दूर-इस विचार के आते ही सुख स्वप्न भंग हुआ और वह कुनमुनाकर उठ बैठा। सपना टूटते ही देखा कि वह अपने घर में है, कल्पना की उङान समाप्त हो गयी थी।
(3) लाॅर्ड कर्जन पर व्यंग्य-
माई लाॅर्ड जब से आप वायसराय बनकर भारत में पधारे तब से आपने बस बुलबुलों का सपना ही देखा है, कोई करणीय कर्म नहीं किया ? भारत की जनता (जो आपकी प्रजा है) के लिए आपने किसी कर्त्तव्य का पालन किया ? एक बार धैर्यपूर्वक इस बात पर विचार कीजिए।
आपने पिछले पाँच वर्ष के कार्यकाल में अपने नुमाशयी कामों (दिखावे का काम) के अलावा और कोई प्रजाहित का काम किया ?
आपने अपने कर्त्तव्य का ठीक ढंग से पालन नहीं किया। इस बार आपने जो बजट भाषण दिया वह आपके कार्यकाल का अन्तिम बजट भाषण था, जिसमें अपने क्वीन विक्टोरिया मेमोरियल हाॅल और ’दूसरा दिल्ली दरबार’ का जिक्र करते हुए केवल प्रदर्शन-प्रियता का परिचय दिया।
अपने कर्त्तव्य का सही ढंग से पालन नहीं किया। भारत की दरिद्र प्रजा का हित करने वाला कोई काम आपने नहीं किया। उक्त दोनों कार्यों में भारत की गरीब प्रजा का भला कौन-सा हित होगा ?
(4) दिल्ली दरबार का उल्लेख-
आपनेे जिस दिल्ली दरबार को अपनी उपलब्धि बताया, भारतवासियों की दृष्टि में वह बुलबुलों के स्वप्न से अधिक न था। जिस हाथी पर आप सोने की झूल और सोने का हौदा लगवाकर सवार हुए, वह अपने कीमती सामान सहित, जिसका था उसके पास वापस चला गया। आप भी जानते थे कि वह आपका नहीं और दर्शक भी जानते थे कि वह आपका नहीं।
दरबार में जिस सुनहरे सिंहासन पर बैठकर आपने भारत के सब राजा महाराजाओं से सलामी ली, वह सिंहासन भी आपका न था। वह भी जहाँ से आया था, वहीं चला गया। ये सब चीजें नुमायशी थीं। इन सबसे आपको क्या हासिल हुआ ? अकबर की इज्जत उनके गुणों से थी न कि उनके तख्त से। आपको भी यह बात सोचनी चाहिए।
दरबार समाप्त होते ही पण्डाल तोङ दिया गया। नुमाशयी चीजों का यही हश्र होता है। आपने स्वयं कहा था कि भारत के लोग यहाँ सदा रहेंगे जबकि हम विदेशी कुछ दिनों के लिए है। आपके वे ’कुछ दिन’ बीत गये, अब तो आप ’कृपा’ से मिले दिनों तक ही यहाँ है। यह चिट्ठा आपके पास शिवशम्भू इस आशा में भेज रहा है कि इन कुछ दिनों में ही आपको अपने कर्त्तव्य का ख्याल हो जाये।
(5) लाॅर्ड कर्जन को कर्त्तव्य की सीख-
माई लाॅर्ड यहाँ से विदा लेने से पहले भारत की प्रजा के लिए कुछ ऐसा कर जाइए जिससे इस देश की प्रजा के हृदय-मन्दिर में आपकी स्मृति बनी रहे। पर यह तभी हो सकता है जब वैसी स्मृति के लिए आपके हृदय में स्थान हो। जिस देश में लाॅर्ड लैसडोन की मूर्ति बन सकती हैै, उसमें और किसकी मूर्ति नहीं बन सकती।
क्या आप चाहते हैं कि उसके पास एक वैसी ही मूर्ति खङी की जाये। इस दरिद्र देश में ये मूर्तियां किस काम की ? केवल कुछ पक्षी ही उस पर रैन बेसरा लेते हैं।
भारतवासी इन पत्थर की मूर्तियों को नहीं अपितु उन मूर्तियों को आदर देते हैं जो उनके हृदय में बसी हुई हैं। लाॅर्ड रिपन (एक अंग्रेज वायसराय) की मूर्ति भारतवासियों के हृदय में है क्योंकि उन्होंने प्रजा हित के काम किये।
आपकी यादगार भी बन सकती है जनता के हृदय में, यदि आप अपने कर्त्तव्य का ठीक ढंग से पालन करें। आप ’शो’ और ’ड्यूटी’ का फर्क समझिए। आपके दिल्ली दरबार के ’शो’ की याद कुछ दिन बाद फीकी पङ जायेगी, उसी तरह जैसे शिवशम्भू शर्मा के बालपन का बुलबुल का सुख स्वप्न अब फीका पङ चुका है।
(6) प्रतीकात्मकता-
लेखक ने प्रतीकात्मक शैली में अपनी बात कही है। शिवशम्भू बुलबुल का चाव रखता था, इसका वास्तविक अर्थ है कि भारतीय जनता स्वन्तत्रता पाने की इच्छुक थी, लेकिन अंग्रेज शासक यह कहकर उनकी स्वतंत्रता पाने की इच्छा को ठुकरा देते थे कि तुम लोग स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर पाओगे।
पता नहीं कब कहाँ से आकर कोई बिल्ली (चालाक एवं शक्तिशाली देश) उस बुलबुल (स्वतन्त्रता) को अपना निवाला बना ले। अन्तत भारतीयों का यह सपना फीका पङ गया।
लाॅर्ड कर्जन को सम्बोधित इन चिट्ठों में लेखक ने अंग्रेज सरकार की अनीति का खुलकर पर्दाफाश किया है। लेखक का मत है कि लाॅर्ड कर्जन ने प्रजा हित का कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिसकी सुखद स्मृति भारत की जनता के हृदय में चिरकाल तक संचित रहे। लेखक ने व्यंग्यात्मक लहजे में अपनी बात कही है तथा उसके वक्तव्य में निर्भीकता, देशभक्ति एवं विनोद वृत्ति साफ झलकती है।
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