सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय – Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay

आज की पोस्ट में हम हिंदी साहित्य के छायावाद युग के चर्चित कवि सुमित्रानंदन पन्त(Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay) के जीवन परिचय के बारे में विस्तार से जानेंगे |

सुमित्रानंदन पंत – Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay

Table of Contents

Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay

 सुमित्रानंदन पन्त (Sumitranandan Pant)

नामसुमित्रानंदन पंत
दूसरा नामगुसाईं दत्त
जन्म20 मई 1900
जन्म भूमिकौसानी, उत्तराखण्ड, भारत
मृत्यु28 दिसंबर, 1977
मृत्यु स्थानइलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
पिता का नामपंडित गंगादत्त
माता का नामसरस्वती देवी
कर्म भूमिइलाहाबाद
व्यवसायअध्यापक, लेखक, कवि
भाषा ज्ञानसंस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदी
विद्यालय शिक्षाजयनारायण हाईस्कूल, म्योर सेंट्रल कॉलेज
समय कालआधनिक काल (छायवादी युग)
आंदोलनरहस्यवाद व प्रगतिवाद
पुरस्कारपद्म भूषण (1961), साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ (1968)
शैलीगीतात्मक
कविता संग्रह / खंडकाव्य: पन्त जी द्वारा रचित काव्य को मुख्यतः निम्न चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है
1. छायावादी रचनाएं
2. प्रगतिवादी रचनाएं
3. अरविंद दर्शन से प्रभावित रचनाएं
4.मानवतावादी (आध्यात्मिक) रचनाएं
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1. छायावादी रचनाएं(1918-1943)

 

रचनावर्ष 
उच्छ्वास1920 ई.
ग्रन्थि1920 ई.
पल्लव1928 ई.
वीणा1927 ई. , 1918-1919 की कविताएँ संकलित
गुंजन1932 ई.

2. प्रगतिवादी रचनाएं(1935-1945)

रचनावर्ष
युगांत1936 ई.
युगवाणी1938 ई.
ग्राम्‍या
1940 ई.

3. अरविंद दर्शन से प्रभावित रचनाएं (1946-1948)[ अंतश्चेतनावादी युग]

रचनावर्ष
स्वर्णकिरण1947 ई.
स्वर्णधूलि1947 ई.
उत्तरा1949 ई.
युगपथ1949 ई.

4.मानवतावादी (आध्यात्मिक) रचनाएं (1949 ई. के बाद)[नव मानवता वादी युग]

रचनावर्ष
अतिमा1955 ई.
वाणी1957 ई.
चिदंबरा1958 ई.
पतझड़1959 ई.
कला और बूढ़ा चाँद1959 ई.
लोकायतन1964 ई., महाकाव्य)(दो खंड एवं सात अध्यायों मे विभक्त)
गीतहंस1969 ई.
सत्यकाम1975 ई., महाकाव्य
पल्लविनी 
स्वच्छंद2000 ई.
मुक्ति यज्ञ 
युगांतर 
तारापथ 
मानसी 
सौवर्ण 
अवगुंठित 
मेघनाद वध 

चुनी हुई रचनाओं के संग्रह

रचनावर्ष
युगपथ1949 ई.
चिदंबरा1958 ई.
पल्लविनी
स्वच्छंद2000 ई.

काव्य नाटक/काव्य रूपक

रचनावर्ष
ज्योत्स्ना1934 ई.
रजत⇒शिखर1951 ई.
शिल्पी1952 ई.

आत्मकथात्मक संस्मरण

  • साठ वर्ष : एक रेखांकन (1963) ई.

आलोचना

  • गद्यपथ (1953) ई.
  • शिल्प और दर्शन (1961) ई.
  • छायावाद : एक पुनर्मूल्यांकन (1965) ई.

कहानियाँ

  • पाँच कहानिय़ाँ (1938)ई.

उपन्यास

  • हार (1960) ई.

अनूदित रचनाओं के संग्रह

  • मधुज्वाल (उमर ख़ैयाम की रुबाइयों का फारसी से हिन्दी में अनुवाद)

संयुक्त संग्रह

  • खादी के फूल / सुमित्रानंदन पन्त और बच्चन का संयुक्त काव्य⇒संग्रह

पत्र-संग्रह

  • पन्त के सौ पत्र (1970 ई., सं. बच्चन)

पत्रकारिता

  • 1938 में उन्होंने ‘रूपाभ’ नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला।

 

पुरस्कार व सम्मान(sumitranandan pant)
  • 1960 ‘कला और बूढ़ा चांद’ पर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’
  • 1961 ‘पद्मभूषण’ हिंदी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिए
  • 1968 ‘चिदम्बरा’ नामक रचना पर ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’
  • ‘लोकायतन’ पर ‘सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार’
विशेष तथ्य(Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay)
⇒ पन्त जी की सर्वप्रथम कविता⇒ गिरजे का घंटा 1916 ई.
छायावाद का ‘घोषणा पत्र ‘(मेनिफेस्टो) पन्त द्वारा रचित ‘पल्लव’ रचना की भूमिका को कहा जाता है|
⇒ पन्त की सर्वप्रथम छायावादी रचना ⇒उच्छ्वास 1920 ई.
⇔ युगांत रचना पन्त जी के छायावादी दृष्टिकोण की अंतिम रचना मानी जाती है|
⇒ युगवाणी रचना में पन्त जी ने प्रगतिवाद को ‘युग की वीणा’ बतलाया है|
⇔ पन्त को छायावाद का विष्णु कहा जाता है|
⇒ आचार्य नंददुलारे वाजपेयी इनको छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं|
⇔ रामचंद्र शुक्ल इनको छायावाद का प्रतिनिधि कवि मानते हैं|
⇒ रोला इनका सर्वप्रिय प्रिय छंद माना जाता है|
⇔ प्रकृति के कोमल पक्ष अत्यधिक वर्णन करने के कारण इनको प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है|
⇒महर्षि अरविंद दवारा रचित ‘भागवत जीवन’ से यह इतने प्रभावित हुए थे कि उनकी जीवन दशा ही बदल गई|
⇔इन्हे ‘रावणार्यनुज’ भी कहा जाता है|
⇒ यह अपनी सूक्ष्म कोमल कल्पना के लिए अधिक प्रसिद्ध है मूर्त पदार्थों के लिए अमूर्त उपमान देने की परंपरा पन्त जी के द्वारा ही प्रारंभ की हुई मानी जाती है|
⇒ पन्तजी भाषा के प्रति बहुत सचेत थे उनकी रचनाओं में प्रकृति की जादूगरी जिस भाषा में अभिव्यक्त हुई है उसे समय पन्त ‘चित्र भाषा(बिबात्मक भाषा)’ की संज्ञा देते हैं|
⇒प्रसिद्ध पंक्तियां:
” मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,
भाव देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !
वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा हंस पर,
साध चेतना तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर
खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !”
” सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
वह चाहते हैं कि देश, जाति और वर्गों में विभाजित मनुष्य की केवल एक ही पहचान हो  मानव।”
छोडो़ द्रुमों की मृदु छाया, तोडो प्रकृति की भी माया|
बाले तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन||”
अब हम विस्तार से पढेंगे ⇓⇓

पन्त का प्रकृति चित्रण

पन्त जी प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाते है। प्रकृति का वर्णन उनके काव्य की प्रमुख विशेषता है। प्रकृति की गोद में पैदा हुए पन्त जी का प्रकृति से जन्म से ही नाता रहा है। पन्त जी ने प्रकृति के दोनों रूपों-कोमल व कठोर पर काव्य रचा है तथापि इन्होंने प्रकृति के कोमल रूप पर अधिक लिखा है।
प्रकृति को अपनी प्रेरक शक्ति को स्वीकार करते हुए कवि पन्त ने लिखा है कि ’’कविता करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति-निरीक्षण से मिली है जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कूर्मांचल प्रदेश को है’’ प्रकृति पन्त के काव्य का क्षणिक तत्व नहीं है, बल्कि एक स्थायी अंग है।
प्रकृति वस्तुतः पन्त के लिए एक कोमल कल्पना है।

सुमित्रानंदन पन्त (sumitranandan pant in hindi)

उनके द्वारा किया गया प्रकृति का मानवीकरण वस्तुतः अप्रतिम है। प्रकृति पन्त की सहचरी है। रुग्णा जीवन बाला के रूप में प्रकृति का यह अध्ययन दृष्टव्य है

जग के दुख दैन्य शयन पर, वह रुग्णा जीवन बाला।
रे कब से जाग रही वह आँसू, नीरव की माला।।

आधुनिक काव्य की भूमिका में पन्त जी लिखते हैं कि ’’कविता करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि प्रदेश को है। मैं घण्टों एकान्त में बैठा प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था और कोई अज्ञात आकर्षक मेरे भीतर एक अव्यक्त सौन्दर्य का जाल बुनकर मेरी चेतना को तन्मय कर देता था।’’

पन्त जी को प्रकृति चित्रण की एक विशेषता यह भी है कि उन्हें प्रकृति के कोमल एवं सुकुमार रूप ने ही अधिक मोहित किया है। प्रकृति के सुन्दर रूप ने पन्त जी को अधिक लुभाया है। पन्त जी के काव्य में प्रकृति के सभी रूप उपलब्ध होते हैं।

पन्त बादलों को वर्णमय नेत्रों से देखते है और मुग्ध होकर अपनी अनुभूति प्रकट करते हुए कहते हैं
गहरे धुँधले धुले साँवले।
मेघों से भरे मेरे नयन।।
’मानव’ नामक कविता में जीवन सौन्दर्य की नूतन भावना का उदय कवि अपने मन में इस प्रकार चाहता है

मेरे मन के मधुवन में सुषमा के शिशु! मुस्काओ।
नव-नव साँसों का सौरभ नव मुख का सुख बर जाओ।।

पन्त ’गुंजन’ तक जो जगत और प्रकृति से अपने सौन्दर्य और आनन्द का चुनाव करते हैं, युगान्त में आकर वे सौन्दर्य और आनन्द जगत में पूर्ण प्रसार देखना चाहते हैं। कवि की सौन्दर्य भावना अब व्यापक होकर मंगलभावन के रूप में परिणत हो जाती है। अब वह जगत और जीवन में कुछ सौन्दर्य माधुर्य प्राप्त है। पुराने जीर्ण-शीर्ण को हटाने की आकांक्षा के साथ नवजीवन के सौन्दर्य की भी आकांक्षा है

द्रुत झरो जगत कि जीर्ण पत्र हे त्रस्त ध्वस्त हे शुष्कशीर्ण।
हित ताप जल, मधुवत भीत, तुम पीतराग, पङ पुराचीन।
झरे जाति- कुलवर्ण, पर्णधन अन्ध नीङ से रूढ़ रीतिछन।

युगवाणी में पन्त जी ने जीवन पथ के चारों ओर पङने वाली प्रकृति की साधारण छोटी-से-छोटी वस्तुओं को भी कवि ने कुछ अपनेपन के साथ देखा है। समस्त पृथ्वी पर निर्भय विचरण करती जीवन की ’अक्षयचिंनगी’ चींटी का कल्पनापूर्ण वर्णन पन्त जी करते हैं। पन्त जी के हृदय प्रसार का सुन्दर चित्र ’दो मित्र’ से मिलता है जहाँ उसने एक टीले के पास खङे दो पादप मित्रों को बङी मार्मिकता के साथ देखा है।

उस निर्जन टीले पर दोनों चिलबिल, एक-दूसरे मिल मित्रों से है खङे, मौन से
मनोंहर दोनों पादप सहवर्षातप, हुए साथ दो बङे दीर्घ सुदृढ़त्तर।

पन्त जी की काव्य यात्रा

पन्त जी प्रकृति चित्रण में प्रसिद्ध रहे हैं। उनकी कविता का स्वरूप एवं स्वर समय के साथ बदलता रहा है। उनके काव्य को आलोचकों ने निम्नलिखित चरणों में बाँटा है

  • छायावादी काव्य
  • प्रगतिवादी काव्य
  • अरविन्द दर्शन का प्रभाव

पन्त जी की प्रथम रचना ’गिरजे का घण्टा’ 1916 ई. की रचना है। उनकी काव्य यात्रा की शुरूआत इसी रचना से ही हुई।
इनके काव्य का प्रथम चरण छायावादी रचनाओं का है। इस युग की रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

1. उच्छावास 1920 ई. 2. ग्रन्थि 1920 ई. 3. वीणा 1927 ई. 4. पल्लव 1928 ई.
5. गुंजन 1932 ई. 6. युगान्त 1935 ई. 7. युगवाणी 1936-39   8. ग्राम्या 1940 ई.
9. युगपथ 1948 ई. 10. उत्तरा 1949 ई.

’ज्योत्सना’ नामक नीति नाट्य की रचना भी छायावादी युग में हुई। प्रकृति चित्रण से युक्त इन कविताओं की विषय-वस्तु छायावादी है।
पन्त जी के आरम्भिक ग्रन्थ निम्नलिखित है-

1. उच्छवास 1920 ई. 2. ग्रन्थि 1920 ई. 3. वीणा 1927 ई. 4. पल्लव 1928 ई.
5. गुंजन 1932 ई.

काव्य पल्लवन का प्रथम चरण पन्त जी के लिए सर्वोतम काल था। इस काल की रचनाओं में प्रकृति एवं प्रेम को नए अन्दाज में देखा गया। खङी बोली हिन्दी को भी स्थापित करने की भूमिका का निर्वाह भी इसी काल में हुआ।

कवि के प्रेम का स्वरूप अल्हङ एवं किशोर का है जो विकास काल के साथ प्रौढ़ता को प्राप्त होता है। ’उच्छवास’ की बालिका, ’ग्रन्थि’ की प्रेयमी, ’गुंजन’ की भावी पत्नी अप्सरा, रूपतारा की सहचरी में तब्दील हो जाती है।

पन्त जी ने पल्लव को छायावाद का मेनीफेस्टो माना है, क्योंकि इस काव्य संकलन में लगभग 40 पृष्ठों की भूमिका है। पन्त जी शिल्पी हैं। वे नाद सौन्दर्य और काव्य रमणीयता में कुशल हैं। उनके काव्य में लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता जैसे गुण परिलक्षित होते है।

’पल्लव’ में कवि प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करता है और अध्यात्म की ओर आकृष्ट होता है। ’पल्लव’ इनकी छायावादी प्रतिनिधि रचना कही जा सकती है।

सुमित्रानंदन पन्त

’गुंजन’ में कवि जग-जीवन के विस्तृत क्षेत्र में पदार्पण करता है यानि कवि पन्त कल्पना-लोक को छोङकर यथार्थ की भूमि पर आ जाते हैं और यहीं से उनके काव्य में प्रगतिवाद के आगमन की सूचना मिलती है। ’ज्योत्सना’ नाट्य शैली में लिखित काव्य रचना है। यह वस्तुतः उनके जीवन-सम्बन्धी विचारों की कुंजी है।

’युगान्त’ में धरती के गीत है। ’युगवाणी’ में कवि का प्रगतिवादी स्वर मुखर है वह मानव-जीवन को सुन्दर बनाने का प्रयास करने लगते हैं। ’ग्राम्या’ में कवि भारत की आत्मा गाँवों को सजीव चित्र उपस्थित करता है। ’स्वर्ण किरण’ और ’स्वर्णधूलि’ में कवि चिन्तनशील हो जाता है।
पल्लव की भूमिका में पन्त जी ने भाषा, अलंकार, छन्द, शब्द और भाव के सामरस्य पर विचार व्यक्त किए है।

पन्त जी भाषा के प्रयोग के स्तर पर अत्यधिक जागरूक है। बादल एवं छाया जैसी कविताओं में केवल एक अद्भूत कल्पना के ही दर्शन होते है। ’परिवर्तन’ कविता में कवि की दार्शनिक चेतना उद्दीप्त दिखाई देती है जो एक तारा जैसी कविताओं में अधिक संयम एवं निखार के साथ व्यक्त हुई है। पन्त जी की भाषा में सुकुमारता, कोमलता, नाद सौन्दर्य एवं माधुर्य विद्यमान हैं।

पन्त जी की काव्य यात्रा का अगला चरण प्रगतिवादी युग है। इस युग में 1935 ई. से 1945 ई. तक की कविताएँ प्रगतिवादी विचारधारा से अनुप्रमाणित हैं। इस काल की रचनाएँ कल्पना प्रधान न होकर यथार्थवादी है। इस काल की तीन रचनाएँ हैं ’युगान्त (1935 ई.)’, ’युगवाणी (1936 ई.)’, ’ग्राम्या (1939)’।

युगान्त से लेकर ग्राम्या तक की कविताओं में कवि कल्पना से यथार्थ की ओर आता दिखाई देता है। युगान्त कवि के काव्य जीवन के प्रथम युग की समाप्ति का सूचक है। पन्त जी अब तक तो कल्पना लोक में रचनाएँ करते थे परन्तु अब मानों वे शिवम की चिन्ता में जनसाधारण के आस-पास घूमते है। वे अनुभव करते हैं कि
सुन्दर है विहग, सुमग सुन्दर, मानव! तुम सबसे सुन्दरतम्।

इस युग में कवि की दृष्टि अत्यधिक मानवतावादी होती दिखाई देती है। पन्त जी मार्क्सवाद, गाँधीवाद, अरविन्द दर्शन इन सबको एक-एक करके परखते हैं। युगवाणी में कवि का स्व्र अत्यन्त तीव्र है। वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर शोषण के खिलाफ आवाज उठाते हैं

साक्षी है इतिहाज आज होने को पुनः युगान्तर,
श्रमिकों का शासन होगा अब उत्पादक यन्त्रों पर।

धन्य माक्र्स! चिर तमच्छन्न पृथ्वी के उदय शिखर पर,
तुम त्रिनेत्र के ज्ञानचक्षु से प्रकट हुए प्रलयंकार!

नव संस्कृति के इत! देवताओं का करने कार्य!
आत्मा के उद्धार के लिए आए तुम अनिवार्य!

पन्त जी एक ऐसे युग का निर्माण चाहते थे जिसमें वर्गभेद न हो समानता हो, जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ सभी के लिए सुलभ हों। पन्त जी ने भले ही मार्क्सवाद का समर्थन किया परन्तु वे गाँधी जी से प्रभावित रहे। सामूहिक विकास के लिए वे मार्क्सवाद एवं वैयक्तिक विकास के लिए गाँधीवाद को आवश्यक मानते थे।

इसी काल की अगली रचना ’ग्राम्या’ है। इस रचना में पन्त जी ने ग्रामीण जीवन की सच्चाई का चित्रण किया है। यह ग्राम युवती, गाँव के लङके,

वह बुड्ढा, ग्रामश्री आदि ग्रामीण संस्कृति को चित्रित करती है। पन्त जी एक ग्रामीण युवती के चित्र को कुछ इस प्रकार दिखाते हैं

इठलाती आती ग्राम युवती, वह गजगति सर्प डगर पर।
सरकाती पट, खिसकाती लट, शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख, उरोजो के युग घट।

इस काल की कविताएँ काल से भिन्न हैं क्योंकि कल्पना के बजाए यथार्थ को चित्रित करती है। भाषा सरल है। सरसता और कल्पना का अभाव है।

सुमित्रानंदन पन्त

पन्त जी की काव्य यात्रा का तीसरा चरण अरविन्द दर्शन है। अरविन्द से मिलने से पश्चात् पन्त जी अरविन्द साहित्य से खासे प्रभावित हुए। अरविन्द जी की पुस्तक ’भागवत जीवन’’ से वे इतने प्रभावित हुए कि उनके जीवन की दिशा ही बदल गई।

पन्त जी कहते हैं कि ’’इसमें सन्देह नहीं कि अरविन्द के दिव्य जीवन दर्शन से मैं अत्यन्त प्रभावित हूँ। श्री अरविन्द आश्रम के योगमुक्त अन्तःसंगठित वातावरण के प्रभाव से उध्र्व मान्यताओं सम्बन्धी मेरी अनेक शंकाएँ दूर हुई है।’’ पन्त जी की इस युग की रचनाएँ
1. स्वर्ण किरण (1946-47 ई.)
2. स्वर्ण धूलि (1947-48 ई.)

उपरोक्त दोनों रचनाओं में पन्त जी ने मानव को उध्र्वचेतन बनने की प्रेरणा दी है। दोनों रचनाएँ अरविन्द दर्शन से प्रभावित हैं। पन्त जी आन्तरिकव मानसिक समता को अत्यन्त आवश्यक मानते है।

इस काल की कविताओं में कवि चेतना को सर्वोपरि माना है। कवि ने ब्रह्म जीव और जगत तीनों को एक ही चेतना का रूप स्वीकार किया है।

वह जङ और चेतन में कोई भेद नहीं मानता।
वहीं तिरोहित जङ में जो चेतन में विकसित।
वही फूल मधु सुरभि वहीं मधुलिह चिर गंुजित।।

कवि ने बुद्धिवाद का विरोध किया है और त्याग, तपस्या, संयम, श्रद्धा, विश्वास और ईश्वर की प्रेम भावना को अपनाने पर बल दिया है। पन्त जी के काव्य का चतुर्थ चरण नवमानवतावादी कविताओं का युग है।
इस की युग रचनाएँ निम्नलिखित है।

1. उत्तरा (1949 ई.) 2. कला और बूढ़ा चाँद (1959 ई.)
3. अतिमा (1955 ई.) 4. लोकायतन (1961 ई.)
5. चिदम्बरा 6. अभिषेकिता
7. समाधिका

पन्त जी को चिदम्बरा पर 1922 ई. में भारतीय साहित्य का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार ’ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। ’उत्तरा’ से लेकर ’अभिषेकिता’ तक की उनकी सभी रचनाएँ मानवता को उन्नत बनाने के लिए दिए गए सन्देशों से युक्त हैं। पन्त जी ने विश्वबन्धुत्व एवं लोककल्याण की भावना पर विशेष बल दिया है। वे कहते हैं

वह हृदय नहीं जो करे न प्रेमाराधन।
मैं चिर प्रतीति में स्नान कर सकूँ प्रतिक्षण।।

उक्त सभी रचनाओं एवं विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि पन्त जी की काव्य यात्रा अनवरत जारी हैं। उनकी रचनाओं में विविधता पाई जाती है। हरिवंशराय बच्चन जी ने पन्त जी के सन्दर्भ में कहा है कि ’’जब सदियाँ बीत जाएँगी और हिन्द हिन्द की एकता की भाषा होगी तब यह सहज स्पष्ट होगा कि राष्ट्रभाषा का यह कवि सचमुच उस राष्ट्र का जन चारण था।’’

पन्त जी की काव्यभाषा

पन्त जी प्रकृति की छटा से अपनी काव्य रचना करते हैं। वे प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाते है। शब्दों के शिल्पकार हैं। डाॅ. जेवी ओझा पन्त की काव्यभाषा के सन्दर्भ में कहते हैं कि पन्त अप्रतिम भाव शिल्पी है। उन्होंने दर्शन, कला, विज्ञान, संस्कृति समाज से प्राप्त विषय सामग्री को कल्पनात्मक सौन्दर्य के अवरण में व्यंजित किया है। उनके काव्य में कोमल कल्पना दिखाई देती है। अपनी रचना पल्लव में उन्होंने काव्य भाषा पर अपनी टिप्पणीयाँ दी हैं।

उनका कहना है कि ’’भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्द प्रायः संगीत भेद के कारण एक ही पदार्थ के भिन्न-भिन्न स्वरूपों को प्रकट करते हैं। ’भ्रू’ से क्रोध की वक्रता, ’भृकुटि’ से कटाक्ष की चंचलता, भौंहों से स्वाभाविक प्रसन्नता, ऋजुता का हृदय में अनुभव होता है।
पन्त जी भाषा, छन्द विधान अप्रस्तुत योजना नाद सौन्दर्य एवं अलकार विधान के अभिनव प्रयोग अपनी रचनाओं मे करते रहे हैं। पन्त रसग्राही भावसाधक हैं।

उसी के अनुरूप उनकी कविताओं में भाव की स्वच्छन्दता सूक्ष्म कल्पना शक्ति वर्णन कौशल, लाक्षणिक काव्य भाषा, मनोरम अलंकार विधान लयबद्ध, छन्द सृजन आदि विशेषताएँ विद्यमान है। वस्तु विधान की दृष्टि से पन्त ने उत्तम प्रबन्ध योजना एवं गीति काव्यत्व कौशल का परिचय दिया है। गाँधीजी पर लिखी रचना ’लोकायतन’ में महाकाव्यात्मक औदात्य है। ’वीणा’, ’पल्लव’, ’गुंजन’ में गीति काव्यत्व है। ’पल्लव’ अपनी भूमिका के कारण छायावाद का मेनीफेस्टो कहलाता है।

भाषा एवं भाव की एकता पर पन्त जी ने विशेष बल दिया है। ’पल्लव’ की भूमिका में पन्त जी खङी बोली को हिन्दी काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने की वकालत करते हैं। पन्त जी का काव्य कौशल यह है कि उनके गीतों में भावना की सहज प्रवाहमयता ही नहीं है, मधुर शब्द योजना, माधुर्य गुण सम्पन्नता तथा भाषा की लाक्षणिकता का समन्वय भी है।

’’सघन मेघों को भीमाकास गर जाता है जब तमसाकार,
दीर्घ भरता समीर निःश्वास, प्रखर झरती जब पावस धार।’’

सुमित्रानंदन पन्त

पन्त जी ने शुद्ध परिमार्जित एवं समृद्ध काव्य भाषा का प्रयोग किया है। इन्होंने संस्कृत गर्भित और जनअनुकूल व्यावहारिक भाषा में कविताओं की रचना की है। कावि की शब्द योजना सरस मधुर एवं कमनीय है।

वीणा, पल्लव, गुंजन आदि रचनाओं में तत्समनिष्ठ शब्दावली का आधिक्य है। नवल, वधू, मृदु, गुंजन, शुचि सौरभ क्रातर, असार, अभिलाषा, धवल कुछ ऐसे ही शब्द है।
जैसे-
’’दिवस का इनमें रजत प्रसार, रष्मा का स्वर्ण सुहाग
निशा का तुहिन अश्रु-शंृगार, साँस का निःस्वन राग
नवोढ़ा की लज्जा सुकुमार, तरुणतम सुन्दरता की आग।’’

पन्त की विचार प्रधान कविताओं में भाषा व्यावहारिक, वर्णात्मक व स्वाभाविक है। यथा

’’यह आग शोभा ही में सीमित है
फागुल लाज में ही सिमटा रहेगा
यह मिट्टी ही शाश्वत है।’’

प्रकृति के रंग व रूपों का वर्णन कोमल कान्त पदावली में किया गया है

’’खैंच ऐं चीला भ्रू-सरचाप, शैली की सुधियों बारम्बार,

पन्त की काव्य भाषा उनकी संवदेनाओं का चित्र अभिव्यक्ति करती है

 

एक पल मेरे प्रिया के दृग पलक, थे उठे ऊपर सहज नीचे गिरे

चपलता ने इस विकम्पित पुलक से, दृढ़ किया मानो प्रवय सम्बन्ध था।

सुकुमारता, कोमलता, नाद सौन्दर्य एवं माधुर्य के लिए उनकी कविता ’नौका विहार’ दृष्टव्य है।

मृदु मन्द-मन्द, मन्थर-मन्थर
लघुतरणि हंसिनी सी सुन्दर
तिर रही खोल पालों के पर

पन्त जी शब्दों के चयन में निपुण है। अलंकारों के साथ-साथ उन्होंने अपने काव्य में उर्दू के भी शब्दों का चयन किया है। वे छायावादी कवियों में प्रमुख स्थान रखते हैं।

सुमित्रानंदन पन्त के बारे में महत्त्वपूर्ण प्रश्न – Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay

1. पन्त का जन्म कब हुआ था?
(अ) सन् 1899 ई. में (ब) सन् 1896 ई. में
(स) सन् 1900 ई. में (द) सन् 1902 ई. में
सही उत्तर-(स)

2. सुमित्रानंदन पन्त की प्रमुख रचनाएँ है?
(अ) ग्रंथि, वीणा, पल्लव, गुंजन
(ब) युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, वाणी
(स) कला और बूढ़ा चाँद, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि
(द) उपर्युक्त सभी
सही उत्तर-(द)

3. निम्न में से पन्त कृत महाकाव्य है?
(अ) युगांत (ब) लोकायतन
(स) कला और बूढ़ा चाँद (द) स्वर्ण किरण
सही उत्तर-(ब)

4. पन्तजी को किस कृति हेतु ’’भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’’ प्राप्त हुआ?
(अ) कला और बूढ़ा चाँद (ब) लोकायतन
(स) चिदम्बरा (द) ग्रंथि
सही उत्तर-(स)

5. निम्न में से किस कवि को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है?
(अ) निराला (ब) दिनकर
(स) गुप्त (द) पन्त
सही उत्तर-(द)

6. सुमित्रानंदन पन्त की चुनी हुई कविताओं का संग्रह है?
(अ) अणिमा (ब) लोकायतन
(स) युगवाणी (द) चिदम्बरा
सही उत्तर-(द)

7. प्रकृति के कुशल चितेरे कवि है?
(अ) प्रसाद (ब) निराला
(स) पन्त (द) महादेवी वर्मा
सही उत्तर-(स)

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2 thoughts on “सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय – Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay”

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