विभावना अलंकार – Vibhavana Alankar | परिभाषा, उदाहरण, पहचान

आज के आर्टिकल में हम काव्यशास्त्र के अंतर्गत विभावना अलंकार (Vibhavana Alankar) को विस्तार से पढेंगे ,इससे जुड़ें महत्त्वपूर्ण उदाहरणों को भी पढेंगे।

विभावना अलंकार – Vibhavana Alankar

विभावना अलंकार

लक्षणः- ’’विभावना विनापि स्यात् कारणं कार्य जन्म चेत्।’’

विभावना अलंकार की परिभाषा – Vibhavana Alankar ki Paribhasha

हमारे द्वारा जो कोई भी कार्य किया जाता है, उनके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य निहित होता है, परन्तु जब किसी पद में वास्तविक कारण के बिना ही किसी कार्य का होना पाया जाता है तो वहाँ विभावना अलंकार माना जाता है।

विभावना अलंकार की पहचान

पहचान के लिए जब किसी पद किसी पद में ‘बिना, बिनु, बिन, रहित’ आदि शब्दों का प्रयोग होता है तो वहाँ विभावना अलंकार माना जाता है।

विभावना अलंकार के उदाहरण – Vibhavana Alankar ki Udaharan

’’बिनु पद चलै, सुनै बिनु काना।
बिनु कर करम करै विधि नाना।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बङ जोगी।।

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में परम पिता परमेश्वर की सर्वव्यापकता का वर्णन करते हुए कवि तुलसीदासजी कहते हैं कि वह परम पिता परमेश्वर बिना पैरों के चलता है, बिना कानों के सुनता हैं, हाथों के बिना ही अनेक कार्य करता है, मुख से रहित होने पर भी समस्त पदार्थों का उपभोग करता है तथा जिह्वा के बिना भी बहुत बङा वक्ता है।
यहाँ संबंधित कारणों (पैर, कान, हाथ, मुख, जिह्वा) के बिना ही चलने, सुनने, कर्म करने, रस-उपभोग करने व बोलने के कार्य हो रहे हैं, अतः यहाँ विभावना अलंकार माना जाता है।

‘‘निदंक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय।।’’

विभावना के भेद – Vibhavana Alankar ke Bhed

विद्वान् आचार्यों के द्वारा विभावना के मुख्यतः निम्न छह भेद माने गये हैं-

  • प्रथम – कारण के अभाव में भी कार्य का होना।
  • द्वितीय – अपूर्ण या अपर्याप्त कारण होने पर भी कार्य का होना।
  • तृतीय – बाधक परिस्थितियों के होने पर भी कार्य का होना।
  • चतुर्थ – वास्तविक कारण के स्थान पर अन्य कारण से कार्य होना।
  • पंचम – विरोधी कारण से कार्य होना।
  • षष्ठ – कार्य से कारण की उत्पत्ति होना।

विभावना अलंकार के 10 उदाहरण

प्रथम विभावना (कारण के अभाव में भी कार्य का होना)

’’सखि इन नैननि तें घन हारे।
बिनहि रितु बरसत निसि-बासर, सदा मिलन दोउ तारे।।’’
स्पष्टीकरण – यहाँ वर्षा ऋतु के अभाव में भी नेत्रों से वर्षा होने का कार्य हो रहा है, अतः यहाँ प्रथम विभावना है।

’’मुनि तापस जिन तें दुख नहहीं।
ते नरेश बिनु पावक दहहीं।।’’
स्पष्टीकरण – यहाँ अग्निरूपी कारण के बिना ही जलना रूपी कार्य हो रहा है, अतः यहाँ प्रथम विभावना है।

’’लाभ भरी अँखियाँ बिहँसी, बलि बोल कहे बिन उत्तर दीन्हीं।’’

’’साहि तनै सिवराज की, ससहज टेव यह ऐन।
अनरीझै दारिद हरै, अनखीझै रिपु सैन।।’’

”शून्य भित्ति पर चित्र, रंग नहिं तनु बिनु लिखा चितेरे।।’’

द्वितीय विभावना (अपूर्ण या अपर्याप्त कारण होने पर भी कार्य का होना)

’’तोसो को सिवाजी, जेहि दो सौ आदमी सों जीत्यो।
जंग सरदार सौ हजार असवार को।’’

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में शिवाजी के द्वारा दो सौ आदमियों से ही सौ हजार असवारों के सरदार को जीतने का वर्णन किया गया है, जो अपर्याप्त कारण प्रतीत होता है, अतः यहाँ विभावना है।

‘‘आक धतूरे के फूल चढाये ते रीझत हैं तिहुँ लोक के साँई।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ मात्र आक व धतूरे के महत्त्वहीन (सुगंधरहित) फूल चढ़ाकर ही त्रिलोकेश्वर महादेव को प्रसन्न करने की बात कही गई है, अतः यहाँ द्वितीय विभावना है।

’’तिय कत कमनैती पढ़ी, बिनु जिह भौंह कमान।
चल चित बेधत चूकत नहिं, बंक विलोकनि बान।।’’

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में नायिका की उस विचित्र तीरंदाजी का वर्णन किया गया है जो अपर्याप्त कारणों (बिना डोरी का धनुष व टेढ़े-मेढ़े बाण) से ही रसिकों के मन को बेध रही है, अतः यहाँ द्वितीय विभावना है।

’’काम कुसुम धनु सायक लीन्हें।
सकल भुवन अपने बस कीन्हें।।’’

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में फूलों के धनुष-बाण धारण किये हुए कामदेव के द्वारा समस्त विश्व को वश में करने का वर्णन किया गया है जो अपर्याप्त कारण प्रतीत होता है। अतः यहाँ द्वितीय प्रकार की विभावना है।

’’मंत्र परम लघु जासु बस, बिधि हरिहर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज जहँ, बस कर अंकुश खर्ब।।’’

तृतीय विभावना (बाधक परिस्थितियों के होने पर भी कार्य का होना)

नैना नैक न मानहीं, कितो कहौं समुझाय।
ये मुँह जोर तुरंग लौं, ऐंचत हू चलि जाय।।
अथवा
’’लाज लगाम न मानहीं, नैना मो बस नाहिं।
ये मुँह जोर तुरंग लौं, ऐंचत हू चलि जाहिं।।’’

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पदों में रोकने पर भी नेत्रों के न मानने का वर्णन किया गया है अर्थात् बाधक परिस्थिति होने पर भी कार्य उत्पन्न हो रहा है, अतः यहाँ तृतीय प्रकार की विभावना है।

’’लाखन ओट करो किन घूँघट।
चंचल नैन छिपै न छिपाये।।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ घूँघट रूपी प्रतिबंध होने पर भी नेत्र छिप नहीं पा रहे हैं, अतः यहाँ तृतीय विभावना है।

’’जदपि बसे हरि जाय उत, आवन पावत नांहि।
मिलत मोहिं नित तदपि सखि, प्रतिदिन सपने मांहि।।’’

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में कृष्ण का अन्यत्र बस जाना उनके मिलने में प्रतिबंधक या रूकावट है, फिर भी वे गोपिका से सपने में मिल ही जाते हैं, जो कार्य सिद्धि का सूचक है। इस प्रकार बाधक परिस्थिति होेने पर भी कार्योत्पत्ति होने के कारण यहाँ तृतीय प्रकार की विभावना है।

चतुर्थ विभावना (वास्तविक कारण के स्थान पर अन्य कारण से कार्य का होना)

’’देखो नील कमल से कैसे, तीखे तीर बरसते हैं।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ नीलकमल से तीखे तीर बरसने के कार्य का वर्णन किया गया है जो उनका वास्तविक कारण नहीं है, अतः यहाँ चतुर्थ प्रकार की विभावना है।

’’विदु्रम के संपुट में उपजे मोती के दाने कैसे?
यह शुक फलजीवी करता चुगने की मुद्रा ऐसे।।’’

स्पष्टीकरण – मोती तो सीप मछली से उपजते हैं विद्रूम संपुट से नहीं, अतः यहाँ चतुर्थ प्रकार की विभावना है।

’’क्यों न उतपात होहिं बैरिन के झुण्डन में।
कारे घन उमङि अँगारे बरसत हैं।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ काले बादलों से अंगारे बरसाने का कार्य होने का वर्णन किया गया है जो उसका वास्तविक कारण नहीं हैं, अतः यहाँ चतुर्थ विभावना है।

’’भयो कंबु ते कंज इक, सोहत सहित बिकास।
देखहु चम्पक की लता, देति कमल सुखवास।।’’

स्पष्टीकरण यहाँ कंबु (शंख) से कमल (कंज) की उत्पत्ति होना तथा चंपकलता से कमल की सुगंध फैलाने का कार्य होने का वर्णन किया गया है, जो उनका वास्तविक कारण नहीं है।

’’चंपकलतिका से उङी गहब गुलाब सुबास।
रैन अमावस से लखो, प्रगट्यो परत प्रकास।।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ चंपकलता को गुलाब की गंध का तथा अमावस्या की रात्रि को प्रकाश की उत्पत्ति का कारण माना गया है, जो उनकी उत्पत्ति का वास्तविक कारण नहीं है।

‘‘हँसत बाल के बदल में, यों छबि कधु अतूल।
फूली चंपक बेलि तें, झरत चमेली फूल।।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ चंपकलता से चमेली के फूल झङने की बात कही गई है, जो इसका वास्तविक कारण नहीं है, अतः यहाँ चतुर्थ प्रकार की विभावना है।

पंचम विभावना (विरोधी कारण से कार्य का होना)

‘‘पौन से जागत आगि सुनी ही पै,
पानी सों लागत आजु मैं देखी।’’

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में पानी जैसे विरोधी कारण से भी आग लगने के कार्य का वर्णन किया गया है, अतएव यहाँ पंचम प्रकार की विभावना है।

‘‘सिय हिय सीतल सी लगे, जरत लंक की झार।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ लंका को जला देने वाली आग (झार) सीता के हृदय को शीतल लग रही है जो एक विरोधी कारण है, अतः यहाँ पंचम प्रकार की विभावना है।

’’वा मुख की मधुराई कहा कहौं, मीठी लगे अँखियान लुनाई।।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ आँखों की लवणता के भी मीठी लगने का वर्णन किया है, जो एक विरोधी कारण है।

’’लाल तिहारे रूप की, निपट अनोखी बान।
अधिक सलोनो है तऊ, लगत मधुर अँखियान।।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ अधिक साँवला रंग भी आँखों को मधुर लग रहा है, जो विरोधी कारण प्रतीत होता है।

‘‘आग हूँ जिससे ढलकते बिन्दु हिमजल के।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ आग से हिमकणों के ढलकने की बात कही गयी है, जो एक विरोधी कारण है।

’’चुरत चाँदनी में अरी, विरहं व्याकुला बाल।
बूझत कहा रसाल तुम, वा विरहिन को हाल।।’’

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में शीतल चाँदनी में भी वियोगिनी बाला के जलने का वर्णन किया गया है, जो एक विरोधी कारण है।

षष्ठ विभावना (कार्य से कारण की उत्पत्ति होना)

”भयो सिन्धु तें विधु सुकवि, बरनत बिना विचार।
उपज्यो तो मुख इन्दु ते, प्रेम पयोधि अपार।।”

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में कवि की कल्पना में मुखचन्द्र के प्रेम सागर की उत्पत्ति का वर्णन किया है, जो कार्य से कारण की उत्पत्ति होने का भाव सूचित कर रहा है, अतः यहाँ छठे प्रकार की विभावना है।

’’देखो या विधुवदन में, रस सागर उमगात।’’

स्पष्टीकरण – यहाँ पर भी चन्द्रमुख से रस के समुद्र की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है, जो कार्य से कारण की उत्पत्ति का द्योतक है।

‘‘कमल जुगल से निकलता, देखो निर्मल नीर।’’

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में कमल से जल की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है, जो कार्य से कारण की उत्पत्ति का द्योतक है।

’’हाय उपाय न जाय कियो, ब्रज बूङत है बिनु पावस पानी।
धारन तें अँसुवान की है, चख मीनन तें सरिता सरसानी।।’’

स्पष्टीकरण – प्रस्तुत पद में मीन से सरिता की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है, जो कार्य से कारण की उत्पत्ति का द्योतक है।

निष्कर्ष :

आज के आर्टिकल में हमनें काव्यशास्त्र के अंतर्गत विभावना अलंकार (Vibhavana Alankar) को पढ़ा , इसके उदाहरणों को व इसकी पहचान पढ़ी। हम आशा करतें है कि आपको यह अलंकार अच्छे से समझ में आ गया होगा …धन्यवाद

1 thought on “विभावना अलंकार – Vibhavana Alankar | परिभाषा, उदाहरण, पहचान”

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